Thursday 20 July 2023

इंदिरा के साथ भी इंडिया जोड़ा गया था जिसे जनता ने पसंद नहीं किया




विपक्षी दलों ने अपने गठबंधन का नाम इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायन्स ) रख लिया। इसका उद्देश्य ये है कि भाजपा के नेतृत्व में कार्यरत एनडीए , इंडिया शब्द के विरुद्ध कुछ नहीं बोल पाएगा और विपक्ष इंडिया के नाम पर जनता को भावनात्मक तरीके से अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हो सकेगा । ये वैसा ही  है जैसे टाटा कंपनी ने  अपने नमक को देश का नमक प्रचारित कर  और अमूल ने अपने नाम के साथ टेस्ट ऑफ इंडिया  जोड़कर ग्राहकों को लुभाने की रणनीति बनाई। कांग्रेस ने भी देश आजाद होने के बाद तिरंगे को ही अपना झंडा बनाया। अंतर बस इतना रखा कि राष्ट्रध्वज में अंकित अशोक चक्र की बजाय  अपने झंडे में चरखा लगा दिया। उसका मकसद लोगों के मन में ये भाव बनाए रखना था कि कांग्रेस ही देश का प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि कालांतर में पार्टी के विभाजन के चलते पहले बछड़ा और अब हाथ के पंजे ने चरखे का स्थान ले लिया किंतु तिरंगा आज भी यथावत है। सुनने में आया है कि विपक्ष के अनेक नेता गठबंधन का संक्षिप्त नाम इंडिया रखे जाने के पक्ष में नहीं थे । वामपंथी तो सेकुलर शब्द नहीं होने से असहमत थे। इस गठबंधन के शिल्पकार नीतीश कुमार भी कुछ और नाम चाहते थे किंतु कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जोर देकर यह नाम रखवाया । सवाल ये है कि यदि भाजपा ने एनडीए नाम को ही जारी रखा तो यूपीए ( संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ) नाम के साथ ही  गठबंधन चल सकता था क्योंकि कांग्रेस सहित अनेक दल पहले से ही उसके साथ जुड़े रहे। लेकिन जैसा समझ में  आ रहा है न सिर्फ नीतीश अपितु शरद पवार और ममता बैनर्जी भी ये एहसास नहीं करवाना चाहते कि वे कांग्रेस के नेतृत्व में काम कर रहे हैं। वैसे भी भाजपा विरोधी इस गठबंधन की बुनियाद नीतीश ने ही रखी वरना ममता कभी कांग्रेस और वामपंथियों के साथ न बैठतीं और न अरविंद केजरीवाल , कांग्रेस के। इसीलिए यूपीए की बजाय गठबंधन को कोई और नाम देने का विचार बना । लेकिन अंततः कांग्रेस ने ही अपनी पसंद का नाम तय करवा लिया। लेकिन गठबंधन का नेता कौन होगा इस पर पेच फंसा हुआ है। अभी तक हुई दो बैठकों से ये समझ में आया है कि ये गठबंधन आगामी लोकसभा चुनाव  के मद्देनजर बनाया जा रहा है। ऐसे में राज्यों के चुनाव में गैर भाजपा दलों के बीच आपसी तालमेल किस प्रकार बनेगा ये स्पष्ट नहीं है। इसकी पहली बानगी तो तेलंगाना ही है जहां के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव विपक्षी एकता के लिए नीतीश से पहले सक्रिय हुए थे परंतु उनके राज्य के चुनाव में चूंकि कांग्रेस  प्रतिद्वंदी के तौर पर सामने है इसलिए वे इस गठबंधन से दूर हो गए। यही स्थिति भविष्य में प. बंगाल की है जहां तृणमूल की कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन से कट्टर दुश्मनी है। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी कांग्रेस को कितना हाथ रखने देगी ये भी कोई नहीं जानता। ऐसी ही स्थिति उ.प्र में भी है जहां अखिलेश यादव 2017 में राहुल के साथ गठबंधन करने का नुकसान अब तक नहीं भूले। इसीलिए बेंगलुरु बैठक में न तो गठबंधन का नेता निश्चित हो सका और न ही राज्यों में किस तरह की हिस्सेदारी होगी इसका कोई फार्मूला बना। रही बात लोकसभा सीटों के बंटवारे की तो कांग्रेस  खुद को मुखिया मानकर  फैसला करने का प्रयास करेगी तो फिर गांठ बनना तय है क्योंकि जितनी भी छोटी पार्टियां बेंगलुरु बैठक में आईं उनसे बड़े दिल की अपेक्षा करना भूल होगी। कांग्रेस की दुविधा भी ये है कि वह जितना झुकेगी बाकी पार्टियां उसे उतना ही झुकाएंगीं। ऐसे में मुंबई में होने वाली  अगली बैठक में जब नेता के नाम के साथ प्रधानमंत्री पद के  चेहरे का सवाल आएगा तब इस गठबंधन की मजबूती पता चलेगी । हालांकि इस  कवायद का ये असर हुआ कि  दिन ब दिन छोटा होता दिख रहा एनडीए अचानक अपने विस्तार में लग गया और बेंगलुरु बैठक के समय ही  भाजपा ने  दिल्ली में तीन दर्जन से ज्यादा दलों को एकत्र कर अपनी ताकत दिखाकर ये भी बता दिया कि उनमें  गठबंधन के नाम और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर आम सहमति है। उस दृष्टि  से इंडिया नामधारी  गठबंधन के सामने अभी अनेक बाधाएं हैं। आम आदमी पार्टी जैसे नए दल ने कांग्रेस को जिस तरह झुकाया उससे अन्य पार्टियां भी ऐसा करने का साहस जुटाए बिना नहीं रहेंगी। मुंबई बैठक में ये बात भी साफ हो जाएगी कि राजस्थान , म. प्र  और छत्तीसगढ़ में  आम आदमी पार्टी तथा सपा  क्या कांग्रेस के लिए मैदान छोड़ेंगी ? उल्लेखनीय है श्री केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के साथ लगातार राजस्थान और छत्तीसगढ़ का दौरा कर कांग्रेस सरकार के विरुद्ध तीखे हमले कर रहे हैं। एक बात ये भी कि नीतीश और लालू प्रसाद यादव बेंगलुरु में संयुक्त पत्रकार वार्ता से पहले ही पटना लौट गए। ऐसा ही पटना बैठक के बाद आम आदमी पार्टी के नेताओं ने किया था। कहा जा रहा है नीतीश इस बात से खुश नहीं हैं कि कांग्रेस उनकी कोशिश का श्रेय लूटने के फेर में है । बेंगलुरु में लगाए गए बैनर - पोस्टरों पर भी सोनिया , राहुल और मल्लिकार्जुन खरगे को प्रमुखता से उभारा गया जबकि बाकी विपक्षी नेताओं के चित्र छोटे कर दिए गए। दरअसल यह गठबंधन नीतीश द्वारा खुद को श्री मोदी के समकक्ष साबित करने के मकसद से बनाया गया था किंतु कांग्रेस जिस तरह से उन्हें पीछे धकेलकर आगे आने के प्रयास में है , उससे वे चौकन्ना हो उठे हैं। 1974 में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का जो नारा दिया  , उसे जनता ने पूरी तरह ठुकरा दिया था। लगभग आधी सदी के बाद कांग्रेस एक बार फिर इंडिया शब्द को भुनाने का  प्रयास कर रही है। देखना है इस बार क्या होता है? 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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