Wednesday 19 July 2023

अमेरिका और इटली की खबरों से हमें भी सावधान हो जाना चाहिए




वैसे तो दुनिया में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिस पर लगातार लिखा जा सकता है किंतु कुछ खबरें ऐसी होती हैं जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों पर गहरा असर डालने वाली होने के बावजूद महज इसलिए नजरंदाज कर दी जाती हैं क्योंकि उनमें सनसनी नहीं है। ऐसा ही समाचार है ,अमेरिका के कैलिफोर्निया में तापमान का 55 और इटली में 50 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाना। वहां ये गर्मियों का मौसम है लेकिन पारा अरब के मरुस्थली देशों के बराबर जा पहुंचे ये खबर दिल को दहलाने वाली है। जिन देशों को ठंडा मानकर सैलानी अपनी गर्मियां बिताने जाते हैं , उनमें भी तापमान का आंकड़ा अर्धशतक पार करने लगे तो इसे साधारण बात मानकर उपेक्षित करना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। कैलिफोर्निया , अमेरिका का वह हिस्सा है जहां का तापमान न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन की अपेक्षा ज्यादा रहता है। वहां रह रहे भारतीय इस बात से खुश रहते हैं कि उनको अमेरिका की कंपकपाने वाली सर्दी  का सामना नहीं करना पड़ता । इसी तरह इटली पर्यटकों की पसंदीदा जगह है। वहां के समुद्र तट अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन जो ताजा हालात हैं उनमें कैलिफोर्निया और इटली दोनों भारत के जैसलमेर और अरब के रेगिस्तानी इलाकों की गर्मियों का एहसास करवा रहे हैं जहां तापमान 50 डिग्री के पार जाना साधारण बात होती है।  यूरोप के इस देश में चल रही ग्रीष्म लहर जिस तरह से लोगों को हलाकान कर रही है वह केवल इटली या इस महाद्वीप के ही नहीं वरन समूचे विश्व के लिए चिंता का कारण है ।  इसके माध्यम से प्रकृति अपने बदलते स्वभाव का ऐलान कर रही है। दरअसल जब यूरोप के किसी देश में तापमान 50 डिग्री जाने लगे तब ये सोचना कठिन नहीं होगा कि पृथ्वी गर्म हो रही है और अब उसके ध्रुवों के नजदीक रहने वाले भी सूरज से निकलती आग से नहीं बच सकेंगे। सबसे बड़ी बात ये है कि यूरोपीय देशों में साल दर साल बढ़ती गर्मी से उत्तरी ध्रुव के हिमशैल (ग्लेशियर ) लगातार छोटे होते जा रहे हैं । समय - समय पर बर्फ के विशालकाय टुकड़े टूटकर समुद्र में आने लगे हैं। ये स्थिति वाकई दहलाने वाली है। दुनिया के नष्ट होने की जो भविष्यवाणियां समय - समय पर की गईं वे भले ही  मजाक का पात्र बनती रही हों किंतु यदि पृथ्वी के उन हिस्सों में जहां की गर्मियां भी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों से ज्यादा ठंडी रहती थीं,तापमान रेगिस्तान का एहसास करवाने लगे तब इसे साधारण मान लेना  भावी पीढ़ियों के भविष्य को झुलसने के लिए छोड़ देने जैसा होगा। अमेरिका और इटली की गिनती विकसित और संपन्न देशों में होती है जो पर्यावरण संरक्षण के लिए  भारत जैसे विकासशील देश की तुलना में कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं। हमारे देश में जहां जाएं गंदगी नजर आती है। वायु प्रदूषण के अलावा शुद्ध पेयजल भी सभी को सुलभ नहीं है। गंगा जैसी पवित्र मानी जाने वाली नदी भी लाख प्रयासों के बाद प्रदूषित हो गई है। देश की राजधानी में बहने वाली दूसरी पवित्र नदी यमुना का जल तो किसी नाले से भी बदतर है।  सैकड़ों छोटी नदियां लुप्त होने के कगार पर हैं। हिमालय अपनी मजबूती खोने के प्रमाण लगातार दे रहा है। गर्मियों में तापमान का 45 डिग्री पार कर जाना मामूली हो गया है। दिल्ली की हवा में समाया धुंआ दमघोंटू हो जाता है। वाहनों की बेतहाशा संख्या की वजह से छोटे - बड़े सभी शहर प्रदूषण का शिकार हैं। इसका असर वनों पर भी पड़ रहा है। बढ़ते तापमान से हरियाली वाले इलाके भी अब सूखने लगे हैं। भूजल स्तर लगातार घटने से नई समस्या उत्पन्न हो रही है। 2030 तक पृथ्वी  को गर्म होने से रोकने के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय संधि हुई थी वह कोविड के बाद बेमानी होकर रह गई। पहाड़ों पर सैलानियों द्वारा छोड़ा कचरा उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। अब तो अंतरिक्ष में भी बेकार हो चुके उपग्रह और रॉकेट समस्या बन रहे हैं। समूचे परिदृश्य पर नजर डालें तो विकास की दौड़ अब विनाश के रास्ते पर बढ़ चली है। ये सब अचानक नहीं हुआ । इसके बारे में चेतावनियां भी लगातार मिलती रहीं किंतु उनके प्रति उपेक्षाभाव और लापरवाही के कारण धीरे - धीरे जो स्थितियां निर्मित हुईं उनका चरमोत्कर्ष अमेरिका और इटली से आ रही खबरों से  पता चलता है। हालांकि , काफी देर हो चुकी है किंतु अभी भी सब कुछ हाथ से नहीं निकला । दूसरे देशों में क्या हो रहा है इसकी बजाय हमें ये देखना चाहिए। कि  हम अपने निकट के  पर्यावरण को नष्ट होने से बचाने क्या कर सकते हैं ? देश में जहां देखो वहां पौधारोपण होता रहता है। नेताओं के अलावा विभिन्न सामाजिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर भी इस बारे में जागरूकता दिखाई देती है। लेकिन ये भी सोचने वाली बात है कि बीते दस साल में जितने पौधे रोपे गए यदि वे ही विकसित हुए होते तो हर शहर हरा - भरा नजर आता। विकास कार्य हेतु बड़े - बड़े वृक्षों की कटाई तो आनन - फानन कर दी जाती है लेकिन उसके बदले जो पौधे लगाए जाते हैं उनमें से ज्यादातर पनपने से पहले ही सूख जाते हैं। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि विकास की समूची परिभाषा समयानुकूल बदली जावे। नए राजमार्ग बनने से सड़क यातायात सुलभ हुआ है लेकिन उसके लिए जिस पैमाने पर वृक्षों का कत्ल किया गया उसकी भरपाई नहीं होने से  इन विश्वस्तरीय सड़कों में रूखेपन का एहसास होता है। ये देखते हुए इटली और  अमेरिका के अलावा ब्रिटेन जैसे ठंडे देशों में बढ़ते तापमान की खबरों से हमें सचेत हो जाना चाहिए । आग लगने के बाद कुआ खोदने की प्रवृत्ति त्यागकर आने वाले खतरों का मुकाबला करने की तैयारी समय की मांग है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment