Saturday 26 February 2022

अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान को मरवाया और अब यूक्रेन को



1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तब रूस निरीह अवस्था में था | जनता बेसहारा होकर रह गई थी | साम्यवादी शासन के अंतर्गत जीवन यापन के लिए की गई व्यवस्था एक झटके में चरमरा गई | खाली जेब लोग अपने कुत्ते – बिल्ली तक बेचने तैयार हो गये | दुनिया का बड़े शक्ति केंद्र रहे देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या थी कि रूसी युवतियां नाईट क्लबों में डांसर बनकर दुनिया के अनेक देशों में जाकर वेश्यावृत्ति करने से भी नहीं हिचकीं | धीरे – धीरे  हालात सुधरे और आर्थिक मोर्चे के साथ  ही कूटनीतिक और सैन्य लिहाज से रूस ने विश्व बिरादरी में दोबारा अपनी जगह बना ली | साम्यवादी दौर की जकड़न से निकली आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन होने से रूस के दरवाजे दुनिया के लिए खुल गए | एक समय  तो ऐसा आया जब  लगा कि अमेरिका और रूस दोनों के बीच शत्रुता और अविश्वास समाप्त हो चला है और  वे  दुनिया को  शांतिपूर्ण विकास हेतु सहायता देने प्रयासरत हैं | लेकिन जबसे रूस में पुतिन युग प्रारम्भ हुआ और उन्होंने अपनी पकड़ मजबूत की तभी से वह पुरानी ठसक में लौटता दिखने लगा , जिसका ताजा प्रमाण यूक्रेन  पर किया गया हमला है | पुतिन भले ही कह  रहे हैं कि रूस यूक्रेन पर कब्जा नहीं करना चाहता  किन्तु उनके इरादे किसी से छिपे नहीं हैं | लेकिन इस मामले में सबसे हास्यास्पद  स्थिति हो गई अमेरिका की , जिसके बलबूते यूक्रेन ने रूस जैसी बड़ी शक्ति से टकराने का दुस्साहस तो कर लिया किन्तु जब  जरूरत पड़ी तब अमेरिका और  उसके साथी देश  कन्नी काट गये | उधर संरासंघ में हमले  के विरुद्ध आये प्रस्ताव को रूस ने वीटो कर दिया | इस संकट की वजह नाटो नामक सैन्य संधि से यूक्रेन के जुड़ने की सम्भावना को माना जाता है , जिस पर रूस को  सख्त ऐतराज था | दूसरी तरफ अमेरिका और उसके साथी रूस को  चेतावनी देते रहे कि वह यूक्रेन को दबाने की जुर्रत न करे , अन्यथा वे उसके साथ खड़े होंगे | लेकिन जब रूस ने उस  पर विधिवत हमला कर दिया तब अमेरिका और नाटो के अन्य सदस्य ये कहते हुए दूर खड़े रहे  कि यूक्रेन इस संधि से जुड़ा नहीं है | गत दिवस यूक्रेन के राष्ट्रपति ने जिस कातर भाव से अमेरिकी रुख पर तंज कसा उसने इस विश्व महाशक्ति की धाक और साख दोनों मिट्टी में मिला दिए | इस बारे में याद रखने वाली बात ये है कि सोवियत संघ से अलग होते समय यूक्रेन के पास परमाणु अस्त्र थे किन्तु अमेरिका के दबाव में उसने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद उनको धीरे – धीरे नष्ट कर दिया | यदि उसने ऐसा न किया होता तब रूस शायद ही उसकी गर्दन दबोचने की हिमाकत कर पाता | यूक्रेन का हश्र क्या होगा , ये फ़िलहाल कह पाना कठिन है क्योंकि वास्तविक स्थिति स्पष्ट नहीं है | हालाँकि रूस बहुत भारी साबित हो रहा है और उसने यूक्रेन को तीन तरफ से घेर रखा है | कहते हैं राजधानी कीव तक रूसी फौजी आ चुके हैं | राष्ट्रपति के आह्वान पर जनता रूसियों से जूझने की हिम्मत भी दिखा रही है | पुतिन ये तो समझ रहे हैं कि यूक्रेन पर कब्जा करना उनके लिए उसी तरह नुकसानदायक  होगा जैसा सद्दाम हुसैन को कुवैत कब्जाने पर झेलना पडा था | इसीलिये उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि रूस केवल सत्ता पलटने में रूचि रखता है |  लेकिन असलियत ये है कि वे  वहां कठपुतली सरकार स्थापित करने की कोशिश में है | यद्यपि  अमेरिका के साथ जुड़े तमाम देशों द्वारा  रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए