Wednesday 5 July 2023

संविदा कर्मचारियों को राहत हर दृष्टि से प्रशंसनीय किंतु खाली पद भी भरे जाएं




म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गत दिवस एक और चुनावी दांव खेलते हुए संविदा कर्मचारियों पर राहत की बरसात कर दी। उनको प्रतिवर्ष संविदा के नवीनीकरण से मुक्ति देने के साथ ही पूरा वेतन ,भत्ते , अवकाश , चिकित्सा सुविधा और सेवा निवृत्ति पर नियमित कर्मचारियों जैसी पेंशन ,  आंदोलन के दौरान काटे गए वेतन के भुगतान के घोषणा के  अलावा उनके साथ हुए अन्याय के लिए जिस विनम्रता के साथ माफी मांगी उससे भोपाल में जमा हजारों संविदा कर्मी मुख्यमंत्री के मुरीद हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा। लाड़ली बहना योजना के बाद शिवराज सरकार का ये दूसरा बड़ा दांव है। संविदा कर्मियों के साथ  सभी सरकारें उपेक्षापूर्ण व्यवहार करती रहीं हैं। हर चुनाव के पहले उनको स्थायी किए जाने का आश्वासन देने के बाद हासिल आया शून्य की स्थिति ही बनी रही। यद्यपि समय - समय पर उन्हें दिए जाने वाले वेतन और सुविधाओं में मामूली वृद्धि की गई किंतु बरसों तक सेवा में रहने के बावजूद स्थायी कर्मचारी की हैसियत न मिलने से वे दोयम दर्जे के माने जाते रहे जिन पर नौकरी छूट जाने की तलवार लटकती रहती थी। संविदा कर्मचारी अपने से उच्च पद वाले का काम करने के बाद भी उससे जुड़े लाभों से वंचित रखे जाते रहे , जो सरासर अन्याय था। इस व्यवस्था की शुरुआत सरकार द्वारा अपना स्थापना व्यय कम करने के उद्देश्य से की गई थी। आकस्मिक कार्यों के लिए अतिरिक्त अमले की जरूरत होने पर इस तरह के कर्मचारी रखकर कम खर्चे में काम चलाए जाने से सरकार पर दीर्घकालीन बोझ नहीं पड़ने के कारण इस व्यवस्था को पसंद किया जाने लगा । लेकिन देखने में आया कि अस्थायी मानकर काम वेतन पर रखे कर्मचारी से स्थायी रूप से काम कराया जाने लगा। इसका अर्थ यही था कि जिस पद के लिए  उसको रखा गया उस पर स्थायी कर्मचारी की जरूरत थी। लेकिन बेरोजगारों की मजबूरी का लाभ उठाकर सरकार उनका शोषण करती रही। ये बात सही है कि सरकार का स्थापना व्यय असहनीय होता जा रहा है । डॉ. मनमोहन सिंह ने जब उदारीकरण की नीतियां लागू  कीं तब सरकारी अमले का आकार घटाते हुए खर्चा कम करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र को काम दिया जाने लगा। तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के लाखों कर्मचारी  ठेकेदारी प्रथा के जरिए भी सेवा में रखे गए जिनका नियंत्रण ठेकदार के हाथ रहता है। ये चलन केवल छोटे स्तर के कर्मचारियों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि विश्वविद्यालयों में भी प्राध्यापकों की नियुक्ति संविदा पर होने लगी। आज पूरे देश में संविदा और ठेकेदारी प्रथा से सरकारी कामकाज चलाया जा रहा है।  ये बात भी सच है कि सरकारी अमले में बढ़ती अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी संविदा जैसे उपाय उपयोग में लाए गए। लेकिन इसमें ये विसंगति सामने आई कि जब किसी कर्मचारी  से दशकों तक सरकार काम ले रही है तब उसे अस्थायी कैसे माना जा सकता है और ये बात भी स्व प्रमाणित हो जाती है कि वह जिस पद पर कार्यरत है उस पर स्थायी नियुक्ति की आवश्यकता है।  शिवराज सरकार ने भले ही आगामी विधानसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए ये दरियादिली दिखाई जिसकी वजह से उस पर आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा किंतु  इसके लिए सरकार ही दोषी है जिसने इस निर्णय पर पहुँचने में बरसों - बरस लगा दिए । इस वजह से सरकारी काम की गुणवत्ता और समयबद्धता दोनों पर विपरीत प्रभाव तो पड़ा ही ,  संविदा कर्मचारियों के परिवारों और  उनसे जुड़े अन्य लोगों में भी नाराजगी बढ़ी। आज के दौर में सरकार के लिए वेतन - भत्तों का खर्च वहन करना वाकई मुश्किल होता जा रहा है। इसीलिये पुरानी पेंशन योजना बंद की गई थी किंतु इस बारे में पारदर्शी नीति होनी चाहिए। सरकार निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं को तो श्रम कानून का डर दिखाकर परेशान करती है किंतु खुद के विभागों में दैनिक वेतन भोगी और संविदा जैसे वर्ग बनाकर कर्मचारियों का जो शोषण करती है , वह भी तो श्रम कानूनों का उल्लंघन ही है। ये भी देखने में आया कि बड़े अधिकारियों और मंत्रियों के बंगलों पर बेगारी करने वाले भी दैनिक वेतन भोगी और संविदा कर्मचारी होते हैं। नौकरी चली जाने के भय से ये अन्याय और अपमान सहते हुए भी काम करते रहते हैं। उस दृष्टि से श्री चौहान ने जो कदम उठाया उसकी राजनीतिक की बजाय मानवीय नजरिए से  प्रशंसा होनी चाहिए। सरकार को चाहिए वह घाटे में कमी लाने के लिए अनुत्पादक खर्चों पर नियंत्रण लगाए । लेकिन इसके लिए उसे अपने मंत्रियों और अधिकारियों को दी जा रही शाही सुविधाओं में कटौती करनी होगी जो हर दृष्टि न्यायोचित होगा और जनमानस पर भी उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ये बात सही है कि मंत्रियों और आला अफसरों के बंगले और अन्य सुविधाओं पर होने वाले खर्च देखने पर ऐसा लगता ही नहीं कि इनमें और अंग्रेज सत्ताधीशों तथा नौकरशाहों में कोई अंतर है। इसलिए   मुख्यमंत्री से अपेक्षा है कि वे मंत्रियों और बड़े अधिकारियों के ऐशो - आराम पर जनता की कमाई लुटाई जाने पर भी विराम लगाएं जिसके कारण शासन और प्रशासन के प्रति लोगों के मन में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। इस बारे में एक बात और भी गौरतलब है। कि सरकार का हर विभाग कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है । यहां तक कि अदालतों में न्यायाधीशों के पद खाली हैं। इस वजह से काम का बोझ और विलंब दोनों बढ़ रहे हैं। विधानसभा चुनाव में ये भी बड़ा मुद्दा है क्योंकि पदों का रिक्त रहना और बेरोजगारी बढ़ना विरोधाभासी हैं ।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

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