Saturday 1 October 2022

सबके विश्वास का दावा तब तक अधूरा है जब तक ...



अपने देश में राजनीति की चर्चा ज्यादा होने से  अन्य विषय दबकर रह जाते हैं | यद्यपि महंगाई और  बेरोजगारी का जिक्र  छोटे – बड़े सभी करते हैं लेकिन देश की माली हालत बेहतर बनाने के लिए उठाये जाने वाले कदमों को राजनीति जिस तरह रोकती है उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता |  दूरगामी आर्थिक लक्ष्य निर्धारित करने में शासनतंत्र इसलिए विफल रहता है क्योंकि जमीनी सच्चाई की बजाय तात्कालिक फायदों पर ही ध्यान केन्द्रित रखा जाता है |  पहले तो चुनाव पांच साल बाद आते थे इसलिए  नीतियों का क्रियान्वयन बीरबल की खिचड़ी जैसा होता था | पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये विकास के लक्ष्य प्राप्त करने जो विलम्ब होता रहा उसकी वजह से अर्थव्यवस्था  भारतीय रेल की  तरह विलम्ब से चलने की आदी हो गई |  लेकिन बीते तीन दशक से आर्थिक मामले भी राजनीति के समानांतर चर्चा में आने लगे हैं | शिक्षा के प्रसार के अलावा सूचना तंत्र , विशेष रूप से सोशल मीडिया के फैलाव के कारण अब आम जनता भी अपनी खुशी और नाराजगी के साथ ही  अपेक्षाओं  को  खुलकर व्यक्त करने लगी है | सबसे बड़ी बात जिसकी वजह से राजनेता आर्थिक मामलों में रूचि लेने लगे  वह है हर समय चुनावी मौसम  | एक भी साल ऐसा नहीं जाता जिसमें किसी न किसी राज्य में चुनाव न होता हो | गठबंधन राजनीति के उदय के उपरान्त सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों को अपने दम पर या फिर साझेदार के तौर पर सत्ता सुख प्राप्त हुआ है | लेकिन विभिन्न विचारधाराओं के बावजूद  सभी का आर्थिक चिंतन कमोबेश एक समान हो चुका है | यहाँ तक कि वामपंथी दल भी पूंजी आधारित नीतियों को लागू करने में नहीं हिचकते | आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली और पानी देकर सत्ता हासिल की तो  मोदी सरकार ने मुफ्त मकान , रसोई गैस और अनाज के बलबूते अपने जनाधार को सुदृढ़ कर लिया | चुनाव प्रचार के दौरान  गांधी , लोहिया , दीनदयाल और मार्क्स के अनुयायी  विचारधारा के प्रचार  की बजाय मुफ्त उपहारों की प्रतिस्पर्धा करते नजर आते हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि तमाम दावों के बाद भी देश और प्रदेश की सरकारों का खजाना खाली ही है | कर्ज के बोझ से झुके कन्धों के बावजूद जिस तरह की दरियादिली दिखाई जा रही है वह अर्थशास्त्र के मान्य सिद्धांतों के सर्वथा विरुद्ध है | चार्वाक ऋषि ने हजारों साल पहले कर्ज लेकर घी पीने का सुझाव  दिया था | हमारे देश में सरकारें उसी राह पर चलते हुए कर्ज लेकर घी बांटने की रईसी दिखा रही हैं | गरीबी दूर करने के नारे पर 1971 में  लोकसभा चुनाव जीता गया | उसके पहले बैंक राष्ट्रीयकरण और राजा – महाराजाओं के प्रीवीपर्स समाप्त कर आम जनता के मन में आशाएं जगाई जा चुकी थीं | ये कहना गलत  न होगा कि उसके पहले तक के चुनाव में नेता का चेहरा और भावनात्मक अपीलें जादुई असर मतदाता पर छोड़ा करती थीं | नेहरु जी और इंदिरा जी की एक सभा मात्र से ही चुनावी नैया आसानी से पार लग जाती थी | लेकिन 1971 में गरीबी  हटाओ नारे का चमत्कारी असर हुआ | हालाँकि उसके बाद कुछ दशक तक राजनीति को  सम – सामयिक परिस्थितियां प्रभावित करती रहीं किन्त्तु 1991 में पी.