Monday 10 October 2022

उ.प्र में कांग्रेस को अस्तित्वहीन कर गये मुलायम सिंह यादव



समाजवादी पार्टी के संस्थापक उ.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव का आज लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया | नेता जी नाम से लोकप्रिय 82 वर्षीय स्व. यादव ने राजनीति में एक लम्बी पारी खेली | तीन बार मुख्यमंत्री और 7 बार सांसद बने मुलायम सिंह राजनीति के उन मैदानी खिलाड़ियों में थे जिन्होंने अपना वैचारिक सफर गैर कांग्रेसवाद के प्रवर्तक स्व. डा. राममनोहर लोहिया की रहनुमाई में शुरू किया था लेकिन उनके जीवन का उत्तरार्ध गैर भाजपा राजनीति की सोच के चलते बीता | वे  उन - बचे खुचे नेताओं में थे जिन्होंने लोहिया जी की लाल टोपी को जीवित रखा | यहीं नहीं तो संसद में धोती युग के भी वे गिने – चुने प्रतिनिधियों में थे | वे उ.प्र जैसे महत्वपूर्ण  राज्य के उन चंद नेताओं में थे जिन्होंने  शून्य से शिखर तक की यात्रा अपने बलबूते हासिल की | हालाँकि उनकी  समाजवादी पहिचान केवल लाल  टोपी तक सीमित रह गई थी | 1977 के  बाद केंद्र में बनी जनता पार्टी की सरकार जब अपने आंतरिक विग्रहों के कारण गिरी तो उसके सबसे बड़े कारणों में समाजवादी ही थे | दोहरी सदस्यता जैसा विवाद उठाकर स्व. मधु लिमये ने जो  भूल की उसने  कांग्रेस को तो पुनर्जीवित किया ही ,  स्व. इंदिरा गांधी  पर लगे आपातकाल रूपी दाग को भी धो डाला | उसके बाद 1989 में गैर कांग्रेसी एकता का प्रयोग विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के तौर पर हुआ जिसे भाजपा और वामपंथी दोनों बाहर से समर्थन दे रहे थे | लेकिन वह भी बीच रास्ते  दम तोड़ बैठा | उसके बाद उ.प्र की राजनीति में मुलायम सिंह एक नए अवतार में उभरे और वह था उनके मुस्लिम परस्त होने का जिसके कारण उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा | अयोध्या जा रहे  कारसेवकों पर गोलियां चलाने का पाप जीवन भर उनके साथ चिपका रहा | हालाँकि बाबरी ढांचे के गिरने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांशीराम के साथ गठबंधन कर उन्होंने हिन्दू ध्रुवीकरण को नाकाम कर दिया लेकिन बसपा के साथ  उनकी दोस्ती ज्यादा नहीं चली और कांशीराम की उत्तराधिकारी  मायावती के साथ गेस्ट हाउस कांड के बाद तो दोनों जानी दुश्मन जैसे होकर रह गये | हालाँकि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा – बसपा फिर एक साथ आये परन्तु  तब तक मुलायम सिंह की स्थिति दयनीय हो चुकी थी |  2012 में भाई शिवपाल और अनुयायी आज़म खान की उपेक्षा कर उन्होंने अखिलेश को राजगद्दी पर बिठाने का जो निर्णय लिया उससे परिवार और पार्टी दोनों बिखराव का शिकार होकर रह गये | पिछले लोकसभा चुनाव में शारीरिक तौर पर अशक्त हो चुके नेताजी के लिए तब शर्मनाक स्थिति उत्पन्न हो गई जब मैनपुरी सीट पर  प्रचार हेतु मायावती उनके साथ मंच पर आकर बैठीं और भाषण दिया | लेकिन जिस तरह स्व. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन की कृपा से बिहार में उभरे लालू प्रसाद ने समाजवाद के नाम पर परिवारवाद को ताकतवर बनाया वही मुलायम सिंह ने उ.प्र में किया और उससे भी बड़ी बात ये कि डा. लोहिया की माला जपने वाले इन दोनों नेताओं ने समूची राजनीति जातिवाद को बढ़ावा देकर की | उसके लिए वे मुस्लिम तुष्टीकरण करने में भी  नहीं शरमाये जिसकी वजह से एम – वाई ( मुसलिम -  यादव ) नामक नया समीकरण पैदा हो गया | संयोग से उ.