Friday 12 May 2023

फैसला हुआ भी और नहीं भी



सर्वोच्च न्यायालय ने गत वर्ष  महाराष्ट्र में हुए सत्ता परिवर्तन पर जो  फैसला दिया वह कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें राज्यपाल और विधानसभा के स्पीकर की शक्तियों और आचरण पर साफ़ – साफ टिप्पणियाँ करते हुए कहा गया है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सदन  में बहुमत साबित करने का निर्देश देकर राज्यपाल ने गलत किया क्योंकि शिवसेना के बागी विधायकों ने ऐसा कोई अनुरोध उनसे नहीं किया था | इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने स्पीकर द्वारा बागी गुट की ओर से नया सचेतक नियुक्त किये जाने को भी नियम विरुद्ध बताते हुए कहा कि ये परिवर्तन करने का अधिकार भी शिवसेना के अविभाजित गुट के पास ही था | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 16 शिवसेना  विधायकों की योग्यता संबंधी उद्धव गुट की अर्जी का फैसला करने का निर्देश स्पीकर को देते हुए कहा कि उनके अधिकारों पर फैसला करने का निर्णय पांच सदस्यीय संविधान पीठ के लिए संभव नहीं है इसलिए उसे सात सदस्यों वाली बड़ी पीठ को अग्रेषित किया जा रहा है , जो निश्चित समय सीमा के भीतर अपना  फैसला सुनाएगी | मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली उक्त पीठ ने पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे द्वारा उनकी सरकार की बहाली की अर्जी को ये कहते हुए रद्द कर दिया कि चूंकि उन्होंने खुद होकर अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया था इसलिए उनको बहाल किया जाना असंभव है | इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जो कुछ भी कहा वह कानून की व्याख्या के साथ बौद्धिक महत्व तक सीमित होकर रह गया | गौरतलब है इस फैसले का महाराष्ट्र की राजनीति पर गहरा असर होने की संभावना राष्ट्रीय स्तर तक व्यक्त की जा रही थी | शरद पवार की पार्टी एनसीपी में हुई उठापटक को भी इसी से जुड़ा माना जा रहा था | श्री पवार के भतीजे अजीत को एकनाथ शिंदे का विकल्प बनाने की बात भी राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा का विषय बनी रही | शरद पवार द्वारा पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिए जाने के बाद तो उनका और भाजपा का गठबंधन होने की अटकलें भी हवा में तैरने लगीं | लेकिन गत दिवस आये फैसले के बाद उन सब पर फ़िलहाल विराम लग गया है | एकनाथ शिंदे सरकार के भविष्य पर मंडरा रहा खतरा भी सात सदस्यों वाली बड़ी पीठ के फैसले तक तो टल ही गया है | उसके पहले स्पीकर 16 विधायकों की योग्यता पर क्या फैसला लेते हैं ये देखने वाली बात होगी क्योंकि वे इसे कब तक लंबित रखें इसे लेकर कोई समय सीमा तय नहीं की गई है | बहरहाल इस फैसले में एक बात अजीब है कि गत वर्ष राज्यपाल द्वारा जब उद्धव ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने कहा गया था तब राजभवन के उस फैसले पर रोक लगाने की अर्जी सर्वोच्च न्यायालय ने ही ठुकरा दी थी । जबकि गत दिवस आये निर्णय में राज्यपाल के निर्णय को गलत ठहराया गया है | लेकिन सबसे बड़ी बात 16 बागी विधायकों की अयोग्यता से सम्बंधित थी जिस पर संविधान पीठ ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ तो कीं किन्तु अध्यक्ष के अधिकारों सबंधी निर्णय करने में खुद को अक्षम मानते हुए सात सदस्यों की पीठ को अंतिम फैसला करने हेतु भेजे जाने से ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि जब पांच सदस्यों वाली पीठ ने अध्यक्ष के निर्णयों को गलत ठहरा दिया तो फिर उसे 16 सदस्यों वाले मामले में भी अपना मत देना चाहिए था | यदि उसे लग रहा था कि पांच सदस्यों वाली पीठ की सीमायें हैं तब पहले ही बड़ी पीठ के समक्ष सुनवाई होती जिससे इस समूचे मामले में अभी भी जो अनिश्चितता बनी हुए है वह खत्म हो सकती थी | इस मामले में राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो कटाक्ष किये उनका महत्व इसलिए नहीं रह गया क्योंकि संविधान पीठ ने जो कुछ भी कहा उसका तात्कालिक नतीजा तो कुछ निकला ही नहीं | आगामी वर्ष वैसे भी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं | ऐसे में यदि सात सदस्य  वाली पीठ ने भी लम्बा समय लिया तब इस मामले का किताबी महत्व ही रह जाएगा | ऐसा ही 1992 में बाबरी ढांचा टूटने के बाद  भाजपा की राज्य सरकारों को भंग करने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लेकर हुआ था जिसमें म.प्र .की पटवा सरकार की बर्खास्तगी को अवैध ठहराया गया था । लेकिन तब तक अगला चुनाव भी हो चुका था | बेहतर हो न्यायपालिका ऐसे प्रकरणों में समय की नजाकत को भी समझा करे अन्यथा उसके फैसले होकर भी न हुए जैसे रह जायेंगे | महाराष्ट्र संबंधी ताजा फैसले के साथ भी ऐसा ही है |


-रवीन्द्र वाजपेयी 

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