Monday 29 May 2023

जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में लोकसभा सीटें भी बढ़ना चाहिए



नये संसद भवन का बहुप्रतीक्षित लोकार्पण गत दिवस संपन्न हो गया | इसी के साथ इस बात की सुगबुगाहट भी शुरू हो गयी कि देश की जनसँख्या में हुई वृद्धि के  अनुपात में लोकसभा की सीटें बढ़ाई जाएँगी | इस बारे में ये जानकारी भी मिल रही है कि स्व. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में भी लोकसभा की सीटें बढ़ाये जाने की बात चली थी किन्तु उस समय दक्षिण के राज्य विरोध में खड़े हो गए क्योंकि उनको ये डर था कि जनसंख्या के मामले में चूंकि उत्तरी राज्य भारी पड़ते हैं लिहाजा लोकसभा का संतुलन बिगड़ जायेगा | श्रीमती गांधी ने इसीलिए उस प्रस्ताव को टाल दिया | उसके बाद से देश की जनसँख्या  काफी बढ़ चुकी है | अनेक छोटे राज्य भी बनाये गए और लोकसभा सीटों का  परिसीमन भी किया गया किन्तु उनकी संख्या बढ़ाने का जोखिम उठाने कोई सरकार तैयार नहीं हुई | इसके पीछे सबसे बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था । मौजूदा संसद में स्थानाभाव का बहाना भी बनाया जाता रहा | उस दृष्टि से  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने दूरंदेशी का परिचय देते हुए न सिर्फ नये संसद भवन की रूपरेखा तैयार की वरन  उसके साथ ही राष्ट्रीय राजधानी में स्थित केंद्र सरकार के समूचे प्रशासनिक ढांचे को एक ही जगह केंद्रित करने हेतु महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना तैयार करवाई , जिसमें सचिवालय के साथ ही प्रधानमंत्री निवास भी होगा। इसके पूरे हो जाने पर दिल्ली में यहां - वहां बिखरा केंद्र सरकार का तंत्र एक विशाल परिसर में सिमट जायेगा जिससे प्रशासनिक व्यवस्था के साथ ही निर्णय प्रक्रिया में तेजी आएगी। सुरक्षा संबंधी कारणों से भी ऐसा करना आवश्यक होता जा रहा था। इस बारे में उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार के अनेक दफ्तर दिल्ली में किराए के परिसर में होने से सरकार पर काफी बोझ पड़ता है। सेंट्रल विस्टा परियोजना दरअसल आने वाले 100 साल के लिए राष्ट्रीय राजधानी में प्रशासनिक जरूरतों के मद्देनजर बनाई गई है जिसके पहले चरण में संसद भवन का निर्माण रिकार्ड समय में पूरा किया गया। इसे लेकर राजनीतिक विवाद भी हो रहा है । लेकिन नए संसद भवन के शुभारंभ के बाद जो प्रतिक्रियाएं आईं उनसे इस भवन की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध हो रही  है। इसकी भव्यता तो अपनी जगह है ही किंतु इसमें जिन आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता है वे समय के साथ चलने की प्रधानमंत्री की सोच का प्रमाण है । लेकिन इस सबसे अलग हटकर लोकसभा में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक होने लायक सीटों की व्यवस्था से ये संकेत मिलने लगे हैं कि मोदी सरकार संसद के निर्वाचित सदन में सीटें बढ़ाने की कार्ययोजना बना रही है।  ये काम 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व होगा या बाद में , इस बारे में कुछ भी अधिकृत तौर पर नहीं कहा गया किंतु यदि ऐसा न करना होता तब कोरोना काल में भी नए संसद भवन का निर्माण युद्धस्तर पर न किया जाता। वैसे भी बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा के सदस्यों की संख्या में वृद्धि विकास के असंतुलन को दूर करने के लिए जरूरी लगने लगी है। देश के अनेक लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनके सांसद के लिए पूरे इलाके का दौरा और क्षेत्र विकास के लिए मिलने वाली निधि का न्यायोचित आवंटन करना बेहद कठिन होता है। कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या का फैलाव ज्यादा होने से भी समस्या आती है। यही सोचकर अनेक बड़े राज्यों का विभाजन करते हुए झारखंड, छत्तीसगढ़ , तेलंगाना और उत्तराखंड जैसे  छोटे राज्य बनाए गए। अतीत में पूर्वोत्तर में भी छोटे राज्यों का गठन विकास के असंतुलन को दूर करते हुए प्रशासनिक क्षमता बढ़ाने के लिए किया गया। विकास की दौड़ में छोटे राज्य जिस तेजी से आगे निकले  उसके कारण उस निर्णय की सार्थकता सिद्ध हो गई।  इसी आधार पर अब लोकसभा सीटों को  छोटा करते हुए उनकी संख्या बढ़ाए जाने पर विचार होना चाहिए। हालांकि इस बारे में दक्षिणी राज्यों की ओर से ऐतराज की खबरें भी सुनाई दे रही हैं । उन्हें डर है जनसंख्या के बल पर उ.प्र और बिहार में लोकसभा सीटें जिस मात्रा में  बढ़ेंगी उसकी वजह से राष्ट्रीय राजनीति का संतुलन पूरी तरह उत्तर भारत के हाथ चला जायेगा। हालांकि ये शंका इसलिए बेमानी है क्योंकि आज भी उक्त दोनों राज्यों में  लोकसभा की लगभग एक चौथाई सीटें हैं । राजनीतिक हल्कों में ये टिप्पणी अमूमन सुनाई देती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होकर जाता है । और ये बात सही भी है । पी.वी नरसिंहराव , एच. डी.देवगौड़ा , आई.के गुजराल और  डा.मनमोहन सिंह को छोड़कर शेष प्रधानमंत्री उ.प्र से ही बने। यहां तक कि स्व.अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को भी प्रधानमंत्री की कुर्सी उनके गृहराज्य की बजाय उ.प्र से लोकसभा सदस्य चुने जाने के बाद ही नसीब हुई । ज्यादा लोकसभा सदस्य होने से ही तो  प.बंगाल ,  महाराष्ट्र और तमिलनाडु लोकसभा में अपनी वजनदारी रखते हैं । इसलिए राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय भावना को परे रखकर सोचना होगा। यदि सदस्य संख्या बढ़ती है तो जितना जितना लाभ उ.प्र  और बिहार को होगा उसी अनुपात में दक्षिण या अन्य राज्यों में भी सांसद बढ़ेंगे। इससे भाजपा का लाभ होगा ये मान लेना भी सही नहीं है क्योंकि छोटे राज्य बनाने का श्रेय लेने के बाद भी उसको उन राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ी। दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले देश और इतने विशाल भूभाग को देखते हुए लोकसभा की सदस्य संख्या में आनुपातिक वृद्धि समयोचित होगी । जनहित की दृष्टि से देखें तो छोटा क्षेत्र और कम मतदाता होने से सांसद भी सतत संपर्क और  बेहतर सेवाएं दे सकेंगे। ये कार्य कब होगा ये फिलहाल कह पाना मुश्किल है क्योंकि लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया 10 - 11 माह बाद शुरू हो जायेगी। लेकिन प्रधानमंत्री की कार्यशैली जिस तरह की रही है उसे देखते हुए चौंकाने वाले तत्संबंधी निर्णय की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। लोकसभा का बड़ा सदन बनाने के पीछे श्री मोदी की सोच निश्चित ही किसी कार्ययोजना का हिस्सा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 



 

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