किसी बात को जोर देकर कहना हो तो आंकड़ों का सहारा लेकर ये साबित करने की कोशिश होती है कि वे पर्याप्त अध्ययन के उपरांत एकत्र किए तथ्यों पर आधारित हैं। हालांकि , अब चंद अपवाद छोड़ कुछ भी गोपनीय नहीं रह गया है किंतु जब सरकार किसी विषय पर आंकड़े पेश करती है तब उन पर यकीन हो अथवा न हो, लेकिन उन्हें ही अधिकृत माना जाता है। उस दृष्टि से आज गरीबी को लेकर नीति आयोग के जो आंकड़े सार्वजनिक किए गए उनके अनुसार 2015 - 16 और 2019 - 20 के बीच लगभग 10 (9.89) प्रतिशत लोग गरीबी से उबर गए। बहुआयामी गरीबी सूचकांक ( मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स) के अंतर्गत एकत्र की गई जानकारी का विश्लेषण करने के बाद जारी उक्त आंकड़ों में ये भी बताया गया है कि किस राज्य में गरीबी कितनी कम हुई ? इसके साथ ही शिक्षा , स्वास्थ्य , पोषण , मृत्यु दर तथा जीवन स्तर के बारे में भी जानकारी जुटाकर जनता के संज्ञान में लाई गई है। उल्लेखनीय है मोदी सरकार ने योजना आयोग भंग करने के उपरांत उसे नीति आयोग के नाम से पुनर्गठित किया और इसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल करते हुए इसकी गतिविधियों को पेशेवर रूप देने का प्रयास किया । आयोग द्वारा समय - समय पर आर्थिक और समाजिक मुद्दों पर अपनी रिपोर्ट और निष्कर्ष सार्वजनिक किए जाते रहे हैं। उनकी सच्चाई पर बहस भी हुई और सवाल भी उठे । लेकिन गरीबी में कमी आने की जो जानकारी सामने आई उसका समय बेहद महत्वपूर्ण है। कुछ महीनों के भीतर चार - पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उसके बाद 2024 के अप्रैल - मई में लोकसभा का महा - मुकाबला होगा। ऐसे में ये कहना गलत न होगा कि नीति आयोग द्वारा गरीबी के जो आंकड़े प्रसारित किए गए वे दरअसल सरकार की चुनावी रणनीति के हिस्से हैं । इन आंकड़ों से ये दर्शाने का प्रयास किया गया है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जो कार्य हुए उनके परिणामस्वरूप गरीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और उनमें से तकरीबन 10 फीसदी उस शर्मनाक दायरे से निकल आए। इनमें राज्यों की स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है। चौंकाने वाली बात ये भी है कि बिहार में गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर आने में 18 प्रतिशत लोग कामयाब हुए। यद्यपि अभी भी वहां 34 फीसदी लोग गरीबी की गिरफ्त में बने हुए हैं। नीति आयोग के आंकड़ों को बिना किसी ठोस आधार के प्रथम दृष्टया नकारना तो उचित नहीं प्रतीत होता किंतु इस बारे में ये अवश्य कहा जा सकता है कि ये सुखद स्थिति कोरोना महामारी के पूर्व की है। ये बात सभी स्वीकार करेंगे कि वर्ष 2020 , 21 और 22 के दौरान उक्त महामारी ने दुनिया के आर्थिक और सामाजिक हालातों को सिरे से उलट - पुलट दिया और भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। मार्च 2020 में पहला लॉक डाउन लगते ही केंद्र सरकार ने गरीबों को निःशुल्क अनाज देने की जो व्यवस्था की थी , वह अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौट आने के दावों के बीच भी जारी है । चूंकि देश में पूरे पांच साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं , इसलिए अब किसी भी सरकार के लिए इस सुविधा को बंद करना आत्महत्या जैसा होगा। इसके अलावा विभिन्न राज्य सरकारें वोट बैंक को मजबूत करने के लिए गरीबी के दायरे में आने वालों को नगद राशि के अलावा , सस्ता रसोई गैस सिलेंडर , मुफ्त में बिजली , चिकित्सा, शिक्षा तथा ऐसे ही मुफ्त उपहार बांट रही हैं । उन्हें देखते हुए गरीबी घटने संबंधी उक्त आंकड़ों पर सहसा विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है। ये कुछ वैसा ही है जब कुछ चीजों के दाम आसमान छूने के दौरान सरकार महंगाई में कमी आने का दावा आंकड़ों के साथ पेश करती है। हालांकि , ये बात भी सही है कि गरीबों की असली संख्या में भी बहुत विसंगतियां हैं। मसलन आयुष्मान योजना का लाभ उठाने आर्थिक तौर पर अनेक संपन्न लोग भी गरीबों की सूची में शामिल हो गए। इसी तरह जिन गरीबों को हर माह मुफ्त अनाज मिलता है उनमें से तमाम लोग उसे सस्ते मूल्य पर किराने की दुकान में बेचकर नगदी प्राप्त कर लेते हैं। बीते कुछ सालों में आधार कार्ड से संबद्ध होने के बाद बहुत बड़ी संख्या में राशन कार्ड रद्द किए गए। ये सब देखते हुए गरीबी संबंधी जो बहुआयामी आंकड़े नीति आयोग ने पेश किए उनकी पुष्टि तभी हो सकेगी जब कोरोना के बाद की तुलनात्मक स्थिति भी सामने आए। दरअसल गरीबी , बेरोजगारी और महंगाई के बारे में सरकारी आंकड़े सही होने के बाद भी सही नहीं लगते क्योंकि उनको एकत्र करने वाले भी सरकार के ही लोग होते हैं। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उसके बाद देश ने विभिन्न मोर्चों पर उल्लेखनीय प्रगति की लेकिन उसके साथ ही गरीबी रेखा से नीचे की स्थिति भी पैदा हो गई , जो परस्पर विरोधाभासी है। अब गरीबी है , तो बेरोजगारी भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी ही। समय आ है जब आंकड़ों की बाजीगरी से ऊपर उठकर समस्या के वास्तविक स्वरूप और आकार को स्वीकार कर उसके समयबद्ध समाधान की इच्छा शक्ति उत्पन्न की जाए। जो देश मंगल और चंद्रमा पर अपना यान भेजने को तैयार है और जिसकी अर्थव्यवस्था पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन गई है वहां गरीबी और बेरोजगारी जैसे शब्द किसी कलंक से कम नहीं है । लेकिन ये तभी दूर हो सकते हैं जब निठल्ले बैठे लोगों को घर बैठे खिलाने के बजाय उनसे मेहनत - मशक्कत करवाने की व्यवस्था हो। कृत्रिम गरीबों का पर्दाफाश भी होना चाहिए। सरकारी जमीन पर झुग्गी बनाकर , मुफ्त की बिजली से डिश टीवी चलाने वाले , स्कूटर और मोबाइल फोन पर दिन भर बतियाने वाले , नवयुवकों को गरीब मानकर उनका पेट भरना देश के भविष्य को अंधकारमय बनाने जैसा होगा। इस बात को हमारे राजनेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा। वरना आंकड़ों से दिल बहलाने का ये सिलसिला यूं ही जारी रहेगा।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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