Monday 3 July 2023

चाचा - भतीजे की लड़ाई या मिलीभगत , कहना मुश्किल




महाराष्ट्र की राजनीति में गत दिवस  एक नया अध्याय जुड़ गया जब एनसीपी प्रमुख शरद पवार के भतीजे अजीत पवार  एक बार फिर भाजपा के साथ हाथ मिलाकर उपमुख्यमंत्री बन गए। उनके साथ आठ अन्य एनसीपी विधायक भी मंत्री पद पा गए। अजीत का दावा है कि 53 में से 40 विधायक उनके साथ हैं । वहीं दूसरी ओर एनसीपी ने विधानसभा अध्यक्ष को मंत्री बने सभी विधायकों की सदस्यता समाप्त करने की अर्जी लगा दी है।  इस मामले का रोचक पक्ष ये है कि उपमुख्यमंत्री बनने के बाद अजीत बोले कि वे एनसीपी में हैं और अगला चुनाव भी इसी से लड़ेंगे। उनका यह कहना उन्हें दलबदल के आरोप से बचाने में काम आएगा। वाकई 40 विधायक साथ हैं तब तो वह विधायक दल का विधिवत विभाजन होगा किंतु  संख्या कम हुई और श्री पवार द्वारा अजीत एवं उनके साथ गए विधायकों पर अनुशासन की कार्रवाई करते हुए  हटा दिया तब वे  स्वतंत्र माने जायेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अजीत की बगावत के संकेत तो लंबे समय से मिल रहे थे किंतु शिंदे गुट के सदस्यों की अयोग्यता के खतरे को देखते हुए भाजपा ने इस घटनाचक्र को तेजी प्रदान कर दी। अजीत अपने चाचा के अघोषित उत्तराधिकारी माने जाते थे। लेकिन जबसे श्री पवार ने बेटी सुप्रिया सुले को उनके समानांतर खड़ा किया तभी से परिवार में खाई चौड़ी होने लगी। 2019 में भी अजीत ने भाजपा से हाथ मिलाकर सुबह - सुबह सरकार बनाई थी किंतु वह कोशिश श्री पवार के भावनात्मक कार्ड के कारण बेअसर हुई और दो दिन में ही उसका पटाक्षेप हो गया। हालांकि शिवसेना और कांग्रेस के साथ बनी सरकार में भी अजीत उपमुख्यमंत्री बनाए गए किंतु उनके मन में ये टीस बनी रही कि उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावना को चाचा पलीता लगा देते हैं। शिंदे गुट की बगावत से उस सरकार का तो पतन हो गया किंतु भतीजे की अतृप्त महत्वाकांक्षाएं जोर मारती रहीं । इसका प्रमाण उनके हालिया बयान हैं जिनमें वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के पक्ष में बोलते रहे। कुछ समय पहले जब श्री पवार ने पार्टी प्रमुख का पद छोड़ने की घोषणा की तब ऐसा लगा था कि वे विरासत अजीत को सौंपेंगे किंतु नाटकीय घटनाक्रम के बाद उन्होंने बेटी सुप्रिया और अपने बेहद करीबी प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर अजीत को पूरी तरह निराश कर दिया। गत दिवस जो कुछ हुआ उसके पीछे एनसीपी में उत्तराधिकार के विवाद को ही कारण माना जा रहा है किंतु  छगन भुजबल और प्रफुल्ल पटेल का अजीत के साथ आना मामूली घटना नहीं है। हाल ही में श्री मोदी ने एनसीपी पर हजारों करोड़ के घपले के जो आरोप लगाए थे उनका निशाना अजीत ही थे। कल मंत्री बने कुछ चेहरे भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हुए हैं । बगावत की खबर मिलने के बाद श्री पवार की प्रारंभिक प्रतिक्रिया से तो ऐसा लगा जैसे उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।  इतने बड़े विद्रोह के बाद वे आज सतारा में रैली करने जा रहे हैं। उनकी इस बेफिक्री  का  आकलन इतनी जल्दी करना कठिन है क्योंकि उनको जानने वाले ये कहने से नहीं चूक रहे कि इस सबके पीछे उन्हीं की चाल है जिसके जरिए वे अपने परिवार को भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाने भतीजे के जरिए भाजपा के साथ जुड़े रहें।