मणिपुर ऐसा विषय है जिसके बारे में देखना होगा कि ये दो जनजातीय समुदायों का विवाद है या कुछ अदृश्य शक्तियां देश के लिए नए खतरे उत्पन्न कर रही हैं। गौरतलब है कि किसी समस्याग्रस्त क्षेत्र में शांति स्थापित होने पर देश विरोधी शक्तियां किसी दूसरे क्षेत्र में सक्रिय हो जाती हैं । नब्बे के दशक में पंजाब में आतंकवाद के खत्म होते ही कश्मीर में अलगाववादी सिर उठाने और आतंकवाद का लम्बा दौर चला। 2019 में दोबारा सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाकर उस राज्य को मुख्यधारा से जोड़ने जैसा साहसिक कदम उठाया तो उसके बाद पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने एक बार फिर सिर उठाना शुरू कर दिया और कृषि कानूनों के विरोध में किए गए किसान आंदोलन में घुसकर पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में भारत विरोधी भावनाएं फैलाने का षडयंत्र रचा। ब्रिटेन और कैनेडा में कार्यरत खालिस्तानी संगठन भी जिस तेजी से सक्रिय और आक्रामक हुए उससे ये साफ हो गया कि पंजाब को आग में झोंकने की तैयारी सात समंदर पार बैठे भारत विरोधी कर रहे हैं। हालांकि अब तक खालिस्तानी आंदोलन को अपेक्षानुसार समर्थन और सहयोग नहीं मिला । लेकिन हाल ही में मणिपुर की आग जिस तरह भड़की वह किसी सुनियोजित षडयंत्र का इशारा है। इसका प्रमाण ये है कि पड़ोसी मिजोरम और मेघालय भी अशांत होने लगे हैं। उसे देखते हुए माना जा सकता है कि बात दो जनजातियों तक सीमित न रहकर किसी विदेशी कूटरचना से जुड़ी हुई है। शुरू में लगा कि पड़ोसी राज्य मैतेई और कुकी समुदायों के झगड़ों के कारण अशांत हुए । लेकिन जल्द ही स्पष्ट हो गया कि समूचे पूर्वोत्तर को एक बार फिर अशांत करने की चाल चली जा रही है। और इसके पीछे वे ताकतें हैं जिन्हें इस अंचल में शांति रास नहीं आ रही। पूर्वोत्तर में घने जंगलों के साथ ही पर्वतीय रचना होने से भी अनेक परेशानियां हैं। सबसे बड़ी बात अनेक राज्यों की सीमा का बांग्ला देश , म्यांमार और चीन से सटा होना है जिससे अवैध घुसपैठ के साथ हथियार और नशीले पदार्थ भी आते हैं । अलगाववादियों के प्रशिक्षण शिविर म्यांमार के जंगलों में होने की बात पहले भी सामने आ चुकी है। कुछ को भारतीय सेना द्वारा घुसकर नष्ट भी किया गया । बीते अनेक वर्षों से उत्तर पूर्वी राज्यों में शांति दिखने लगी थी। सड़कों का जाल बिछ जाने से पर्यटकों की रुचि पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को भी सहारा मिलने लगा । अलगाववादी संगठन भी ये मानने लगे कि मुख्यधारा से जुड़कर ही उनकी विश्वसनीयता में वृद्धि होगी। ऐसे में ढाई महीने पहले मणिपुर में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने संबंधी उच्च न्यायालय के फैसले से भड़की आग जिस तरह पड़ोसी राज्यों में भी फैल रही है वह चिंता का विषय है। मेघालय और मिजोरम के साथ ही नगालैंड में भी नई - नई मांगें उठने लगी हैं। जिनसे ये आशंका है कि आने वाले दिन संकट भरे होंगे। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए वह पूर्वोत्तर के बारे में जमीनी सच्चाई से रूबरू होकर पुख्ता कदम उठाए। प्रधानमंत्री की चुप्पी को लेकर विपक्ष का आक्रामक होना और संसद का न चलना राजनीतिक दांव पेंच का हिस्सा हैं क्योंकि श्री मोदी के बयान और संसद में चर्चा से समस्या का हल संभव नहीं है। ये कहना गलत न होगा कि मोदी सरकार इस संकट में बुरी तरह उलझ गई है। क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर भाजपा ने अनेक पूर्वोत्तर राज्यों में सरकार तो बना ली किंतु उनके दबाव जिस तरह से सामने आने लगे हैं उनसे निपटना आसान नहीं है। ऐसे में मणिपुर जैसी स्थिति पड़ोसी राज्यों में भी बनी तो समस्या और विकट हो जाएगी। फिलहाल मणिपुर में राज्य और केंद्र दोनों सरकारें निशाने पर हैं । कई महीने बीतने के बाद भी हालात ज्यों के त्यों रहने से आलोचकों को बल मिल रहा है । लोकसभा में कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया है जिसके जरिए वह प्रधानमंत्री को बोलने के लिए बाध्य करना चाहती है। जाहिर है ये प्रस्ताव बहुमत के सामने टिकने वाला नहीं है। यद्यपि , विपक्ष को अपनी बात कहने का अवसर मिल जायेगा किंतु इसके बाद उसके पास भी करने को कुछ नहीं बचेगा। लेकिन केंद्र सरकार को भी केवल इस बात से आत्ममुग्ध नहीं होना चाहिए कि भारी बहुमत के होते विपक्ष उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा । दरअसल मणिपुर का मुद्दा उसके गले में हड्डी की तरह फंसा हुआ है। न तो वह हाथ पर हाथ धरे बैठने की स्थिति में है और न ही बहुत ज्यादा सख्ती की गुंजाइश है। अफीम की तस्करी जैसे मामले में भी खुलकर कुछ कह पाना आसान नहीं होगा। पूर्वोत्तर में लोकसभा की सीटें भले कम हों लेकिन देश की अखंडता के लिए वह कश्मीर घाटी से कम संवेदनशील नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री को कुछ न कुछ तो ऐसा करना ही पड़ेगा जिससे देश आश्वस्त हो सके । अविश्वास प्रस्ताव के उत्तर में वे क्या बोलेंगे इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगी किंतु ऐसे मामलों में बहुत सी बातें सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं की जा सकतीं और ऐसा ही इस बार भी हो तो आश्चर्य नहीं होगा । लेकिन इसके पहले कि देश का आत्मविश्वास डगमगाये उन्हें ठोस कदम उठाना ही होंगे क्योंकि ऐसे मामलों में विलम्ब से बीमारी लाइलाज हो जाती है। कश्मीर में इसका अनुभव हो चुका है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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