Saturday 8 July 2023

हिंसा , हत्या और प.बंगाल समानार्थी हो चले चुनाव आयोग का असहाय बना रहना चिंता का विषय




कल प.बंगाल में पंचायत चुनाव हेतु मतदान के दौरान हुई हिंसा में 15 लोगों की मृत्यु हो गई। मतदान केंद्र के निकट बम धमाके , गोलियां दागने और ईवीएम लेकर भागने के चित्र भी प्रसारित हुए। यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब इस राज्य में ऐसा हुआ हो। मतदान के पहले  से ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष की खबरें आने लगी थीं। बीते 30 दिनों में लगभग 40 लोग मारे गए। 
हालात इस कदर बिगड़ गए कि उच्च न्यायालय ने केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश दे दिया जिसके विरुद्ध ममता बैनर्जी की सरकार सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंची किंतु  वहां भी उसे निराशा हाथ लगी । 
इस राज्य में चुनावी हिंसा और राजनीतिक हत्याओं का दौर तबसे शुरू हुआ जब वामपंथी मोर्चे की  सरकार सत्ता में आई। जिसके बाद लगभग चार दशक तक  प.बंगाल में साम्यवादी विचारधारा का नंगा नाच देखने मिलता रहा। विरोधियों से वैचारिक असहमति का अंजाम उसे रास्ते से हटा दिए जाने के तौर पर देखने मिलने लगा। उस दौर में कांग्रेस ही मुख्य वाममोर्चे की प्रतिद्वंदी होती थी किंतु उसी पार्टी की केंद्रीय सत्ता ने अपने स्वार्थवश ज्योति बसु के अत्याचार के विरुद्ध मौन साधे रखा । 
उसी से नाराज होकर ममता बैनर्जी ने कांग्रेस को मार्क्सवादियों की बी टीम बताते हुए तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की । उनको इस बात की पीड़ा रही कि वामपंथियों की खूनी राजनीति के विरुद्ध लड़ते हुए वे भी हिंसा का शिकार हुईं किंतु कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उनको समुचित संरक्षण और समर्थन नहीं दिया। 
जब बंगाल की शेरनी की छवि के साथ ममता ने ज्योति बाबू के उत्तराधिकारी  बुद्धदेव भट्टाचार्य की सत्ता को उखाड़ फेंका तब वह परिवर्तन  1977 में जनता पार्टी के हाथों इंदिरा गांधी की तानाशाही के पराभव से कम नहीं था। इसीलिए आम जनता को आशा थी कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार प.बंगाल के गौरवशाली अतीत को पुनर्स्थापित करने में सफल रहेंगी किंतु जल्द ही देखने मिलने लगा  कि जितने भी असामाजिक तत्व वामपंथी दलों के दमनचक्र में सहयोगी थे ,  वे सब तृणमूल में घुस आए और सत्ता बदलने के बाद भी यह राज्य व्यवस्था परिवर्तन से वंचित रहा। 

ममता बैनर्जी की वामपंथियों से घृणा तो समझ में आती है क्योंकि  साम्यवादी सरकार ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टियों से प्रताड़ित करने में कसर नहीं छोड़ी थी । लेकिन समूचे विपक्ष को हिंसा के बल पर आतंकित करने की उसी नीति को अपनाने से  उनकी अपनी छवि को तो बट्टा लगा ही ,  इस राज्य को भी अराजक स्थिति में ला खड़ा किया। पिछले विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थितियां देखने मिलीं। 
लेकिन सबसे बड़ी चिंता का  विषय ये है कि प.बंगाल में राजनीतिक हत्याएं रोजमर्रे की बात हो चली हैं। अपराधिक तत्व तृणमूल के झंडे तले पूरे समाज में भय का वातावरण बनाए रखते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति बहुत ही खराब है। गत दिवस पंचायत चुनाव के दौरान मारे गए लोगों में चूंकि कोई बड़ा नेता नहीं था लिहाजा दिल्ली तक हलचल नहीं मची। मरने वाले या तो पार्टियों के कार्यकर्ता रहे या चुनाव में गड़बड़ी करने किराए पर लाए गए अपराधी । ऐसे में मृतकों के परिवारजनों को किसी प्रकार के  मुआवजे की उम्मीद तो की नहीं जा सकती किंतु ये सवाल तो उठता ही रहेगा कि आखिर इस राज्य में  चुनावी हिंसा और राजनीतिक हत्याओं का ये चलन कब तक जारी रहेगा ? 
इस बारे में रोचक बात ये भी है कि ममता     वैसे तो कांग्रेस से इस बात को लेकर बेहद नाराज हैं कि उसने उस वामपंथी मोर्चे से गठबंधन कर लिया है जिससे उनकी जन्मजात दुश्मनी है। लेकिन उसी कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा के विरुद्ध गठबंधन बनाने विपक्षी बैठक में भी शिरकत करती हैं। गौरतलब है पंचायत चुनाव में केंद्रीय बलों की तैनाती हेतु कांग्रेस ने भी अदालत के दरवाजे खटखटाए थे और उसके कार्यकर्ता   हिंसा के शिकार भी हुए।
जहां तक वाम मोर्चे का सवाल है तो प.बंगाल को साम्यवाद का अभेद्य गढ़ बनाने की कोशिश में उसने विरोधियों को मौत के घाट उतारने की  जिस माओवादी शैली को प्रोत्साहित किया और आज वही उनके लिए भी जानलेवा बन गई। 

 अब इस बात का डर  है कि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा में डूबी ममता आगामी लोकसभा चुनाव के पहले से ही राज्य में विपक्ष का दमन शुरू कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि विधानसभा चुनाव में भारी - भरकम जीत के बावजूद भी पिछले लोकसभा चुनाव में वे भाजपा के बढ़ते कदमों को नहीं रोक सकीं। उसी के बाद भाजपा गत विधानसभा चुनाव में 3 से बढ़कर 73 पर जा पहुंची। 
पंचायत चुनाव में एक बार फिर सुश्री बैनर्जी ने साबित कर दिखाया कि वामपंथी मोर्चे और उनकी सरकार में सिर्फ नाम का अंतर है । वह नागनाथ थी  तो ये सांपनाथ । प.बंगाल की जनता हर चुनाव में बढ़ - चढ़कर मतदान करती है । वहां राजनीतिक जागरूकता भी है किंतु उसे बदले में वही मिलता है जिसका नजारा गत दिवस देखने मिला। 
सोचने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग ऐसे मामलों में असहाय होकर रह जाता है। और ये भी कि चुनावी हिंसा में मारे जाने वाले  साधारण लोग होते हैं । जिन राजनीतिक  पार्टियों के इशारे या बहकावे पर वे अपनी जान पर खेल जाते हैं वे भी उनके परिवारजनों के लिए कुछ करती हैं ,  ये भी शोध का विषय है क्योंकि मूर्तियां और स्मारक नेताओं के ही बनते हैं  , कार्यकर्ता तो बेगारी करने बना है।

आलेख : रवीन्द्र वाजपेयी 

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