Wednesday 12 July 2023

सुख देने वाली प्रकृति को दुख देना तो क्रूरता है


वर्षा काल में कच्चे मकानों के  धसकने , कीचड़ और बाढ़ जैसी दिक्कतें आती हैं। शहरों में निकासी न होने से जलभराव की समस्या भी आम है। पर्यावरण असंतुलन के कारण हो रहे ऋतु परिवर्तन से राजस्थान जैसे मरुस्थलीय राज्य में भी जलप्लावन की स्थिति बनने लगी है। गुजरात में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। उ.प्र , बिहार के अलावा पूर्वोत्तर के असम का भी बाढ़ से जन्मजात नाता है। लेकिन देश के पर्वतीय क्षेत्रों से आ रही खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। उत्तराखंड और हिमाचल का समूचा पहाड़ी इलाका इन दिनों बाढ़ और भूस्खलन का शिकार है। जगह - जगह सैलानी फंसे हुए हैं । सैकड़ों वाहन रास्ता खुलने का इंतजार कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर सड़कें नष्ट हो चुकी हैं , अनेक महत्वपूर्ण पुल बह गए। इन सबकी मरम्मत में लंबा समय और बड़ी राशि खर्च होगी। गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तीर्थ यात्रियों के साथ ही पर्यटकों का सैलाब उमड़ पड़ता है। कश्मीर में अमरनाथ यात्रा वर्षाकाल में आयोजित होती है। इसके कारण समूचे पर्वतीय क्षेत्र में लाखों लोगों की आवाजाही बनी रहती है। हालांकि तीर्थयात्राएं और पर्यटन दोनों न जाने कब से होते आ रहे हैं किंतु सड़कों सहित आवागमन के साधनों के विकास ने पहाड़ों से जुड़ी नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली कहावत को पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है। कहने का आशय ये कि जिन पर्वतीय क्षेत्रों में तीर्थाटन और पर्यटन हेतु जाना बेहद कठिन और खतरों से भरा माना जाता था वह आजकल बच्चों का खेल बन गया है । तीर्थ यात्रा और पर्यटन को मिलाकर अब धार्मिक पर्यटन नामक नया कारोबार जोर पकड़ चुका है। किसी समाज में तीर्थयात्रा और पर्यटन क्रमशः आध्यात्मिकता और खुशनुमा सोच के प्रतीक होते हैं।  उस लिहाज से इन दोनों क्षेत्रों में यदि लोगों की रुचि बढ़ी तो धार्मिकता के साथ ही उसे अर्थव्यवस्था के लिए भी सुखद कहा जा जाना चाहिए । बीते दो पर्यटन मौसमों में जम्मू कश्मीर सहित हिमाचल में सैलानियों की रिकार्ड संख्या को अर्थव्यवस्था में आई उछाल के तौर पर देखा गया। इस साल तो वह रिकार्ड भी टूट गया। यही हाल उत्तराखंड के चार धामों के है। कुछ साल पहले केदारनाथ में जलप्रलय के बाद व्यवस्थाओं में काफी सुधार किए गए थे ।  आपदा प्रबंधन और आवागमन को सुगम और सुरक्षित  बनाने हेतु भी  प्रयास  हुए । परिणामस्वरूप इन दुर्गम स्थानों की यात्रा बेहद आसान बन गई है। यहां तक कि मनाली होते हुए लेह (लद्दाख ) जाने के लिए लगने वाला तीन दिन का समय घटकर आधे से भी कम रह गया है। लेकिन सुविधाओं के विकास से हिमालय स्थित तीर्थ और पर्यटन स्थलों तक पहुंचने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है । वह पहाड़ों की सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है इसकी चर्चा  ज्यादातर भूगर्भशास्त्रियों , मौसम  विशेषज्ञों , पर्यावरणविदों और चंद बुद्धिजीवियों तक ही सीमित है। भावी पीढ़ियों की चिंता करने वाले कुछ और भी लोग हैं जो इस दिशा में सोचते हैं । उदाहरण के लिए सुंदरलाल बहुगुणा और उन जैसे न  जाने कितनों ने अपना समूचा जीवन पर्वतीय के क्षेत्रों प्राकृतिक संतुलन को बचाए रखने झोंंक दिया । भले ही उनको ढेरों  सम्मान और पुरस्कार दिए गए परंतु उनकी बातों पर अमल न होने का ही नतीजा है कि जोशीमठ शहर सहित उत्तराखंड में फैले सदियों पुराने अनेक मंदिर धसक रहे हैं। पहाड़ों पर बारिश पहले भी होती थी जिसके कारण मैदानी इलाकों में बाढ़ आती रही किंतु अब पहाड़ों में बसे शहर और ग्रामीण क्षेत्र भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। इसका कारण इन पर्वतीय क्षेत्रों की प्राकृतिक संरचना से की जा रही अविवेकपूर्ण छेड़छाड़ ही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के बाद सड़कों को चौड़ा करने पहाड़ों को तोड़ने जैसी कारस्तानी ने समूचे उत्तराखंड और हिमाचल को खतरों में झोंक दिया हैं । बढ़ते यात्री वहां के लोगों के लिए  आर्थिक समृद्धि का कारण तो बन रहे हैं लेकिन इसके लिए हिमालय के सीने को जिस तरह छेदा जा रहा है वह अपराध से भी ज्यादा  पाप है। हालांकि ऐसे विचार को विकास विरोधी कहकर खारिज कर दिया जाता है । इसके अलावा संपन्न देशों के पर्वतीय क्षेत्रों में अधो संरचना के विकास का उदाहरण भी दिया जाता है  किंतु उन देशों के मौसम , भूगर्भीय रचना , कम जनसंख्या और सबसे बड़ी बात नियम कानूनों के प्रति दायित्वबोध के कारण प्राकृतिक संतुलन को तुलनात्मक तौर पर उतना नुकसान नहीं होता। उस दृष्टि से हमारे देश की  स्थिति चिंताजनक है। यही कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में हुए विकास के बाद लोगों में स्वच्छंदता आ गई जिससे विकास का परिणाम विनाश के तौर पर आया। गत वर्ष अमरनाथ में जो जनसैलाब आया उसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता था। समूचा हिमालय उसी तरह व्यवहार करने लगा है। ये देखते हुए अब ये जरूरी  है कि पहाड़ों को भी सांस लेने का समय दिया जाए। केवल लोगों की संख्या पर नियंत्रण ही नहीं बल्कि वहां वाहनों की आवाजाही  से उत्पन्न शोर शराबे , हेलीकॉप्टरों से होने वाले कम्पन आदि को भी कम किया जावे। बैटरी चालित वाहनों की अनिवार्यता भी एक कदम हो सकता है। साल दर साल बढ़ती आपदाओं में मानवीय जिंदगियों के  साथ -  साथ जो आर्थिक नुकसान होने लगा है उसके बाद अब पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के स्वरूप में बदलाव करना जरूरी हो गया है। जो प्रकृति हमें सुख दे ,  उसे हम दुख दें तो ये उसके प्रति क्रूरता ही होगी। लगातार आ रहे संकेतों के  बाद भी यदि हम नहीं चेते तो फिर ये मान लेना गलत न होगा कि हम किसी बड़े हादसे को निमंत्रण दे रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment