Wednesday 23 February 2022

पूजनीय गाय आवारा पशु कैसे बन गई : राजनीतिक दलों के लिए चिंतन का विषय



उ.प्र के चुनाव में  अनेक ऐसे मुद्दे चर्चा में हैं जो कमोबेश हर जगह  सुनाई देते हैं लेकिन आवारा पशुओं से किसानों को हो रही परेशानी जिस तरह सामने आई है उसकी वजह से भाजपा के माथे पर पसीने की बूँदें छलछलाने लगी हैं | चुनावी जंग के बीच इस आशय की खबरें आ रही हैं कि किसान समुदाय आवारा पशुओं से बहुत परेशान हैं जो  नजर चूकते ही उसकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं | अनेक किसानों ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उन्हें रात – रात भर जागकर खेतों में रखवाली करनी पड़ती है क्योंकि जब से गोवंश के वध पर प्रतिबंध लगाया गया है तब से गायों और साड़ों की भीड़ बढ़ गई है | अनेक किसानों ने तो खेतों की कंटीले तारों से घेराबंदी भी की जबकि कुछ पक्की दीवार बना रहे हैं जिस पर मोटी रकम खर्च होने से वह सबके बस में नहीं है  | चूंकि अब खेती में बैलों का उपयोग काफ़ी  कम हो गया है इसलिए गोपालन के प्रति आम तौर पर किसान उदासीन हो चला है | जहाँ तक बात दुग्ध उत्पादन की है तो पशुपालन पर होने वाले खर्च की तुलना में उसे दूध खरीदना ज्यादा आसान और सस्ता प्रतीत होता है | फसलों की कटाई हार्वेस्टर से होने के कारण भूसा भी अब पहले जितनी मात्रा में नहीं मिलता | इसीलिए जब गाय  दूध नहीं देती तब उसे पालने वाले भी उसे छुट्टा छोड़ देते हैं | इसका प्रमाण हाइवे पर शाम के समय बैठे उनके झुंडों  से मिलता है जो वाहन चालकों की परेशानी  के साथ ही दुर्घटनाओं का कारण भी बनते हैं | शहरों में भी ये समस्या दिनों – दिन बढ़ती जा रही है | कुछ साल पहले तक उ.प्र के किसान नील गायों से त्रस्त थे जिनके जत्थे उनकी फसल चर जाया करते थे | लेकिन जब से गोवंश के वध पर रोक लगाई गई तब से  आवारा गाय और सांड़ों द्वारा  फसल चर  जाने की घटनाएँ जिस तेजी  से बढ़ीं उनके कारण  ये चुनावी मुद्दा बन गया है | हिन्दू समुदाय में गाय चूँकि पवित्र और  पूजित है इसलिए उसे  मारने से परहेज किया जाता था | जब वह  बूढ़ी हो जाया करती थी तब उसे कसाई को बेचने का चलन था लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की ही थी जो गाय को जीवित रहते तक बेचते नहीं थे | मरने के बाद उसके चमड़े का उपयोग बहरहाल जूते आदि बनाने में किया जाता रहा  |  गोवंश का राजनीति से भी गहरा  सम्बन्ध रहा है | भारत की 80 फीसदी आबादी चूंकि ग्रामीण थी इसलिए आजादी के बाद कांग्रेस ने अपना चिन्ह बैल जोड़ी को चुना | महात्मा गांधी भी गोरक्षा की हामी रहे | 1969 में पार्टी का विभाजन होने पर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले धड़े ने भी गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह चुना ,  जिससे वह खुद को गाँव और किसानों से जुड़ा साबित कर सके | आज भी देश की संसद और और विधानसभाओं में बड़ी संख्या उन जनप्रतिनिधियों की  है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और जो बात – बात में गाँव और किसानों  की चिंता जताते हैं | लेकिन समय के साथ ज्यों – ज्यों ग्रामीण क्षेत्रों से मानव संसाधन का पलायन हुआ त्यों – त्यों मानवीय श्रमिक का स्थान मशीन लेने लगी  और वहीं से कृषि कार्य में गोवंश की भूमिका कम होती गयी | जब तक गाय और बैल खेती से जुड़े रहे  तब तक किसान को  उनकी जरूरत रही किन्तु ट्रैक्टर , थ्रेशर , कल्टीवेटर और हार्वेस्टर जैसे उपकरणों के आगमन ने गाय और बैल को हाशिये पर धकेल दिया | रही सही कसर पूरी कर दी सड़क और बिजली ने | गाय और भैंस जैसे दुधारू पशुओं के गोबर से बनने वाले कंडे जहाँ ग्रामीण भारत में ईंधन का बड़ा स्रोत थे वहीं गोबर से बनी  खाद खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ाने के काम आती थी | और फिर दूध तथा उससे बनने वाली  अन्य चीजें किसान के पोषण और अतिरिक्त आय का स्रोत हुआ  करती थीं | लेकिन तकनीक के विकास के साथ उन्नत खेती ने कृषि  का पूरा चरित्र बदल दिया जिसके कारण उसके साथ पशुपालन का जो अटूट नाता था वह छिन्न – भिन्न हो गया | मुंशी प्रेमचंद की हीरा – मोती और गोदान जैसी कालजयी कृतियां अब कल्पनालोक