Monday 17 July 2023

गठबंधन राजनीति में अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू




बैंगलुरु में कांग्रेस द्वारा आमंत्रित 26 दलों की बैठक में विपक्षी एकता का ताना - बाना बुना जाएगा। उधर दिल्ली में भाजपा ने जो बैठक बुलाई है उसमें 30 दलों के शामिल होने का दावा है।  अंतर ये हैं कि बेंगलुरु में जमा  विपक्षी दलों के गठबंधन का नाम तक निश्चित नहीं हुआ । प्रधानमंत्री पद को लेकर भी असमंजस है । दूसरी तरफ  भाजपा प्रायोजित  बैठक जिस एनडीए के बैनर तले हो रही है उसकी ओर से  नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे। गौरतलब है भाजपा के पास जहां लोकसभा में अपना स्पष्ट बहुमत है वहीं कांग्रेस  अर्धशतक पर ही सिमटी हुई है । इसीलिये  शरद पवार, ममता बैनर्जी ,  लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार , और स्टालिन जैसे नेता  उस पर हावी रहते हैं। आम आदमी पार्टी ने भी बेंगलुरु बैठक में आने  जो शर्त रखी उसे कांग्रेस को स्वीकार करना पड़ा। और फिर इस बैठक के पहले ही महाराष्ट्र में एनसीपी  टूट गई । विपक्षी एकता की मुहिम के जवाब में भाजपा ने भी एनडीए का कुनबा बढ़ाते हुए जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर के अलावा आंध्र की एक क्षेत्रीय पार्टी को भी अपने पाले में खींच लिया। ये भी चर्चा है कि महाराष्ट्र जैसा धमाका बिहार में भी होने वाला है । चचाओं के अनुसार जनता दल (यू) के अनेक विधायक और  नेता लालू की पार्टी आरजेडी को जरूरत से ज्यादा खुला हाथ दिए जाने से नाराज हैं। तेजस्वी का नाम नौकरी घोटाले की चार्जशीट में आ जाने के बाद नीतीश की पार्टी में ये भय व्याप्त है कि लालू  परिवार द्वारा किए गए भ्रष्टाचार  से उसकी छवि भी खराब हो जायेगी। इसलिए उससे पिंड छुड़ा लिया जाए।  भाजपा इस स्थिति का लाभ लेने तैयार बैठी है । ऐसे में  नीतीश सरकार खतरे में पड़ी तब उसका सीधा असर विपक्ष के गठबंधन पर पड़ेगा । इस प्रकार  2024 के लोकसभा चुनाव के लिए दोनों पक्ष अपने खेमे को ताकतवर बनाने में जुटे हुए हैं । लेकिन इसमें सैद्धांतिक या वैचारिक पक्ष के लिए कोई स्थान नहीं है। अवसरवाद और उपयोगितावाद के मुताबिक नेताओं का इस या उस गठबंधन से जुड़ने  का सिलसिला जारी है। दिल्ली और पंजाब में  कांग्रेस की जड़ें खोदने वाले अरविंद केजरीवाल कांग्रेस की गोद में बैठने मात्र इसलिए राजी हो गए क्योंकि उसने केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश का विरोध करने की मांग मान ली। इसी तरह  की सौदेबाजी उ.प्र में ओमप्रकाश राजभर के साथ भाजपा ने की जिसके बाद वे एनडीए का हिस्सा बनने राजी हो गए । खबर ये भी है कि उनको योगी मंत्रीमंडल में शामिल किया जा रहा है। ज्ञातव्य है श्री राजभर पहले भी भाजपा के साथ मिलकर सत्ता में रह चुके हैं। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने अखिलेश यादव के साथ मिलकर भाजपा को हराने में पूरी ताकत झोंकी किंतु असफलता हाथ लगी तो  उनके विरुद्ध बयानबाजी करने लगे और अब मौका मिलते ही भाजपा के साथ आकर सत्ता की रेवड़ी खाने का इंतजाम कर लिया। महाराष्ट्र में अजीत पवार और भाजपा के बीच जिस तरह की बयानबाजी अतीत में हुई उसको देखने के बाद उनका एकाएक हृदय परिवर्तन क्यों हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है । भाजपा ने भी अजीत को भ्रष्ट साबित करने क्या कुछ नहीं कहा ? लेकिन अब वे महाराष्ट्र सरकार में उप मुख्यमंत्री बन बैठे। ज्यों- ज्यों लोकसभा चुनाव नजदीक आते जायेंगे त्यों - त्यों ऐसा आवागमन देखने मिलता रहेगा। राजनीति में  रहने वाले कहें कुछ भी किंतु उनके मन में ले - देकर सत्ता ही घूमती रहती है। इस बारे में अजीत पवार की स्पष्टवादिता अच्छी लगी जो बिना लाग लपेट के कहते हैं कि उनका लक्ष्य मुख्यमंत्री बनना है। ओमप्रकाश राजभर भी अखिलेश के साथ  इस उम्मीद से जुड़े थे कि उनकी सत्ता आने वाली थी किंतु जब वह उम्मीद पूरी नहीं हुई तो उन्होंने उसी भाजपा के साथ दोबारा याराना बिठा लिया जिसे कुछ दिन पहले तक जी भरकर गरियाया था। सवाल ये है कि किसी पार्टी का नेतृत्व दूसरी पार्टी से आए नेता के लिए घर के दरवाजे खोलने के लिए अपने परिवारजनों से पूछे बिना ही फैसला कैसे कर लेता है? अजीत पवार अब तक दो बार भाजपा के साथ आकर उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं।  लेकिन दोनों बार इसकी जानकारी भाजपा कार्यकर्ताओं भी तभी मिली जब शपथ ग्रहण का समाचार प्रसारित होने लगा। इसी तरह दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस जन किसी भी सूरत में आम आदमी पार्टी से नजदीकी नहीं चाहते लेकिन पार्टी के आला नेतृत्व ने उसकी जिद के सामने झुकते हुए दिल्ली सरकार संबंधी  अध्यादेश के विरोध का आश्वासन दे दिया जबकि  कांग्रेस के  अनेक नेताओं ने उक्त अध्यादेश का स्वागत किया है। इसी तरह जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं को अपने साथ बिठाने से भाजपा की वजनदारी घटती है। उस पर आजकल ये आरोप लगता है कि वह सत्ता की लालच में बेमेल समझौते कर रही है और अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हुए बाहर से आए मौकापरस्तों  को उपकृत करने में तनिक भी संकोच नहीं  करती। कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है जिसने राहुल गांधी को पप्पू नाम देने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पार्टी को तहस नहस करवा दिया। हार्दिक पंड्या और कन्हैयाकुमार भी ऐसे ही उदाहरण हैं। अब आम आदमी पार्टी के सामने झुककर उसने दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस जनों की स्थिति हास्यास्पद बना दी है। बीते कुछ समय से ये आवागमन कुछ ज्यादा ही तेज हो चला है जिसके कारण राजनीतिक दलों की अपनी पहिचान नष्ट हो रही है। यद्यपि ,  इसकी चिंता बेमानी हो गई है क्योंकि चुनाव तो नेता के चेहरे पर लड़ा जाने लगा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment