Tuesday 11 July 2023

जनसंख्या के बोझ को बढ़ने से रोकने कदम उठाना जरुरी



आज विश्व जनसंख्या दिवस है। पूरी दुनिया में ये विमर्श चल रहा है कि यदि आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो धरती पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन कम होते - होते खत्म होने की कगार पर पहुंच जायेंगे और तब उनके लिए वैसी ही लड़ाई होगी जैसी एक साल से भी ज्यादा समय से रूस और यूक्रेन के बीच चली आ रही है। इसके पहले से पश्चिम एशिया में जिस तरह की अशांति है उसका कारण भी कच्चे तेल नामक काला सोना ही है। चीन के विस्तारवाद के पीछे भी प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना है। पेट्रोल और गैस के अलावा भविष्य में पेय जल की समस्या भी विकराल होने जा रही है।और तब उसके लिए भी संघर्ष होगा। उल्लेखनीय है भारत हाल ही में चीन को पीछे छोड़ सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। दूसरी तरफ चीन और जापान सरीखे देश जन्म दर में गिरावट से चिंतित हैं क्योंकि उसके कारण उनके उद्योगों को श्रमिक मिलने की किल्लत होने लगी है। हालांकि परिवार नामक संस्था के टूटने की वजह से भी अनेक विकसित देशों में आबादी का आंकड़ा ठहरा हुआ है। यूरोप के कुछ छोटे देश ऐसे हैं जिनकी आबादी तो लाखों में है किंतु अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों और तकनीकी विकास के कारण वे दुनिया के विकसित और संपन्न राष्ट्रों में शुमार होते हैं।  भारत सदृश विशाल देश तक उनसे आर्थिक सहायता और तकनीकी सलाह लेते हैं। स्वीडन की बोफोर्स तोप इसका उदाहरण है। लेकिन इन देशों में बेहतर जिंदगी के चलते अन्य देशों के नागरिक जिस तेजी से यहां बसते जा रहे हैं उसकी वजह से माहौल बिगड़ने का अंदेशा है विशेष रूप से अरब देशों से शरणार्थी बनकर आए मुस्लिम समस्या बन रहे हैं । दुनिया की बढ़ती आबादी से  जमीन और पानी की कमी ही नहीं हो रही बल्कि वाहनों की बढ़ती संख्या से पर्यावरण के लिए भी खतरा पैदा हो गया है। समुद्र में चल रहे हजारों जहाज और आकाश में विचरते वायुयानों से जो प्रदूषण होता है उसका दुष्प्रभाव धरती पर रहने वालों पर भी पड़ रहा है। विशेषज्ञों का निष्कर्ष ये है कि आज जितने संसाधन पृथ्वी पर हैं वे जनसंख्या के अनुपात में रोजाना घट रहे हैं। सुविधाजनक और विलासिता पूर्ण जीवनशैली के प्रति बढ़ते रुझान के कारण प्रकृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है। यही कारण है कि प्राकृतिक आपदाओं का आगमन जल्दी - जल्दी होने लगा है। विकास की वासना ने जानलेवा कोरोना के वायरस पूरी दुनिया में फैलाकर मानव जाति को ज्ञात इतिहास की जो सबसे बड़ी महामारी दी उससे ये भी साबित हो गया कि मनुष्य की अनगिनत कथित उपलब्धियां किसी न किसी बिंदु पर आकर शक्तिहीन हो जाती हैं । अमेरिका जैसा विकसित और ताकतवर देश भी चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय कुछ न करने की स्थिति में आ जाता है। विश्व भर में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर चिंता व्यक्त की जा रही है किंतु इस संकट को हल करने की दिशा में जितना दिखावा होता है उसका आधा भी काम नहीं होने से स्थिति एक कदम आगे दो कदम पीछे की बन चुकी है। विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन के लिए उपदेश देने वाले बड़े राष्ट्र खुद पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। चीन ने अपनी आबादी में वृद्धि को तो जोर -  जबरदस्ती से थाम लिया लेकिन कार्बन उत्सर्जन के मामले में वह बेहद लापरवाह है। विश्व की जो संस्थाएं इस बारे में जांच आदि करती हैं उनसे भी चीन किसी प्रकार का सहयोग नहीं करता। भारत की ही बात करें तो हमारी आबादी 143 करोड़ के आसपास आ गई है। आर्थिक विकास के मामले में चीन से हमारा मुकाबला है । लेकिन उसने एक तरफ तो अपनी जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण किया वहीं दूसरी तरफ विशाल आबादी को निठल्ला बैठे रहने के बजाय उत्पादकता से जोड़ा जिसका नतीजा ये हुआ कि अफीमचियों के देश के तौर पर कुख्यात चीन ने अमेरिका को टक्कर दे डाली। साम्यवादी सत्ता के बाद भी उसने उदारीकरण की पश्चिमी अवधारणा को अपने अनुरूप बनाया उसी का परिणाम रहा कि दुनिया की लगभग सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में अपनी उत्पादन इकाईयां लगाई। दूसरी तरफ भारत में साठ और सत्तर के दशक तक परिवार नियोजन का जो अभियान जोर - शोर से चलाया जाता था वह उपेक्षा का शिकार होकर रह गया। चुनावी राजनीति ने जिस मुफ्त संस्कृति का विकास किया उसकी वजह से आज भारत में करोड़ों लोग बिना हाथ - पैर चलाए सरकारी सहायता के बल पर अपना पेट भर रहे हैं। विरोधाभासी चित्र ये है कि  बेरोजगारी के आंकड़े तो सर्वकालीन उच्च स्तर पर हैं लेकिन खेती , उद्योग और छोटे कारोबारी तक  कामगारों की कमी से त्रस्त हैं। चीन ने जिस आबादी को संसाधन बनाया वही हमारे देश में बोझ बनकर रह गई। इसके लिए निश्चित रूप से हमारे देश की राजनीति उत्तरदायी है जिसने  कामचोरी को बढ़ावा  दिया। किसी को हजार -  दो हजार बेरोजगारी भत्ता देने के बजाय यदि उससे रोजाना घंटे - दो घंटे भी काम करवाया जाए तो उसे श्रम का महत्व समझ आएगा । इसी तरह महिलाओं के खातों में  पांच सौ - हजार जमा करने से उनका सशक्तीकरण हो जायेगा , ये सोचना मूर्खों के  स्वर्ग में रहने जैसा है। ये सच है कि चीन में चुनाव महज दिखावा है इसलिए वहां रेवड़ियां नहीं बांटी जाती और काम करने में सक्षम प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादकता से जोड़ा गया है। इसके विपरीत हमारे देश में तो चुनाव कभी न खत्म होने वाला महोत्सव है जिसके दौरान जो मांगोगे वहीं मिलेगा वाली दरियादिली दिखाई जाती है। और तो और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने  में भी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप जैसी बातें आड़े आने लगती हैं। ये देखते हुए समय आ गया है देश को अपनी विदेश , रक्षा , वित्तीय और शिक्षा नीति की तरह ही जनसंख्या नीति भी बनानी  चाहिए। दुनिया का उत्पादन केंद्र बनने की उम्मीद और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने की  महत्वाकांक्षा में जनसंख्या का बोझ बड़ी बाधा बन सकती है। जनसंख्या दिवस के  अवसर पर इस दिशा में त्वरित निर्णय करने पर विचार होना चाहिए।
- रवीन्द्र वाजपेयी 

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