का एहसास कराती हैं | कहने का आशय ये हैं कि गाँव और खेती को नया रूप देते समय हमारे नीति – निर्माता  ये भूल गये कि पशुपालन ग्रामीण भारत की  अर्थव्यवस्था का ठोस  आधार रहा है | रासायनिक खाद और विषैले कीटनाशकों ने गाय और गोबर दोनों की उपयोगिता को इस हद तक घटाया कि वे बोझ लगने लगे | शहरों में भी गाय पालने का जो रिवाज था वह आधुनिकता के विकास और संयुक्त परिवारों के विघटन के कारण गुजरे ज़माने की चीज बनकर रह गया | जो जगह गाय की होती थी उसमें कार गैरेज बनने लगे | बहुमन्जिला आवासीय संस्कृति ने तो जनजीवन को पूरी तरह बदल डाला | लेकिन  अचानक लगने लगा कि ऐसा कुछ पीछे छूट गया है जिसके अभाव में विकास के साथ विनाश दबे पाँव चला आया | और तब फिर से गाय , गोबर , जैविक खेती याद आने के बाद शुरु हुआ गाय के संरक्षण और संवर्धन का सिलसिला | बेशक इसमें राजनीति भी घुसी जिसके परिणामस्वरूप गोवंश के वध पर रोक लगाने जैसे फैसले किये गये | लेकिन  गोपालन हेतु जो व्यवस्था की जानी चाहिए थी वह नहीं होने से अव्यवस्था फैलने लगी | गोशालाओं के लिए अनुदान की जो सरकारी प्रणाली  है वह ऊँट के मुंह में जीरे से भी कम है | और फिर इसमें होने वाला भ्रष्टाचार भी किसी से छिपा नहीं है | भोपाल में कुछ दिनों पहले ही ऐसी ही एक गोशाला में सैकड़ों गायों के मरने और उसके बाद उनकी दुर्गति की जो खबर आई उसने पूरा सच उगल दिया | उ.प्र में  किसान चुनाव के दौरान अपनी समस्या को लेकर सत्तारूढ़ योगी सरकार से अपनी जो नाराजगी जता रहे हैं उसे नजरंदाज करना गलत होगा | हालाँकि अब वहां के  सभी राजनीतिक दल  गोबर खरीदने के साथ ही गोपालन के लिए बेहतर सुविधाएँ  देने का वायदा करते घूम रहे हैं जिससे आवारा पशुओं की समस्या कम हो सके | जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए भी परम्परागत गोबर की खाद के उपयोग को बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा है | कंडों का व्यवसायिक उत्पादन  भी किया जा रहा है तथा अनेक ऑनलाइन कम्पनियाँ बाकायदा कंडे बेचने लगी हैं | सबसे बड़ी बात गाय से जुड़े अर्थशास्त्र की है | उसके दूध के औषधीय गुणों को प्रामाणिक मान लिया गया है | महानगरों में उसके दूध और उससे बने घी को ऊंचे दाम पर खरीदने वालों की अच्छी खासी  संख्या है | लेकिन इस आर्थिक पहलू को नजरंदाज कर केवल गोवध पर रोक लगाने से नई समस्या ने जन्म ले लिया | उ.प्र के चुनाव के कारण इसका  राष्ट्रव्यापी चर्चा का विषय बनना  शुभ संकेत है | वैसे भी भारत में गाय केवल एक दुधारू पशु न होकर  सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन से भी अंतरंगता से जुड़ी हुई है | माँसाहारी हिन्दू भी गोमांस का सेवन नहीं करते |  हालाँकि ये भी किसी विडंबना से कम नहीं है कि गाय के प्रति श्रद्धा रखने वाले देश से गोमांस का निर्यात बहुत बड़े पैमाने पर होता रहा है | इसके अलावा बेकार हो चुके गोवंश को अवैध रूप से बांग्लादेश भेजे जाने का कारोबार भी धड़ल्ले से चलता है | इस स्थिति के मद्देनजर अब जबकि आवारा पशु विशेष तौर पर गोवंश राजनीतिक मुद्दा बनने लगा है तब सभी  राजनीतिक दलों को चाहिये कि वे गोपालन के महत्व को आर्थिक तौर पर लोगों के मन में उतारते हुए इस बात को स्थापित करने का प्रयास करें  कि गाय जब तक जीवित है , अनुपयोगी नहीं हो सकती | लेकिन  उसके पालन और पोषण की समुचित व्यवस्था नहीं की गई तब वह उसी तरह बोझ और समस्या बनी रहगी जैसी उ.प्र से आ रही खबरें और नए बने राजमार्गों पर बैठे उनके झुण्ड बताते हैं | इसके लिए एक व्यवहारिक और ईमानदार कार्ययोजना  बनाई जानी चाहिए | गाय ऐसा पशु है जिसका दूध , गोबर , मूत्र और मरने के बाद चमड़ा तक उपयोग में आता है | राजनीति करने वालों के लिए ये चिन्तन का विषय होना  चाहिए कि पवित्र और पूजनीय मानी जाने वाली गोमाता किन कारणों से आवारा बनकर असहनीय लगने लगी | गाय के प्रति श्रद्धा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि पूरी तरह शहरी सभ्यता में डूब चुके करोड़ों परिवारों में आज भी पहली रोटी गाय की बनाई जाती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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