Saturday 19 February 2022

खालिस्तानी आतंक की आहट को अनसुना करना खतरे से खाली नहीं होगा




किसान आन्दोलन के दौरान खालिस्तान समर्थक पोस्टर और भिंडरावाले की तस्वीर वाली कमीज पहिने सिख नवयुवकों के दिखाई देने पर किसी षडयंत्र की आशंका व्यक्त की गई तब उसे आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश बताया गया। यद्यपि बाद में अनेक ऐसी घटनाएँ धरनास्थल पर हुईं जिनसे आन्दोलन के संचालक भी अपराधबोध से ग्रसित तो हुए लेकिन तब तक आन्दोलन पर पंजाब का इतना प्रभाव हो चुका था कि गैर पंजाबी नेता जुबान खोलने की जुर्रत नहीं कर पाए। गत वर्ष गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के लाल किले पर जिस तरह की देश विरोधी गतिविधियाँ हुईं उन पर भले ही योगेन्द्र यादव ने खेद जताया हो लेकिन राकेश टिकैत ने उसके पीछे भी रास्वसंघ और भाजपा का हाथ होने की बात कहकर निंदा करने से परहेज किया। लाल किले पर एक धार्मिक ध्वज फहराए जाने के साथ ही निहंग द्वारा शस्त्र प्रदर्शन का किसान आन्दोलन से क्या सम्बन्ध था ये सवाल उस समय हर देशप्रेमी के मन में उठा। उल्लेखनीय है लाल किले में सेना की टुकड़ी भी रहती है। लेकिन सुरक्षा बलों ने सूझबूझ का परिचय दिया अन्यथा ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार की पुनरावृत्ति हो जाती जो उपद्रवी चाहते भी थे। जिन लोगों ने लाल किले की पवित्रता भंग की उन्हें सिख संगठनों ने सम्मानित भी किया। इन सबसे खालिस्तान समर्थकों का हौसला और बुलंद हुआ जिसका प्रमाण आन्दोलन स्थल पर निहंगों द्वारा की गयी हत्या के अलावा पंजाब में अनेक जगहों पर हुई हिंसक घटनाओं से मिला। ये भी उल्लेखनीय है कि उस आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में खालिस्तान समर्थक सिख संगठनों ने भी भारत विरोधी नारों के साथ जुलूस निकाले। दिल्ली में धरना स्थल पर लंगर सहित अन्य व्यवस्थाओं में भी विदेशी धन की बात उठती रही। आन्दोलन तो जैसे-तैसे खत्म हो गया किन्तु उसकी आड़ में खालिस्तानी आन्दोलन के दबे पड़े बीज फिर अंकुरित हो उठे। पंजाब में कल मतदान होने वाला है। कुछ दिन पहले ही पंजाबी गायक दीप सिद्धू की सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद उसके अंतिम संस्कार के समय खालिस्तान के पक्ष में जमकर नारेबाजी की गई जिसका वीडियो प्रसारित हो रहा है। उल्लेखनीय है दीप सिद्धू लाल किले पर की गई देश विरोधी हरकत में आरोपी होने के बाद जमानत पर था। मतदान के दो-तीन दिन पहले प्रख्यात कवि डा. कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तान समर्थक होने का आरोप लगाकर उन्हें सार्वजानिक बहस की जो चुनौती दी उससे भी ये लगता है कि पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियाँ आकार लेती जा रही हैं। बीते दिनों राज्य के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी ने कांग्रेस महामंत्री प्रियंका वाड्रा के सामने ही पंजाबियों से एक होकर उ.प्र और बिहार के भैया लोगों को बाहर निकालने का जो आह्वान किया उसने भी अलगाववादी ताकतों का मनोबल बढ़ाया है। दुर्भाग्य इस बात का है कि कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल ने श्री चन्नी के उक्त बयान पर एक शब्द तक नहीं कहा। हालाँकि अकाली दल के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल ने अवश्य मुख्यमंत्री के विरोध में टिप्पणी की है लेकिन किसान आन्दोलन के दौरान उन्होंने भी अपना पद्म पुरस्कार लौटाकर अलगाववादी भावनाओं को बल प्रदान किया था। पंजाब आकार में भले छोटा हो लकिन उसकी भौगोलिक स्थिति बेहद संवेदनशील है। पाकिस्तान से उसकी सीमा का सटा होना उस पार से आतंकवाद के आने में सहायक बन जाता है। अस्सी के दशक में खालिस्तानी आतंक का जो दौर चला उसका संचालन पाकिस्तान से होता रहा ये किसी से छिपा नहीं है। दरअसल 1971 में बांग्ला देश बन जाने के बाद पाकिस्तान के फौजी राष्ट्रपति जिया उल हक ने इस बात को महसूस किया कि भारत को सैन्य मोर्चे पर हारा पाना नामुमकिन है। अत: उन्होंने युद्ध का छद्म तरीका निकालकर आतंकवाद रूपी हथियार का इस्तेमाल करते हुए पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन खड़ा कर दिया। अपराधी किस्म के सिख युवकों को पाकिस्तान में विधिवत प्रशिक्षण देकर हिंसक घटनाओं के जरिये पंजाब को भारत से अलग कर बांगला देश का बदला लेने की रणनीति के अंतर्गत जो कुछ किया गया वह खुला इतिहास है। