Tuesday 8 August 2023

सादगी का उपदेश देने वाले भी तो वीआईपी संस्कृति से दूर रहें




मुरारी बापू देश की अत्यंत सम्माननीय आध्यात्मिक विभूति हैं। उनके द्वारा की जाने वाली कथाओं को सुनने जनसैलाब उमड़ता है। बड़े ही सरल और सहज व्यक्ति होने से उनके संपर्कों का दायरा विश्वव्यापी है। श्रावण माह में वे दो विशेष रेलगाड़ी लेकर भगवान शंकर के 12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने निकले । उनके साथ सैकड़ों सेवक और भक्त भी रहे । इसी दौरान गत सप्ताह वे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु उज्जैन आए थे। इस अवसर पर उन्होंने मंदिरों में वीआईपी संस्कृति खत्म करने की बात कहते हुए साधारण जनता को प्राथमिकता देने का सुझाव देकर जनभावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की। निश्चित रूप से भगवान के दरबार कहे जाने वाले मंदिरों में अतिविशिष्ट लोगों के आने से वहां घंटों पहले से पंक्ति में खड़े आम श्रद्धालु परेशान होते हैं और उनको गुस्सा भी आता है। उस दृष्टि से बापू के विचार स्वागत योग्य भी हैं और अनुकरणीय भी। लेकिन जिस वीआईपी संस्कृति का जिक्र उन्होंने छेड़ा वह केवल नेताओं , नौकरशाहों और धनकुबेरों तक ही सीमित नहीं रही। अपितु धर्म और आध्यात्म से जुड़ी हस्तियां भी इसके आकर्षण से ग्रसित हैं । एक समय था जब धार्मिक आयोजन कम से कम खर्च में संपन्न होते थे । प्रवचन करने करने वाले भी धर्म प्रचार की भावना से सहज आमंत्रण पर आ जाया करते थे। उनके आने - जाने , रहने , भोजन इत्यादि पर भी बहुत व्यय नहीं होता था। आयोजन स्थल पर भी साधारण व्यवस्था ही पर्याप्त होती थी। लेकिन आजकल वह सब कल्पनातीत होता जा रहा है। इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि मंदिर ही नहीं अपितु जहां कहीं भी धार्मिक अनुष्ठान होता है वहां वीआईपी संस्कृति का बोलबाला होता है। आजकल जहां देखो कोई न कोई बड़ा धार्मिक आयोजन होता दिखता है, जिसके प्रचार - प्रसार पर ही लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। पंडाल और मंच की साज - सज्जा भी इतनी भव्य होती है कि साधारण व्यक्ति तो वैसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। जो आध्यात्मिक विभूतियां इन आयोजनों में प्रवचन देने आती हैं उनमें से ज्यादातर के साथ किसी फिल्मी सितारे सरीखा तामझाम जुड़ा है। उनकी आवास व्यवस्था पर ही बेतहाशा खर्च होता है। और अब तो एक नया चलन शुरू हो गया है। जिस प्रवचन कर्ता को बुलाया जाता है उसकी अपनी पंडाल , मंच सज्जा और टीवी पर प्रसारण की व्यवस्था है । जिसके लिए भारी - भरकम अग्रिम भुगतान करना होता है। कुल मिलाकर दूसरों को सादगी और त्याग का उपदेश देने वाले जिस तरह के महंगे आयोजन को प्रोत्साहन देने लगे हैं उस वजह से साधारण व्यक्ति तो किसी कोने में जगह पा जाने पर खुद को धन्य समझता है क्योंकि आगे के स्थान तो वीआईपी से ही भरे होते हैं । और उनमें भी ज्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें प्रवचन से ज्यादा रुचि अपनी हैसियत और रुतबे के प्रदर्शन में होती है। खुद बापू की कथा का आयोजन भी सुपर वीआईपी हो चला है। गत दिवस समाप्त हुई उनकी उक्त यात्रा जिस रेलगाड़ी से हुई वह विशेष तौर पर रेलवे ने तैयार करवाई जिसमें पांच सितारा होटल जैसी सुविधाएं उपलब्ध रहीं। हालांकि बापू का खुद का रहन - सहन बेहद सादा है। आम जनों से वे सरलता से मिलते हैं किंतु जिस वीआईपी संस्कृति से मंदिरों को मुक्त करने की बात उन्होंने कही उससे धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़े माननीय महानुभावों को दूर रखना भी समय की मांग है। कई बार ये लगने लगता है धर्म के क्षेत्र में भी बाजारवाद घुस चुका है। नव धनाढ्यों और राजनेताओं की निकटता ने साधु , सन्यासियों को भी प्रभावित कर लिया है। ऐसे में मंदिरों के भीतर वीआईपी संस्कृति समाप्त करने मात्र से काम नहीं चलने वाला। दर्शन हेतु टिकिट जैसी व्यवस्था भी कई बार अखरती है । हालांकि उसकी वजह से व्यवस्था में सहयोग भी मिलता है। लेकिन आध्यात्म के क्षेत्र में पनप रही व्यवसायिक प्रवृत्ति निश्चित रूप से मन को कचोटती है। ये कहना भी गलत न होगा कि धर्म के नाम पर होने वाली अवांछित गतिविधियों के पीछे भी आर्थिक चकाचौंध ही है । अच्छा हो बापू जैसे व्यक्ति इस बारे में आगे आकर धार्मिक आयोजनों को ईवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा बनने से रोकने का अभियान चलाएं। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि चार्टर्ड विमान और महंगी कारों में चलने वाले महात्मा जब सादा जीवन , उच्च विचार का उपदेश देते हैं तो श्रोताओं पर उनका अपेक्षित असर नहीं होता। चूंकि ये बेहद सम्वेदनशील विषय है इसलिए अच्छा तो यही होगा कि वरिष्ट संत - महात्मा , विशेष रूप से शंकराचार्य इस बारे में आचार संहिता बनाएं ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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