Monday 14 February 2022

बुआ-भतीजे के विवाद से एक और पारिवारिक दल में बिखराव के संकेत




ऐसा लगता है क्षेत्रीय दल और टूटन समानार्थी शब्द बन गये हैं। आजादी के बाद कांग्रेस से निकले अनेक नेताओं ने अपनी पार्टियाँ बनाईं।   डा. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी, जैसे नेताओं ने समाजवादी आन्दोलन को मुख्यधारा की राजनीति बनाने की भरपूर कोशिश की।  डा. लोहिया ने ही आगे चलकर  देश को गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया जिसके परिणामस्वरूप 1967 और उसके बाद अनेक  राज्यों में संविद सरकारें बनीं जिनमें परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दल भी शामिल हुए। यद्यपि उनमें से अधिकतर कांग्रेस से टूटकर ही बने थे किन्तु दक्षिणपंथी जनसंघ और वामपंथी साम्यवादी भी उन सरकारों के हिस्से बने। हालाँकि वह प्रयोग लंबे समय तक न चल सका क्योंकि नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं के कारण वे सरकारें जैसे आईं, वैसे ही चली भी गईं तथा कांग्रेस से बगावत करने वाले अनेक नेता घर लौट गये। लेकिन उस प्रयोग से क्षेत्रीय दलों का दौर जरूर प्रारंभ हुआ जिसने देश में कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के पीछे भी गैर कांग्रेसवाद के नारे की महती भूमिका रही। जिसका प्रमाण जनता पार्टी थी जिसमें तमाम वे दल शामिल हुए जो संविद सरकार में साथ-साथ काम करने के बाद अलग हो चले थे। लेकिन इस कारण जो क्षेत्रीय नेता उभरे उन्होंने राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय अपने राज्य की भाषा और जातीय समीकरणों को वोटों की राजनीति की तरफ मोड़कर नए-नए दल बनाते हुए क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्रीय राजनीति के समानांतर खड़ा कर दिया। चौधरी चरण सिंह के अलावा बीजू पटनायक, अन्ना दोरई, कर्पूरी ठाकुर और बंगाल में वामपंथी दलों ने क्षेत्रीय पहिचान के बलबूते दिल्ली के वर्चस्व को चुनौती देना शुरू किया जो बड़े राजनीतिक बदलाव का कारण तो बना परंतु उसके कारण राष्ट्रीय राजनीति पर क्षेत्रीय मुद्दे हावी होने लगे। धीरे-धीरे वे क्षेत्रीय दल पहले कुछ नेताओं के गुट और फिर किसी एक परिवार के शिकंजे में आ गये। सबसे अधिक बिखराव हुआ लोहिया जी के अनुयायियों का जो अपने राजनीतिक गुरु के जाति तोड़ो नारे को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए जातियों के समूह एकत्र कर सत्ता की सीढ़ियों पर चढऩे का कारनामा दिखाने लगे। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले अनेक राजनीतिक नेताओं ने अपनी पार्टियां बनाईं तो नीतिगत मतभेदों के नाम पर लेकिन जल्द ही वे भी पारिवारिक संपत्ति में तब्दील हो गईं। पूरे देश पर नजर डालें तो तमिलनाडु में द्रमुक आन्दोलन की दोनों पार्टियाँ परिवार रूपी कुनबे में बदल गईं। आंध्र में तेलुगुदेशम का भी वही हुआ। वर्तमान में आंध्र और तेलंगाना में जो क्षेत्रीय पार्टियाँ शासन में हैं वे भी पारिवारिक दायरे में सीमित हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और रांकापा दोनों पर परिवार का कब्ज़ा है। इसी तरह दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर परिवार न सही लेकिन एक व्यक्ति का आधिपत्य है। पंजाब में अकाली दल, हरियाणा में इनेलो, बिहार में राजद, उ.प्र में सपा, बसपा और रालोद सभी परिवार के शिकंजे में हैं। कुछ छोटे जाति आधारित दल भी हैं जो पूरी तरह परिवार आधारित हैं। यही वजह है कि जब भी उनकी अंतर्कलह सामने आती है तो उसके पीछे का कारण पारिवारिक विरासत और उत्तराधिकार ही होता है। उ.