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के अलावा प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी और उसके भी दो वर्ष बाद सेवा निवृत्त थल सेनाध्यक्ष जनरल अरुण कुमार वैद्य की हत्या खालिस्तानी आतंक का ही नतीजा थीं। पंजाब केसरी के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या भी केवल इसलिए की गई क्योंकि वे खालिस्तान की मांग के विरुद्ध कलम चलाते थे। बाद में राजीव गांधी के दौर में संत लोंगोवाल के साथ हुए समझौते से राजनीतिक प्रक्रिया के जरिये हालात सुधारने का प्रयास हुआ जो काफी हद तक सफल भी रहा। लेकिन इसके पीछे पंजाब के लोगों का भी कम योगदान नहीं था जिन्होंने धार्मिक भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को महत्व दिया। जब पाकिस्तान का वह दांव विफल होने लगा तब उसने अपनी कार्ययोजना का रुख कश्मीर की ओर मोड़ दिया। और इस तरह पंजाब में आतंकवाद की साँसे टूटते ही कश्मीर में उसकी शुरुवात हो गई। उसके बाद का घटनाक्रम सर्वविदित है। कश्मीर घाटी से हिन्दुओं पलायन करने के लिए मजबूर करना बहुत ही सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। पाकिस्तान ये जान चुका था कि पंजाब में सिखों के साथ रहने वाले हिंदुओं की वजह से उसके मंसूबे सफल नहीं हो सके। दोनों समुदायों के बीच ऐतिहासिक समरसता की वजह से रोटी-बेटी की रिश्ते बने हुए थे। गुरुद्वारों में हिन्दू और मंदिरों में सिखों की मौजूदगी इसका प्रमाण है। इसीलिये पाकिस्तान ने जब कश्मीर में अपनी बिसात बिछाई तब हिन्दुओं को घाटी से बाहर करवाने का दांव चला जिससे कश्मीर के मुसलमानों को अपने साथ खींच सके। वह अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब भी हो चला था लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार ने बड़ी ही चतुराई से धारा 370 खत्म करते हुए अलगाववाद की कमर तोड़ दी। उसी के बाद एक बार फिर पाकिस्तान ने पंजाब में अपना जाल बिछाने की योजना बनाई जिसे वहां के कुछ राजनेताओं की मूर्खता के साथ ही किसान आन्दोलन के कारण अनुकूल परिस्थितियाँ मिल गईं। चूंकि बीते एक-डेढ़ साल से पंजाब में चुनाव की सरगर्मी शुरू हो चुकी थी इसलिए सत्ता की चाहत में अनेक राजनेताओं ने जाने-अनजाने अलगाववादी ताकतों को सहायता देने की गलती कर डाली। कृषि कानूनों के नाम पर भाजपा और अकाली दल का गठबंधन टूटने से भी अलगवावाद के प्रवर्तकों को आसानी हुई। ऐसे में पंजाब के चुनाव परिणाम राजनीतिक मुकाबले तक सीमित न रहकर देश की अखंडता से जुड़ा मुद्दा बन गये हैं। डा. विश्वास द्वारा श्री केजरीवाल के खालिस्तान समर्थकों के साथ सम्बन्ध होने के आरोप और मुख्यमंत्री श्री चन्नी द्वारा पंजाबियों से उ.प्र और बिहार के भैयों को बाहर निकालने की अपील के अलावा दीप सिद्धू की अंत्येष्टि में खालिस्तान समर्थक नारों को टुकड़ों में देखने के बजाय समग्र रूप से देखा जाना चाहिए क्योंकि पंजाब में अब प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन अमरिंदर सिंह वाली पीढ़ी राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होने के कगार पर है। कांग्रेस और अकाली दल में दूसरी पंक्ति के किसी भी नेता का प्रभाव पूरे राज्य में नहीं है। भाजपा इस चुनाव में पहली बार अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रही है। वहीं आम आदमी पार्टी इसी राजनीतिक शून्य का लाभ लेने की फिराक में है। लेकिन प्रारंभ में किसान आन्दोलन के इर्द-गिर्द घूमते चुनाव के आखिऱी दौर में खालिस्तानी आतंक की आहट जिस तरह सुनाई देने लगी है उसे नजरंदाज करना बहुत बड़ी भूल होगी। चुनाव तो हो जायेंगे किन्तु पंजाब के भविष्य पर मंडरा रहे खतरे का सही समय पर आकलन करते हुए उससे बचाव का माकूल इन्तजाम न किया गया तो फिर देश को कश्मीर घाटी जैसे हालातों का सामना करने तैयार हो जाना चाहिए। दु:ख की बात ये है कि हमारे देश की राजनीति पूरी तरह सत्ता केन्द्रित होकर रह गई है जिसकी वजह से राष्ट्रीय महत्व के सवालों को अनसुलझा छोड़कर येन-केन-प्रकारेण वोटों की फसल काटने में अधिकतर पार्टियाँ और उनके नेता लगे रहते हैं। कश्मीर घाटी में दम तोड़ते आतंकवाद के बाद पाकिस्तान ने जिस तत्परता से खालिस्तानी भावनाओं को नये सिरे से पनपाया, उसका प्रतिकार राजनीतिक सोच से ऊपर उठकर करना जरूरी है। इसके पहले कि हालात नियन्त्रण से बाहर हो जाएँ, इस षडयंत्र को सख्ती से कुचलना होगा क्योंकि पिछले खालिस्तानी आन्दोलन की जो कीमत देश को चुकाना पड़ी उसकी स्मृतियाँ अभी भी दिल दहला देती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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