Monday 14 August 2023

दलबदल ने नेताओं की सैद्धांतिक पहिचान खत्म कर दी




दल बदलने की परंपरा कब शुरू हुई ये  कहना मुश्किल है । आजादी के पूर्व कांग्रेस ही प्रमुख थी किंतु स्वाधीनता के बाद अनेक  नेता  उससे अलग हो गए । कुछ ने नई पार्टी बनाई तो जयप्रकाश नारायण जैसे  राजनीति छोड़कर सर्वोदयी बन गए। समाजवादियों की बड़ी संख्या कांग्रेस छोड़ने के बाद प्रजा सोशलिस्ट  पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले जमा हुई। साम्यवादी पार्टी ,  मुस्लिम लीग और हिंदू  महासभा तो पहले से ही अस्तित्व में थीं। पहले आम चुनाव के पूर्व भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ। धीरे - धीरे समाजवादी नेताओं में भी मतभेद उभरे । कुछ  कांग्रेस में लौट गए और कुछ  पार्टियां तोड़ने - बनाने के खेल में रम गए। 1962 में चीन के आक्रमण के बाद साम्यवादी दल  सीपीआई और सीपीएम के तौर पर बंट गए। 1967 में डा.राममनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे से प्रेरित संविद सरकारों के रूप में  हुआ  प्रयोग  हालांकि जल्द ही विफल हो गया परंतु  उसने दल बदल नामक बीमारी को जन्म दिया । आया राम - गया राम का दौर भी चला जब एक ही दिन में कई बार पार्टी बदली गई। भजनलाल नामक मुख्यमंत्री तो  पूरे मंत्रीमंडल सहित दल बदल  कर गए। इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार समाजवादी आंदोलन हुआ जिसके नेताओं में पार्टियां तोड़ने की प्रतिस्पर्धा  आज तक जारी है। अनेक नेताओं ने अपनी पारिवारिक पार्टियां भी बना लीं। दक्षिण में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से टूटकर अद्रमुक बन गई। एम.जी रामचंद्रन की देखासीखी दक्षिण के अनेक अभिनेताओं ने दल बनाए। एन. टी.रामाराव तो मुख्यमंत्री भी बने किंतु उनके दामाद चंद्राबाबू नायडू ने बगावत कर डाली। महाराष्ट्र में शिवसेना बनी तो तो उड़ीसा में बीजू जनता दल। कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार ने जनता दल  सेकुलर का गठन किया। प.बंगाल में ममता बैनर्जी ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई वहीं लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान ने भी अपनी घरेलू पार्टियां बना लीं। 1977 में बनी जनता  पार्टी सरकार के पतन  के बाद जनसंघ से जुड़े रहे नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की।  इस सबके बीच कांग्रेस लगातार टूटती गई और नई पार्टियां बनती गईं। लेकिन  गाजर घास की तरह से उगी इन पार्टियों के कारण  राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता और पहिचान लुप्त होती चली गई।  पहले किसी नेता का नाम लेते ही उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि सामने आ जाती थी किंतु अब ऐसा नहीं है। आगामी साल लोकसभा चुनाव होंगे। इसीलिए एक पार्टी छोड़कर दूसरे में जाने का दौर जारी है । गठबंधन की जो प्रक्रियाएं चल रही हैं उनमें भी सैद्धांतिकता नजर नहीं आती। परिवार की निजी संपत्ति बने दलों की प्राथमिकता  सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े रहना है  जिसके  लिए वे कुछ भी करने में शर्माते नहीं हैं। जनता पार्टी की सरकार रास्वसंघ के साथ जनसंघ के लोगों के संबंध पर एतराज करने के नाम पर गिरी थी। बाद में जब भाजपा बनी तब दोहरी सदस्यता पर बवाल करने वाले जॉर्ज  फर्नांडीज , शरद यादव , रामविलास पासवान उसके साथ सत्ता में भागीदार बन बैठे। नीतीश कुमार ने तो लंबे समय तक भाजपा के साथ बिहार पर राज किया। जिन स्व.पासवान ने गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को दोषी मानकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार  छोड़ी वे 2014 में श्री मोदी के साथ आ गए । नीतीश खुद बीते दस साल में दो बार भाजपा के साथ मिलने और अलग होने का दांव चल चुके हैं । भ्रष्टाचार के मूर्तमान प्रतीक कहे जाने वाले अजीत पवार   दिन - दहाड़े भाजपा के साथ सत्ता  सुख लूटने  आ गए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक दलबदल भारतीय राजनीति की पहिचान बन चुका है। किसी को किसी से परहेज नहीं रहा। जातिगत छुआछूत तो आज तक नहीं मिट सकी लेकिन राजनीतिक छुआछूत अवश्य अपनी मौत मर चुकी है। आज जो भ्रष्ट है वह साथ आते ही ईमानदारी का प्रतीक हो जाता है और कट्टर सांप्रदायिक नेता को पलक झपकते धर्म निरपेक्षता का प्रमाण पत्र मिल जाता है। अपनी पार्टी के निष्ठावान चने चबाते रह जाते हैं और दलबदलू आकर कुर्सी पा जाते हैं। देश में अनेक ऐसे मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री हैं जो कुछ समय पहले ही पार्टी में आए और देखते - देखते सबके सिर पर सवार हो गए। आजादी के 76 साल पूरे होने के अवसर पर भारतीय राजनीति का मौजूदा परिदृश्य निराश करने वाला है। गठबंधन यदि देश हित में हो तो उसका स्वागत होना चाहिए। चुनाव के बाद  योग्य सांसदों - विधायकों को मंत्री बनाए जाने की भी  हर कोई तारीफ करेगा किंतु महज सत्ता के लिए दूसरे दल से आए नेता को उपकृत करने से एक तो पार्टी के कार्यकर्ता आत्मग्लानि का अनुभव करते हैं वहीं जनता को भी ये लगता है कि राजनीति पूरी तरह बाजार बनती जा रही है। दुख की बात ये है कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां दल बदल को प्रोत्साहित करने के खेल में शामिल हैं। सांसदों और विधायकों के दल बदल को रोकने का तो एक कानून भी है किंतु बाकी को खुली छूट  है। हालांकि वह कानून भी तकनीकी पेच में फंसकर मजाक बन जाता है। ऐसे में ये जरूरी लगता है कि दल बदल करने वाले नेता यदि अपने निर्णय का समुचित कारण नहीं बता पाएं तो जनता को उनका तिरस्कार करना चाहिए । राजनीतिक दल भी ताजा - ताजा पार्टी में आए नेता को टिकिट देने से मना करें तो इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण लग सकता है। लेकिन आज की स्थिति में किसी से उम्मीद करना व्यर्थ है क्योंकि  पूरे कुएं में भांग घुली हुई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 




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