जाने  के दूरगामी नतीजों से भी  पुतिन अनभिज्ञ नहीं हैं | और इसीलिये उन्होंने  कब्जा न करने जैसी बात कही , क्योंकि जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार यूक्रेन में भी रूसी हमले के विरुद्ध जनता खड़ी हो रही है | पोलेंड ने भी युद्ध सामग्री यूक्रेन भेजना शुरू कर  दिया है | हालाँकि अभी  ये साफ़ नहीं है कि  इसके पीछे अमेरिका का हाथ हैं या नहीं लेकिन यदि ये मुहिम जारी रही तब जैसी कि आशंका शुरू से ही है ,  यूक्रेन दूसरा अफगानिस्तान बने बिना नहीं रहेगा | हो सकता है अमेरिका ने सीधे टकराने की बजाय ये विकल्प चुना हो जिससे वह रूस को लम्बे युद्ध में उलझाकर यूक्रेन में ही फंसाए रखे | वैसे  पुतिन भी अफगानिस्तान में रूसी दखल की कटु स्मृतियों से भली – भाँत्ति अवगत हैं किन्तु जिस मकसद से उन्होंने ये जोखिम मोल लिया उसे पूरा किये  बिना यूक्रेन छोड़ना  उनके लिए आत्मघाती होगा | हालात  इस हद तक  अनिश्चित हैं  कि अगले पल क्या होगा ये किसी को समझ में नहीं आ रहा किन्तु ये स्पष्ट  है कि यूक्रेन एक बार फिर रूसी हड़प नीति का शिकार हो गया | यदि पुतिन वहां कठपुतली सरकार बिठाने में सफल होते हैं तब वह रूसी उपनिवेश बनकर  रह जायेगा किन्तु लड़ाई लम्बी चली तो भी गृहयुद्ध की आग में जलने मजबूर होगा | भारतीय संदर्भ में देखें तो इस विवाद से  एक बात साफ़ हो गई कि  महाशक्तियाँ केवल अपने फायदे और नुकसान के बारे में ही सोचती हैं | ऐसे में किसी भी देश को उन पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए | अफगानिस्तान से जिस तरह अमेरिका हटा वह इसका प्रमाण है | कुछ दशक पूर्व रूस भी वहां अपने समर्थकों को तालिबानी आततायियों के सामने मरने छोड़ आया था | सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त अलग हुए देशों के आर्थिक विकास के प्रति भी अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों का  सहयोगात्मक रवैया रहा हो ऐसा नहीं दिखा जबकि उनमें से कुछ ने नाटो की सदस्यता भी ले ली थी | रही बात रूस की तो वह अभी तक सोवियत संघ से अलग हुए देशों को अपनी मर्जी से हांकने की इच्छा  छोड़ नहीं पा रहा | लेकिन यूक्रेन में उसने जो किया और उस पर अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने  जिस दोगलेपन का परिचय दिया उससे भारत जैसे देशों को ये समझ  लेना चाहिए कि अपनी सुरक्षा के लिए खुद सक्षम होना जरूरी है | 2020 की गर्मियों में चीन द्वारा लद्दाख अंचल की गलवान घाटी को हथियाने का जो प्रयास किया गया उसे भारत ने अपने सैन्यबल पर ही न सिर्फ निष्फल किया अपितु बड़ी सख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराने के साथ ही अग्रिम मोर्चे पर जबरदस्त मोर्चेबंदी करते हुए  ये एहसास करवा दिया कि भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने के लिए किसी बड़ी शक्ति का मोहताज नहीं है | दुर्भाग्य से सोवियत संघ से अलग होने के बाद यूक्रेन ने अमेरिका के फुसलाने पर अपने परमाणु अस्त्र तो नष्ट कर दिए किन्तु रूस के विस्तारवादी इरादों को जानने के बावजूद  अपने रक्षातन्त्र को अपेक्षित मजबूती नहीं दी | इस संकट के दौरान भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान रखकर जो नीति अपनाई वह पूरी तरह सही है | अमेरिका भले ही इससे कुछ समय तक नाराज  नजर आये लेकिन वैश्विक परिदृश्य में वह इस स्थिति में आ चुका है कि अपना रास्ता स्वतंत्र होकर चुन सके | यही कारण है कि दोनों महाशक्तियाँ भारत का समर्थन पाने लालायित नजर आ रही हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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