प्र सर्वाधिक लोकसभा सदस्यों के कारण राष्ट्रीय राजनीति में विशेष वजनदारी रखता है इसीलिये  चौध्र्री चरण सिंह , विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा चंद्रशेखर की तरह मुलायम सिंह ने भी प्रधानमंत्री बनने के लिए काफी हाथ पाँव चलाये लेकिन उसमें वे विफल रहे  | उनकी सबसे बड़ी  विशेषता ये थी कि राजनीतिक लाभ के लिए किसी भी हद तक चले जाते थे | अखिलेश ने उन्हें न सिर्फ भाइयों  अपितु करीबी दोस्तों से भी दूर कर दिया था | शिवापाल के अलावा अमर सिंह . बेनीप्रसाद वर्मा और आज़म खान तक नेताजी से छिटकते गये | एक ज़माना था जब उनके पुश्तैनी  कस्बे सैफई का जलवा लखनऊ से ज्यादा था | ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गांधी परिवार का गढ़ बने रहे रायबरेली और अमेठी में सैफई की तुलना में 10 फीसदी काम भी नहीं हुआ | सैफई महोत्सव में अमिताभ बच्चन और सलमान खान जैसे फ़िल्मी सितारे अमरसिंह के जरिये ही आया करते थे | अनिल अम्बानी जैसा घोर पूंजीपति सपा से राज्यसभा सदस्य बना  | जया बच्चन को राज्यसभा में भेजते रहना अमर  और मुलायम की जोड़ी का करिश्मा  था | सहारा समूह के संस्थापक सुब्रतो राय के साथ भी समाजवादी मुलायम की दांत काटी रोटी थी | कुश्ती के शौक़ीन मुलायम सिंह ने राजनीति के अखाड़े में हर उस दांव को आजमाया जो सत्ता तक पहुंचा सके | लेकिन इसी के चलते वे अपना मूल स्वरूप खो बैठे और समाजवादी पार्टी एक पारिवारिक कम्पनी में बदल गई | नतीजा भी वैसा ही हुआ और उनके जीवन के अंतिम दौर में शिवपाल ने अलग दल बना लिया | दूसरी पत्नी के पहले पति से पैदा हुए बेटे की पत्नी भाजपा में आ गई | यहाँ तक कि नेता जी के मजबूत गढ़  आजमगढ़ और रामपुर में भी उनकी पार्टी हार गयी | बावजूद इस सबके मुलायम सिंह  उ.प्र और  राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय मजबूती के साथ जमे रहे तो उसकी वजह उनका बेहद व्यवहारिक होना था जिसके कारण वे अवसर का लाभ उठा लेते थे | अटल जी के प्रधानमंत्री रहते प्रोफेसर अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने की पहल  करने वाले मुलायम सिंह दोबारा जब उनका नाम उछला तो  पलटी मार गए क्योंकि सोनिया गांधी किसी भी सूरत में उनको नहीं चाहती थी | कुल मिलाकर मुलायम सिंह विविधता और अनिश्चितताओं से भरे ऐसे व्यक्तित्व थे जो केवल और केवल राजनीति करते थे | इससे इतर सोचना उनके स्वभाव मे नहीं था | 2012 तक अपनी पार्टी के वे निर्विवाद नेता रहे लेकिन अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के  बाद धीरे – धीरे वे हाशिये पर धकेले जाने लगे थे | बीते तकरीबन दो साल से उनकी चर्चा केवल उनके स्वास्थ्य समाचारों के कारण होती रही |  उनके न रहने से उ.प्र की राजनीति में निश्चित रूप से खालीपन आएगा | सबसे बड़ी बात अखिलेश और शिवपाल के बीच तलवारें खिंचना तय  है | भले ही 1977 के बाद से वे कांग्रेस के प्रति पहले जैसे कठोर नहीं रहे लेकिन उनको इस बात का श्रेय तो दिया ही जा सकता है कि उन्होंने  मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में खींचकर कांग्रेस को उ.प्र में पूरी तरह अस्तित्वहीन कर दिया , अन्यथा इस राज्य में भाजपा इतनी मजबूत न हो पाती |

विनम्र श्रद्धांजलि |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

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