Thursday 20 October 2022

राहुल तो बड़ी बात हैं खड़गे जी अपने बारे में भी फैसला नहीं कर सकते



मल्लिकार्जुन खड़गे  का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना तो उनके नामांकन के दिन ही  तय हो चुका था | उनकी खासियत ये है कि उनके नाम के साथ गांधी उपनाम नहीं जुड़ा | इस चुनाव की जरूरत भी इसीलिये पड़ी क्योंकि कांग्रेस परिवारवाद के आरोप से अपना पिंड छुड़ाना चाहती थी | राहुल गांधी के इंकार के पीछे भी यही कारण बताया गया | चारों तरफ खड़गे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ  उनके दलित होने का भी प्रचार हो रहा है |  उनके चयन को इस प्रकार प्रचारित किया जा रहा है मानो कांग्रेस पार्टी अब गांधी परिवार के प्रभाव और दबाव से आजाद हो गई है | इस बारे में राहुल गांधी की यह प्रतिक्रिया भी आई कि अब मेरे बारे में भी श्री खड़गे ही फैसला करेंगे | सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा ने भी उनके निवास जाकर बधाई देते हुए ये दिखाने का प्रयास किया कि नए अध्यक्ष ही आगे से सर्वोच्च रहेंगे | लेकिन इस सबके बीच ये बात भी उठ रही है कि पार्टी  अध्यक्ष के लिए वे गांधी परिवार की पहली पसंद नहीं थे | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम पहले ही तय हो चुका था जिन्हें उसका बेहद भरोसेमंद माना जाता था | वे इस हेतु तैयार भी थे लेकिन एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत आड़े आ गया और उस पर भी उनका उत्तराधिकारी  चुनने के लिए पार्टी आलाकमान ने जो जल्दबाजी की उससे वे भड़क गए |  तदुपरांत  जो नाटक – नौटंकी हुई उसके बाद श्री गहलोत ने गांधी परिवार का भरोसा खो दिया | हालाँकि दबाव की राजनीति के परिणामस्वरूप वे अपना मुख्यमंत्री पद तो फ़िलहाल बचा ले गए परन्तु  राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का अवसर हाथ से निकल गया | यद्यपि ये सच है कि दोनों पदों पर रहने की छूट मिली होती तो वे चुनाव लड़ने हेतु सहर्ष तैयार हो जाते | बहरहाल उनके बागी सुर अलापने के बाद ही गांधी परिवार को श्री खड़गे में वह शख्स नजर आया जो उसके प्रति पूरी तरह श्रद्धावनत हो | इसके साथ ही परिवार को  जी  - 23 नामक असंतुष्टों का भी भय सता रहा था | अन्यथा शशि थरूर उस कसौटी पर ज्यादा खरे थे जो राहुल ने पार्टी की कमान संभालते समय तय की थी | जिस नये मतदाता को पार्टी से जोड़ने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है उसे श्री खड़गे की बजाय शशि ज्यादा बेहतर तरीके से आकर्षित कर सकते थे | लेकिन सच्चाई ये है कि गैर गांधी अध्यक्ष बनाने के बाद भी परिवार अपना वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहता था  और श्री थरूर उसमें बाधक बन सकते थे | चुनाव के दौरान ही जमीनी  स्तर के कांग्रेस कार्यकर्ता को भी ये बात बिना संदेह के पता थी कि खड़गे जी ही गांधी परिवार द्वारा प्रायोजित उम्मीदवार थे | लिहाजा उन्हें भारी – भरकम बहुमत मिला | वहीं अनेक राज्यों में श्री थरूर से मिलने तक कांग्रेस जन नहीं आये | कल के बाद अब राजनीति के जानकार श्री खड़गे के सामने खड़ी चुनौतियों का ब्यौरा पेश करने लगे हैं | आगामी दो माह में हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं | इसके बाद अन्य राज्यों में भी चुनाव की तैयारियां होने लगी हैं | 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति भी बन रही है | राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के पीछे भी वही है | ऐसे में श्री खड़गे को आगे करने के बाद गांधी परिवार किस भूमिका में रहेगा इस पर उनकी सफलता निर्भर करेगी | सबसे बड़ी बात ये है कि उनकी आयु 80 वर्ष की है | उस दृष्टि से वे युवा मतदाताओं को कांग्रेस की ओर मोड़ सकेंगे ये कठिन है | भले ही राजनीति में वे लम्बी पारी खेलते आ रहे हों लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को जिस तरह का चेहरा चाहिए था उसका उनमें अभाव है | राहुल का ये कहना संगठन के लिहाज से तो उचित प्रतीत होता है कि अब उनके बारे में श्री खड़गे ही फैसला करेंगे परन्तु जगजाहिर है कि वे अपने बारे में भी फैसला लेने स्वतंत्र नहीं हैं और यही उनकी सबसे बड़ी काबलियत है | सही मायनों में कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष चहिये था जो सीधे जनता के दिलों में उतर सके | ये कहना गलत नहीं है कि गांधी परिवार का तिलिस्म अब ढलान पर है | सोनिया जी और प्रियंका की सभाएं कोई असर नहीं छोड़ पातीं | रही बात राहुल की तो वे भारत जोड़ो यात्रा से अपने आपको जन - नेता बनाने के लिए काफी मशक्कत कर रहे हैं | लेकिन यात्रा को गुजरात और हिमाचल से दूर रखकर उन्होंने अपना पराजयबोध व्यक्त कर दिया है | ऐसा लगता है वे पूरी तरह से आगामी लोकसभा  चुनाव पर ही ध्यान लगाये हैं जबकि उसके पहले आधा दर्जन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे जिनका असर लोकसभा के महासमर पर पड़े बिना नहीं रहेगा | कांग्रेस के लिए शोचनीय बात ये है कि जब आलाकमान द्वारा पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजे गए श्री खड़गे राजस्थान का राजनीतिक संकट सुलझाये  बिना खाली हाथ लौट आये तब उनसे किस प्रकार के चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है | बतौर विधायक , सांसद और मंत्री उनका अनुभव बेशक काफी है लेकिन जनता को आकर्षित करने के लिए जिस राजनीतिक कौशल की जरूरत पार्टी  को है उसका उनमें नितान्त अभाव है | और इसीलिये उनके स्वतन्त्र होकर काम करने की सम्भावना न के बराबर है | वे स्वयं भी अनेक मर्तबा कह चुके हैं कि बगैर गांधी परिवार के कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती जो गलत भी नहीं है | लेकिन जब तक वे परिवार के आभामंडल से खुद बाहर नहीं आते तब तक उनसे प्रभावशाली प्रदर्शन की उम्मीद रखना बेकार है | कांग्रेस में 22 साल बाद अध्यक्ष का चुनाव लोकतान्त्रिक तरीके से होना निश्चित रूप से अच्छी बात है किन्तु जिस बदलाव के लिए ये उठापटक हुई वह न श्री गहलोत और दिग्विजय सिंह के बनने पर होता और न ही खड़गे जी के अध्यक्ष बनने पर होगा | 


- रवीन्द्र वाजपेयी


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