प्र में सपा के भीतर का झगड़ा बीते पांच साल से लगातार चला आ रहा है। जिसमें पहले अखिलेश का चाचा शिवपाल से विवाद हुआ और हाल ही उनके सौतेले भाई की पत्नी भाजपा में आ गईं। अपना दल नामक छोटे से दल में भी माँ कृष्णा और बेटी अनुप्रिया के बीच मतभेद में पार्टी दो फाड़ हो चुकी है वहीं बिहार में लालू के दोनों बेटे एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंकते घूम रहे हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार की बेटी सुप्रिया और भतीजे अजीत में रस्साकशी चला करती है। द्रमुक में स्टालिन और उनके बड़े भाई अलागिरी की राहें अलग हो चुकी हैं। अब ताजा विवाद सामने आया है तृणमूल कांग्रेस का जो वैसे तो ममता बैनर्जी और उनके राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की बीच बताया जा रहा है परन्तु सच्चाई ये है कि सुश्री बैनर्जी की अपने सांसद भतीजे अभिषेक बैनर्जी से अनबन हो गई है। विवाद नगर निगम के चुनाव हेतु प्रत्याशी चयन से शुरू होकर एक व्यक्ति एक पद की मांग तक आ पहुंचा जिसे अभिषेक द्वारा पार्टी प्रमुख ममता के विरुद्ध मोर्चेबंदी के तौर पर देखा जा रहा है। अपने एकाधिकार को चुनौती की भनक लगते ही सुश्री बैनर्जी ने संगठन को भंग करते हुए एक तदर्थ समिति बना दी जिसमें अभिषेक बतौर महामंत्री न होकर साधारण सदस्य भर हैं। ममता के विरोध में पिछले विधानसभा चुनाव के पूर्व भी खूब आवाजें उठीं और थोक के भाव नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में आ गये। लेकिन उनकी बड़ी जीत के बाद विरोध ठंडा पड़ गया। और तो और मुकुल रॉय जैसे बड़े नाम के अलावा बागी हुए अनेक नेता दीदी शरणं गच्छामि हो गये जिनमें कुछ चुने हुए विधायक-सांसद भी हैं। सुनने में आ रहा है कि नए और पुराने नेताओं के बीच विभाजन रेखा खिंच चुकी है और अभिषेक ने अपनी बुआ के समानांतर गुट बना लिया है। दरअसल ममता के सामने भी वही समस्या है जो स्व. जयललिता और अब मायावती के सामने है। अविवाहित होने से इनकी अपनी सन्तान नहीं है। जयललिता के दौर में उनकी सहेली शशिकला ताकतवर हुई तो मायावती को भी अंतत: अपने भतीजे आनंद को पार्टी में आगे लाना पड़ा। सुश्री बैनर्जी ने अभिषेक के स्थान पर किसी और को मजबूत नहीं बनाया क्योंकि उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था। लेकिन अब भतीजा ही उनके लिए खतरा बनने लगा। देर-सवेर यही समस्या उड़ीसा में नवीन पटनायक के सामने भी आयेगी जो कि अविवाहित हैं। ये सब देखकर लगता है अधिकतर क्षेत्रीय दल प्रायवेट लिमिटेड कम्पनी बनकर रह गए हैं। क्षेत्रीय, जातीय और भाषायी भावनाएं उभारकर इन दलों के नेता अपना वर्चस्व बनाये रखते हैं किन्तु राजनीतिक विरासत परिवार से बाहर न जाये इसकी चिंता भी उन्हें दिन रात सताया करती है। जिन मुलायम सिंह यादव के नाम पर सपा और अखिलेश शिखर तक जा पहुंचे वे आज पार्टी और परिवार दोनों में मूकदर्शक बनकर रह गए हैं। जितने भी क्षेत्रीय दलों के नामों का यहाँ उल्लेख किया गया वे सब कमोबेश इसी हालात में हैं या निकट भविष्य में उनकी पारिवारिक कलह भी सार्वजनिक हुए बिना नहीं रहेगी। चूंकि इनका मकसद निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति और सता के सहारे अकूत दौलत कमाना होता है, लिहाजा कालान्तर में इनके भीतर वही सब होता है जो किसी राज परिवार की सम्पत्ति के बंटवारे के समय देखने मिलता है। इसे भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना ही कहा जाएगा कि उसमें सेवा, सिद्धांत और समर्पण की बजाय स्वार्थ सिद्धि और धनलिप्सा जैसी प्रवृत्तियों का जबरिया कब्ज़ा हो गया है। तृणमूल कांग्रेस यदि आने वाले समय में विभाजन के रास्ते पर बढ़ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि संघर्ष के दिनों के अपने साथियों को नजरअंदाज कर जब भाई, बेटे-बेटी, भतीजे आदि को पार्टी की राजनीतिक पूंजी सौंपी जाती है तब उन साथियों के मन को चोट पहुचंती है। ममता बैनर्जी के साथ शुरु से रहे नेताओं को पीछे धकेलकर जब उन्होंने भतीजे अभिषेक को अपना उत्तराधिकारी बनाने की रूपरेखा तैयार की तभी से तृणमूल के भीतर टूटन का बीजारोपण हो चुका था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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