वी . नरसिम्हा राव और डा. मनमोहन सिंह की जोड़ी ने अर्थव्यवस्था को  आम विमर्श का विषय बनाया | इसकी वजह से  मध्यम वर्ग के मन में उम्मीदें जगाने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक जारी है |  देश में होने वाली आर्थिक हलचलों के पीछे इसी वर्ग की सोच में आया परिवर्तन है | कुल मिलाकर ये कहना गलत न होगा कि राजनीति करने वाले जहां मतदाता को ग्राहक समझकर  लुभाने की कोशिश करने लगे  हैं वहीं  मतदाता भी उपभोक्तावादी मानसिकता के वशीभूत मतदान करते समय ज्यादा छूट पर ध्यान देता है | ये प्रवृत्ति जिस तेजी से समूचे राजनीतिक प्रतिष्ठान पर हावी हो चुकी है उसकी वजह से एक तरफ हम दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था के गौरव की अनुभूति में डूबे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारी मुद्रा तेजी से गिर रही है | वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में तेज गति से कदम बढ़ाये जाने के बावजूद कच्चे तेल का आयात अर्थव्यवस्था का  तेल निकालने की वजह बना हुआ है | उधर निर्यात के मोर्चे पर आगे बढ़ने की रफ़्तार अपेक्षानुरूप न होने से रूपये की गिरती कीमत का लाभ लेना भी सम्भव नहीं हो रहा | हालाँकि हमारा बड़ा उपभोक्ता बाजार औद्योगिक उत्पादन को खपाने में सहायक है | लेकिन चौतरफा चमक के बावजूद यदि 80 करोड़ लोगों को इसलिए मुफ्त या सस्ता अनाज देने की मजबूरी बनी हुई है कि अन्यथा वे अपना पेट नहीं भर सकेंगे , तब ये सोचना पड़ जाता है कि या तो आर्थिक नियोजन दिशाहीन है या फिर उसे तय करने वाले सच्चाई से आँखें चुराते हैं | इसमें दो राय नहीं है कि कोरोना महामारी का मुकाबला करने में हम पूरी तरह सफल रहे | और ये भी कि वैश्विक उथलपुथल से हमारी अर्थव्यवस्था काफी हद तक बची रही | यूक्रेन संकट से उत्पन्न हालात में भी सुलझी हुई कूटनीति की वजह से नुकसान कम से कम हुआ | देश में आर्थिक गतिविधियां भी रफ़्तार पकड़  चुकी हैं | चुने हुए क्षेत्रों में रोजगार सृजन भी हो रहा है | इस वर्ष मानसून की मेहरबानी से खेतों से भी अच्छी खबर आ रही है | बावजूद इसके महंगाई का प्रकोप तेजी से बढ़ता जा रहा है | कोरोना काल में तो उत्पादन घटने पर दाम बढ़ाये जाने का औचित्य भी था लेकिन स्थितियां सामान्य होने के बाद भी उनका और बढ़ता जाना चौंकाता है | चालू वित्तीय वर्ष में जीएसटी की मासिक वसूली कीर्तिमान बना रही है तो उसका कारण पेट्रोल – डीजल सहित रोजमर्रे की चीजों की आसमान छूती कीमतें हैं | वोटों के लालच में मुफ्त , बिजली , पानी , खाद्यान्न के अलावा अनेक चीजों का मुफ्त वितरण जनहित में कहा जा सकता है किन्तु सरकार को उस तबके पर भी देना चाहिए जो  भरपूर टैक्स देने के बावजूद पूरी तरह उपेक्षित ही नहीं अपितु स्वयं को प्रताड़ित भी महसूस करता है | हाल ही में केंद्र सरकार के कर्मचारियों और पेंशनधारियों का महंगाई भत्ता बढ़ा दिया गया | साथ ही मुफ्त खाद्यान्न योजना भी तीन माह के लिए बढ़ गई | लेकिन इससे इतर जो वर्ग है उसे भी तो कुछ राहत मिलनी चाहिए थी | चाहे सरकार के निर्णय हों या रिजर्व बैंक की नीतियां उनका भार जिस करदाता पर पड़ता है उसके बारे में सोचे बिना सबका साथ , सबका विकास के साथ सबका विश्वास का नारा बेमानी रहेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

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