Saturday 27 May 2023

केंद्र से नीतिगत मतभेद ठीक लेकिन नीति आयोग से खुन्नस बेमानी



आज दिल्ली में नीति आयोग के गवर्निंग बोर्ड की आठवीं बैठक आयोजित की गयी जिसकी थीम विकसित भारत 2047 टीम इण्डिया की भूमिका है | प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हो रही इस बैठक में हुए विचार – विमर्श की जानकारी तो बाद में आयेगी किन्तु आजादी के 100 वर्ष पूर्ण होने पर  देश को विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनाने की महत्वाकाँक्षी कार्य योजना तैयार करने के लिए नीति आयोग जो दृष्टिपत्र तैयार कर रहा है उसमें राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका भी आवश्यक है ।  संघीय ढांचे की कल्पना को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के प्रत्येक हिस्से तक विकास की रोशनी बराबरी से पहुंचे | उस दृष्टि से आज हुई  बैठक में  कुछ मुख्यमंत्रियों का गैर हाज़िर रहना चिंता का विषय है | ममता बैनर्जी , नीतीश कुमार , के चंद्रशेखर राव , अरविन्द केजरीवाल ,भगवंत सिंह मान , अशोक गहलोत , पी विजयन  और स्टालिन ने इस बैठक से दूरी बनाने के पीछे हालांकि अलग - अलग कारण बताए हैं किंतु कुल मिलाकर जो बात समझ में आती है वह है प्रधानमंत्री से इन नेताओं की निजी खुन्नस। आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो श्री मोदी को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी की वजह खुलकर बता दी किंतु बाकी के या तो मौन हैं या इधर उधर की बातें कर रहे हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में श्री गहलोत अनुपस्थित हैं किंतु भूपेश बघेल और सुखविंदर सिंह सुक्खू शामिल हुए। सिद्धारमैया को लेकर अनिश्चितता रही। बहरहाल ये तय है कि  उक्त सभी की अनुपस्थिति के पीछे राजनीतिक कारण हैं। नीतीश ने तो इसे नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ जोड़ दिया है। राजनीतिक तौर पर प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार के साथ राज्यों के मतभेद  स्वाभाविक हैं । भारत जैसे बहुदलीय देश में शुरू से ही इसकी छूट रही है। ये वो देश है जहां  विश्व में लोकतंत्रिक पद्धति से चुनी हुई पहली साम्यवादी राज्य सरकार केरल में 1957 में बनी थी। 1967 और फिर 1977 के बाद से  केंद्र में बैठी पार्टी से मतभिन्नता रखने वाली राज्य  सरकारें आती - जाती रहीं। प.बंगाल में तो तकरीबन चार दशक तक वाममोर्चा सत्ता पर काबिज रहा। इसी तरह तमिलनाडु में 1967 से द्रविड़ मूल की दो पार्टियों का वर्चस्व बना हुआ है। जम्मू कश्मीर में भी उन क्षेत्रीय दलों का दबदबा है जो कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन करते आए हैं । कहने का आशय ये है कि राजनीतिक एकाधिकारवाद की कल्पना को भारत ने अपनी राजनीतिक संस्कृति  में जगह नहीं दी जिसकी वजह से संघीय ढांचा खड़ा रहा। लेकिन बीते कुछ समय से ऐसा लगने लगा है जैसे केंद्र और राज्य में  अलग विचारधारा की पार्टी का शासन दुश्मनी का रूप लेता जा रहा है। प्रधानमंत्री के तेलंगाना  आने पर मुख्यमंत्री का स्वागत हेतु न पहुंचना और कोलकाता में श्री मोदी की बैठक में ममता का देर से आने के बाद जरूरी काम का बहाना बनाकर उठ जाना , इस बात के  प्रमाण हैं कि राजनीतिक रस्साकशी में सौजन्यता और शिष्टाचार को भी तिलांजलि दी जाने लगी है। नए संसद भवन के शुभारंभ को सियासी शक्ल देकर उससे दूर रहने की घोषणा के बाद नीति आयोग की इस महत्वपूर्ण बैठक से गैर हाजिर रहना संबंधित मुख्यमंत्रियों के लिहाज से बहुत ही गैर जिम्मेदाराना आचरण है। इस बैठक में देश के विकास के बारे में गंभीर चिंतन होना है। आने वाले ढाई दशक के भीतर भारत किस तरह से दुनिया का सिरमौर बनकर आर्थिक महाशक्ति बने और उसके बारे में सभी मुख्यमंत्री अपनी राय व्यक्त करते हुए एक समन्वित कार्ययोजना बनाएं ये देशहित में है। जिस तरह जीएसटी कौंसिल  में सभी राज्य मिलकर फैसले लेते हैं वैसा ही नीति आयोग में होना चाहिए। नीति आयोग  देश में ढांचागत विकास के साथ ही आर्थिक और औद्योगिक विकास की संभावनाएं तलाशकर उन्हें जमीन पर उतारने का  भागीरथी प्रयास कर रहा है। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ इसके साथ जोड़े गए हैं जो बिना किसी प्रचार के देश के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। उनका किसी राजनीतिक विचारधारा से कोई लगाव या दुराव नहीं  है। उन्होंने जो विचार सूची आज की बैठक हेतु तैयार की वह पूरे देश के भले के लिए है  न कि भाजपा या प्रधानमंत्री के । ऐसे में जिन मुख्यमंत्रियों ने किसी भी कारणवश इस बैठक का बहिष्कार किया वे अपने राज्य के विकास के प्रति उदासीन ही कहे जायेंगे। राजनीतिक मतभेद प्रजातंत्र को चैतन्य बनाए जाने के लिए मूलभूत आवश्यकता हैं लेकिन जब बात देश और उसके विकास की हो तब कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का नारा गूंजना चाहिए। उस दृष्टि से आज जो हुआ  ,  वह शुभ संकेत नहीं है। प्रधानमंत्री से नीतिगत मतभेदों को लेकर लड़ने के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव भरपूर अवसर सभी दलों को प्रदान करेगा । लेकिन नीति आयोग को राजनीति का अखाड़ा बनाकर गैर हाजिर रहे  मुख्यमंत्रियों ने जिस रवैए का परिचय दिया वह उनकी अपरिपक्वता को दर्शाता है। बैठक में हुए किसी निर्णय से असहमति जताने का अवसर और अधिकार भी उन्होंने अपनी अनुपस्थिति से खो दिया।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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