Tuesday 18 October 2022

उपचुनाव : काश , ये परम्परा सभी राज्यों में लागू हो



लोकतंत्र संविधान अर्थात कानून से संचालित व्यवस्था है | लेकिन उससे भी ज्यादा उसमें स्वस्थ परम्पराओं का महत्व होता है इसीलिये विरोधी को शत्रु नहीं समझा जाता | और सहमत न होते हुए भी एक दूसरे के विचारों को सम्मान दिया जाता है | ब्रिटेन में परम्परा है कि हॉउस ऑफ कामन्स ( निम्न सदन ) का अध्यक्ष यदि दोबारा चुनाव लड़ना चाहे तो विपक्ष उसके विरुद्ध प्रत्याशी खड़ा नहीं करता जिससे वह निर्विरोध चुन जाता है | हमारे देश में जब मनोहर जोशी लोकसभा अध्यक्ष थे तब अगले चुनाव में उनके विरुद्ध उम्मीदवर न उतारने का आग्रह  सत्ता पक्ष ने किया लेकिन विपक्षी दल राजी नहीं हुए अन्यथा एक अच्छी परम्परा कायम हो सकती थी | इसी सिलसिले में एक खबर ने ध्यान खींचा | मुंबई की अंधेरी  विधानसभा सीट के शिवसेना विधायक रमेश लटके के निधन के बाद हो रहे उपचुनाव में उद्धव ठाकरे गुट ने उनकी पत्नी को मैदान में उतारा | उनके विरुद्ध भाजपा ने मुरजी पटेल को प्रत्याशी बनाया जिन्होंने जबरदस्त शक्ति प्रदर्शन के बाद अपना नामांकन दाखिल कर दिया | राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद हो रहे इस उपचुनाव के जरिये भाजपा और शिवसेना ( उद्धव ठाकरे गुट )  के बीच जोरदार मुकाबला होने की उम्मीद की जा रही थी | भाजपा को चूंकि शिवसेना के शिंदे गुट का साथ मिला हुआ है इसलिए वह अपनी जीत को तय मानकर चल रही थी | लेकिन अचानक उसके प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले ने उपचुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी जिसके बाद श्री पटेल को अपना नामांकन वापिस लेना पड़ा | इस चौंकाने वाले फैसले का  कारण  महाराष्ट्र के राजनीतिक दलों  के बीच चली आ रही वह सहमति है जिसके अनुसार किसी सांसद या विधायक की मृत्यु के उपरांत होने वाले उपचुनाव में उसके परिजन के चुनाव लड़ने पर बाकी दल अपना उम्मीदवार नहीं उतारते | अंधेरी उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी के नामांकन के बाद राकांपा नेता शरद पवार और मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने भाजपा को उस परम्परा की याद दिलवाते हुए अपना  उम्मीदवार न खड़ा करने की अपील की | जिसके बाद उसने अपना प्रत्याशी मैदान से हटा लिया | लेकिन महाराष्ट्र की ये परम्परा अब तक बड़ी खबर क्यों नहीं बन सकी ये सवाल है | यदि इसे देशव्यापी स्वीकृति मिल जाए तब राजनीति में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के साथ सौजन्यता और संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलेगा  | हालाँकि इसको संशोधित करते हुए परिवार के सदस्य की बजाय पार्टी का प्रावधान रहे तब वह सैद्धांतिक तौर पर बेहतर रहेगा क्योंकि दिवंगत जन प्रतिनिधि परिवार नहीं अपितु पार्टी के नाम पर जीता था | इस बारे में उल्लेखनीय है कि किसी सांसद या विधायक की मृत्यु होने से उपचुनाव की स्थिति बनने पर राजनीतिक दल सहानुभूति का लाभ लेने हेतु दिवंगत के परिवार जन को उम्मीदवार बना देते हैं | और परिजन भी इसे  अपना अधिकार समझकर टिकिट नहीं मिलने पर निर्दलीय या किसी अन्य दल में जाकर चुनाव लड़ लेते हैं | महाराष्ट्र की  संदर्भित परम्परा इस लिहाज से वाकई अच्छी है क्योंकि इससे व्यर्थ की राजनीतिक कटुता नहीं होने पाती | अच्छा होगा जिस पार्टी ने वह सीट जीती उसको ही उपचुनाव में अवसर दिया जावे चाहे उसका उम्मीदवार मृतक का परिजन हो या कोई और | यदि सारे राजनीतिक दल मिलकर ये प्रथा पूरे देश में लागू करें तो उपचुनाव पर होने वाला खर्च बचने के साथ ही राजनीतिक वैमनस्य ज्यादा न सही  कुछ तो कम होगा ही | देखने वाली बात ये है कि जब किसी जनप्रतिनिधि की मौत होती है तब घोर विरोधी तक उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं |  हाल ही में सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव नहीं रहे तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात की आम सभा में सात मिनिट तक उनकी तारीफ़ की | उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उनकी अंतिम यात्रा में शरीक हुए | लेकिन इसी के साथ ही ये खबरें भी आने लगीं कि उनके निधन से रिक्त मैनपुरी लोकसभा सीट के उपचुनाव हेतु भाजपा ने अपनी रणनीति बनाना शुरू कर दिया है | राजनीति में संवेदनहीनता किस हद तक हावी हो गई है उसका उदाहरण स्व. यादव के अनुज शिवपाल द्वारा पत्रकारों से की गई राजनीतिक बातचीत थी जबकि उस समय तक परिवार का वातावरण पूरी तरह से शोकग्रस्त था | मैनपुरी सीट पर उपचुनाव में निश्चित रूप से सपा यादव परिवार के किसी सदस्य को उतार सकती है | हो सकता है अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल को अवसर दिया जाए | ज्यादातर सम्भावना इस बात की है कि कांग्रेस इस उपचुनाव से दूर रहेगी | बसपा हालाँकि आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव में सपा की  हार का कारण बनी किन्तु वह भी शायद ही मैनपुरी की जंग में उतरे | ऐसे में केवल भाजपा ही बच रहती है | बेहतर हो वह ये ऐलान करे कि यदि स्व. यादव के परिवार से कोई प्रत्याशी नहीं हुआ तब वह इस उपचुनाव से दूर रहेगी | ऐसे में अखिलेश पर भी ये दबाव बनेगा कि वे परिवार से बाहर किसी कार्यकर्ता को अवसर दें | उल्लेखनीय है आजमगढ़ उपचुनाव में ऐन वक्त पर पार्टी के उम्मीदवार की जगह अपने  चचेरे भाई को उतारने का उनका फैसला ही सपा की हार का कारण बन गया था | लेकिन अखिलेश से ऐसी मांग करने के पहले  भाजपा को भी ये फैसला करना होगा कि वह भी इस तरह के उपचुनावों में परिवार के बजाय पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता को महत्व देगी | हालाँकि इस शैली का आदर्शवाद अब भारतीय राजनीति में सपने देखने जैसा हो गया है | लेकिन लोकतंत्र की ख़ूबसूरती इसी में है कि वह तनाव रहित माहौल को जीवंत रखे | मुम्बई की अँधेरी सीट के उपचुनाव में उद्धव ठाकरे से जबरदस्त कटुता के बाद भी शरद पवार और राज ठाकरे  के अनुरोध के बाद भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार वापिस लेने का निर्णय निश्चित तौर पर अच्छा संकेत है | काश , ये परिपाटी अन्य राज्यों में कायम हो सके तो लोकतंत्र के प्रति लोगों में बढ़ती जा रही वितृष्णा को रोका जा सकता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

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