Saturday 8 July 2023

क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रहीं


महाराष्ट्र में हुई राजनीतिक उठापटक के बाद ये सवाल उठने लगा है कि क्या एक  परिवार द्वारा नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य अंधकारमय है। जिस तरह से एनसीपी में टूटन हुई उसके पीछे सीधा - सीधा कारण यही समझ में आया कि शरद पवार ने अपने  उत्तराधिकार का निर्णय करते समय राजनीतिक दृष्टि से विचार करने के बजाय अपनी संतान को ज्यादा महत्व दिया । बीते अनेक दशकों से ये माना जाता रहा था कि उनके भतीजे अजीत पवार ही इस पार्टी का भविष्य होंगे किंतु जब इस बारे में अंतिम फैसला करने का समय आया तो श्री पवार ने बेटी सुप्रिया सुले को बागडोर सौंप दी। इसके बाद वही हुआ जो होना था। अजीत ने कई महीनों से चली आ रही अटकलों को सही साबित करते हुए बगावत कर दी और भाजपा के संरक्षण में चल रही महाराष्ट्र सरकार में उपमुख्यमंत्री बन गए। उनके साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे श्री पवार के अति विश्वस्त भी बगावत में शामिल हो गए । इसका कारण भी यही माना जा रहा है कि उन दोनों को सुप्रिया के मातहत काम करने में अपनी तौहीन लग रही थी। श्री पटेल को तो एनसीपी का दूसरा कार्यकारी अध्यक्ष तक बना दिया गया था। हालांकि पार्टी पर किसका कब्जा रहेगा इसे लेकर  फिलहाल कानूनी पेंच फंसा हुआ है किंतु एक बात तो तय है पवार परिवार में आई इस दरार की वजह से एनसीपी की ताकत अब पहले जैसी नहीं रहेगी। ऐसा ही कुछ शिवसेना के साथ भी हुआ। स्व.बाल ठाकरे ने शुरुआत में शिवसेना में अपने भतीजे राज ठाकरे को आगे बढ़ाया जो बेहद तेज तर्रार युवा नेता के रूप में महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित होने लगे थे। जबकि उनके  पुत्र  उद्धव उन दिनों अपने फोटोग्राफी के शौक में डूबे हुए थे। लेकिन कालांतर में जब पार्टी की विरासत सौंपने का समय आया तब उन्होंने भी सक्रिय भतीजे के स्थान पर निष्क्रिय बेटे पर भरोसा किया जिसकी वजह से वे मनसे ( महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) नामक नई पार्टी बनाकर अलग जा बैठे। उसके बाद की कहानी सब जानते हैं। जो भाजपा कभी शिवसेना के पीछे चला करती थी वह उससे बड़ी ताकत बन गई। ये उदाहरण अन्य राज्यों में भी दोहराया जाता रहा। उ.प्र में स्व.मुलायम सिंह यादव के पुत्र प्रेम के कारण सपा में विभाजन हुआ और अनेक पुराने समाजवादी यहां - वहां बिखर गए। बिहार में लालू यादव का कुनबा प्रेम भी जगजाहिर है। झारखंड में शिबू सोरेन की विरासत बेटे हेमंत के पास है तो हरियाणा में देवीलाल परिवार भी आखिर बिखरकर रह गया। जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के वर्चस्व के कारण पार्टी के अनेक वरिष्ट नेता उसे छोड़ गए। तेलुगु देशम भी इसी का शिकार हो गई। बसपा सुप्रीमो मायावती भी भतीजे प्रेम के कारण नुकसान उठा रही हैं ।अकाली दल में हुई टूटन भी स्व.प्रकाश सिंह बादल के पुत्र मोह के कारण देखने मिली । महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम ने क्षेत्रीय दलों के भविष्य पर तो प्रश्नचिन्ह लगाया ही ये बात भी सामने आने लगी है कि राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ती रुचि अंततः उनके कमजोर होने के रूप में सामने आती है क्योंकि  किसी राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने की वजह से उनकी अपनी वैचारिक पहिचान नष्ट होने लगती है। और धीरे - धीरे वे अपने ही प्रभावक्षेत्र में कमजोर होते जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जितने भी क्षेत्रीय दल भाजपा विरोधी गठबंधन में शामिल होने सक्रिय हैं वे सब कांग्रेस के इर्द - गिर्द घूम रहे हैं। अतीत में जो छोटे - छोटे दल मिलकर तीसरे मोर्चे की शक्ल में सौदेबाजी करने में सफल रहे वे भी आज कांग्रेस अथवा भाजपा की परिक्रमा कर रहे हैं। यद्यपि आज भी ममता बैनर्जी और स्टालिन जैसे क्षेत्रीय छत्रप हैं किंतु उनके पार्टी में भी परिवार का कब्जा बनाए रखने की कोशिश अंतर्कलह का कारण बन रही है। स्टालिन के भाई और बहिनें भी सत्ता में बंटवारे के लिए दबाव बनाया करते हैं तो ममता द्वारा भतीजे को महत्व दिए जाने से पुराने साथी छिटक रहे हैं। तेलंगाना में  के.सी.राव की बेटी उत्तराधिकारी बनती दिख रही हैं। हालांकि इन सबने कांग्रेस से ही ये सीखा है  कि पार्टी को परिवार की निजी जागीर बनाकर रखा जाए। उ.प्र में चौधरी चरणसिंह की पार्टी बेटे के बाद पोता चला रहा है। इस सबसे ये  निष्कर्ष निकाला जा सकता है क्षेत्रीय पार्टियां अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही हैं। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों यदि थोड़ा सा धैर्य रखें तो छोटे दलों पर उनकी निर्भरता कम हो सकती है। कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास जिस तरह बढ़ा उसे कायम रखना उसके लिए हितकारी रहेगा। इसी तरह भाजपा को भी  छोटी पार्टियों को साथ लाने की बजाय अपने कैडर को मजबूत करना चाहिए। छोटे दलों द्वारा  अनुचित दबाव और सौदेबाजी की नीति देश के लिए कितनी नुकसानदेह हो रही है ये सर्वविदित है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

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