Monday 10 July 2023

वरना कांग्रेस और वामपंथी बंगाल में दोबारा पैर नहीं जमा सकेंगे



प.बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान बीते एक माह के भीतर 35 लोगों के मारे जाने का जो आंकड़ा आया वह सरकारी है। माना जा रहा है चुनावी हिंसा में और भी ज्यादा लोगों ने जान गंवाई। अकेले मतदान के ही दिन 15 लोग मौत का शिकार हुए। हालांकि इस राज्य के लिए ये नई बात नहीं है। लगभग हर चुनाव में वहां लोगों की बलि चढ़ती रही है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच खूनी झड़प के अलावा असामाजिक तत्व भी चुनाव के बहाने अपने प्रतिद्वंदी को कमजोर करने के लिए खून - खराबा करने से बाज नहीं आते। जब बंगाल में मार्क्सवादी सरकार थी तब इस तरह की हिंसा के विरुद्ध कांग्रेस में रहते वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी बहादुरी के साथ संघर्ष किया करती थीं। अनेक बार तो उन पर व्यक्तिगत हमले हुए जिसमें उन्हें चोट भी आई। लेकिन जब केंद्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने वामपंथी अत्याचार के विरुद्ध उनके संघर्ष को महत्व नहीं दिया तब उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नामक पार्टी बनाकर अलग रास्ता पकड़ लिया और जी - तोड़ मेहनत करते हुए अंततः वामपंथियों के  मजबूत दुर्ग को जमींदोज कर ये स्थिति पैदा कर दी कि  वर्तमान विधानसभा में एक भी साम्यवादी सदस्य नहीं है।  इस प्रकार ममता ने वह पराक्रम कर दिखाया जो इंदिरा गांधी और अतलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गजों तक से न हो सका । इसमें दो राय नहीं हैं कि लगातार तीन विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतकर उन्होंने प.बंगाल में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। और इसी के दम पर उनमें प्रधानमंत्री बनने की  महत्वाकांक्षा  उत्पन्न हुई । सादगी भरे रहन - सहन के लिए उनकी प्रशंसा हर कोई करता है। केंद्र में मंत्री रहने के दौरान भी वे साधारण जीवन शैली का परिचय देती रहीं। ऐसे में उनसे उम्मीद की जाती थी कि मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे प.बंगाल में वामपंथी सत्ता के दौर में बने भय के वातावरण से लोगों को मुक्ति दिलाएंगी किंतु कुर्सी पर विराजमान होने के बाद उन्होंने भी वही तौर - तरीके अपनाना शुरू कर दिया जिनसे ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्री काल में जनता त्रस्त हो चुकी थी। राजनीतिक आतंकवाद का जो वीभत्स रूप वामपंथी सरकार के समय दिखाई देता था वही तृणमूल के नाम से पूरे राज्य में नजर आता है क्योंकि मार्क्सवादी पार्टी के साथ मिलकर गुंडागर्दी करने वाला तबका धीरे - धीरे तृणमूल में घुस आया। ऐसा नहीं है कि ममता इससे अनजान थीं किंतु  अपने  राजनीतिक लाभ  की वजह से वे चुप रहीं।  पंचायत चुनाव को लेकर शुरू से  हिंसा होने की आशंका थी । ऐसे में जब उच्च न्यायालय ने  केंद्रीय बल तैनात किए जाने का निर्देश दिया तब उसको रोकने के लिए जिस तरह राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय तक गई उससे  स्पष्ट हो गया कि हिंसा को रोकने में उसकी रुचि नहीं थी । इसीलिए ये कहा  जा रहा है कि मतदान के दिन हुई हिंसा में कहीं न कहीं उसकी भूमिका भी रही। केंद्रीय बल के उच्च अधिकारियों की ये शिकायत काबिले गौर है कि राज्य निर्वाचन आयोग और प्रशासन ने संवेदनशील मतदान केंद्रों की जानकारी उनको नहीं दी। सैकड़ों आपत्तियों के बाद ही लगभग 600 मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराया जा रहा है। इन चुनावों में कौन जीतेगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये कि ऐसे चुनाव का लाभ ही क्या जो राज्य सरकार के संरक्षित आतंक के साए में हुआ। लोकसभा चुनाव में चूंकि केंद्रीय चुनाव आयोग की भूमिका होती है और अन्य राज्यों के अधिकारी और पुलिस बल तैनात रहते हैं , इसलिए राज्य सरकार प्रशासन का दुरुपयोग नहीं कर पाती और गुंडागर्दी भी नियंत्रण में रहती है किंतु विधानसभा , स्थानीय निकाय और पंचायत  चुनाव में तो राज्य सरकार ही सर्वेसर्वा होती है। ऐसे में यदि हिंसा और हत्या तथा बूथ लूटने की घटनाएं हुईं  तब उसे जिम्मेदार ठहराना गलत न होगा। राज्यपाल इस बारे में अपनी जो रिपोर्ट केंद्र को सौंप रहे हैं उसका ये कहकर ममता विरोध करेंगी कि वे भाजपा द्वारा नियुक्त किए गए हैं ।   ऐसे में इस चुनाव को लेकर कांग्रेस का क्या रुख है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर तो वह भाजपा विरोधी विपक्ष का गठबंधन बनाने प्रयासरत है वहीं प.बंगाल में वामपंथी दलों के साथ मिलकर ममता के विरुद्ध मैदान में है।   बहरहाल , पंचायत चुनाव में जो कुछ हुआ उसके बाद ये कहना गलत न होगा कि ममता भी अपनी पूर्ववर्ती मार्क्सवादी सरकार के तरह ही निरंकुश हैं और विरोध को किसी भी कीमत पर कुचलने में संकोच नहीं करती। ऐसे में कांग्रेस और वामपंथी मिलकर  इन चुनावों में हुई धांधली , हिंसा और हत्याओं को मुद्दा बनाकर विरोध में आगे नहीं आते तब फिर उन्हें इस राज्य में अपने पैर दोबारा जमाने की उम्मीद छोड़ देना चाहिए ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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