और दूसरी तरफ विपक्ष को भी इस भ्रम में रखें कि वे उसके साथ खड़े हैं। उल्लेखनीय है संसद के बजट सत्र में  अडानी मामले में जेपीसी गठन के लिए जब विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां एकजुट होकर संसद को चलने नहीं दे रही थीं तब श्री पवार ये कहते हुए आगे आए कि वह मांग अर्थहीन है। यही नहीं तो उन्होंने गौतम अडानी के पक्ष में बयान तक दिया और बाद में उसके साथ लंबी मुलाकात  की। यही नहीं तो विपक्ष की बैठक के अलावा सार्वजनिक तौर पर वीर सावरकर के बारे में राहुल गांधी और कुछ अन्य नेताओं के बयानों पर ऐतराज भी व्यक्त किया  ।  इस घटनाचक्र को यदि श्री पवार द्वारा लिखित पटकथा का हिस्सा मान लिया जावे तो फिर यह  विपक्षी एकता की मुहिम के लिए  बड़ा धक्का है । यदि अजीत पिछली बार की तरह पलटी नहीं मारते तब भाजपा के लिए ये बड़ी राजनीतिक सफलता कही जायेगी जिसे शिंदे गुट के विधायकों की अयोग्यता संबंधी  आशंका खाए जा रही है। उद्धव गुट के प्रवक्ता संजय राउत का ये बयान भी काबिले गौर है कि जल्द ही राज्य को नया मुख्यमंत्री मिलेगा । हालांकि इस  समय किसी भी तरह का पक्का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि अभी श्री पवार का दांव देखना बाकी है। वे बेहद अनुभवी और चालाक राजनेता हैं। उनका पूरा जीवन इसी तरह की घात - प्रतिघात में बीता। वे ऊपरी तौर पर सबके दोस्त हैं किंतु भीतर से किसी के सगे नहीं। लेकिन यदि अजीत अपने दावे के अनुसार 40 विधायक तोड़ लाए तब चाचा की दशा ठीक वैसी ही होकर रह जायेगी जैसी 2017 में बेटे अखिलेश के तेवरों से स्व.मुलायम सिंह यादव की हो गई थी। बहरहाल चाल तो अजीत ने भी बहुत सोच - समझकर चली है क्योंकि उन्होंने और उनके साथियों ने  पार्टी नहीं छोड़ी है । चाचा - भतीजे की इस लड़ाई में भाजपा ने खुद को मजबूत कर लिया है। हालांकि उस पर आरोप लग रहा है कि जिन्हें वह  भ्रष्ट कह रही थी उनको भागीदार बना लिया। कांग्रेस के जयराम रमेश ने तो भाजपा को वाशिंग मशीन बताया जिसमें भ्रष्टाचार के दाग धुल जाते हैं। लेकिन आज की राजनीति में सत्ता ही सबका उद्देश्य है और इसलिए नैतिकता का उपदेश देने की पात्रता सभी खो बैठे हैं। लालू यादव जैसे नेताओं के साथ एकता  बैठक में बैठने वाले भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुंह खोलें ये  अटपटा लगता है । इसी तरह अरविंद केजरीवाल का राहुल गांधी से मिलने बेताब होना इस बात का प्रमाण है कि कोई नेता तभी तक भ्रष्टाचारी होता है जब तक दूसरे खेमे में रहे। जैसे ही वह अपने साथ आता है ,  दूध का धुला हो जाता है। भाजपा भी इससे अछूती नहीं रही क्योंकि आज के राजनीति रूपी महाभारत में शत्रु पक्ष को पराजित करना ही धर्म है , फिर चाहे तरीका कोई भी क्यों न हो । अपने गुरू स्व.वसंत दादा पाटिल के साथ विश्वासघात कर सत्ता हासिल करने वाले शरद पवार को गुरु पूर्णिमा के एक दिन पहले ही उनके भतीजे द्वारा धोखा दिया जाना इतिहास के  दोहराए जाने का उदाहरण है। 2024 के महासंग्राम के पहले राजनीति के खिलाड़ियों से  ऐसे और भी दांव - पेच देखने मिलते रहेंगे।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


No comments:

Post a Comment