Saturday 5 February 2022

रूस और चीन की दोस्ती भारत के लिए चिंताजनक : पुतिन और जिनपिंग दोनों तानाशाह हैं



राष्ट्रपति के अभिभाषण पर  बोलते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार की  विदेश नीति को विफल बताते हुए कहा कि उसके कारण पाकिस्तान और चीन करीब आ गये | हालाँकि उनका आरोप उन्हीं के गले पड़ गया और  विदेश मंत्री एस. जयशंकर सहित  अनेक जानकारों  ने उनको याद  दिलाया कि पाकिस्तान और चीन की नजदीकियां पुरानी हैं और अपने कब्जे वाले भारतीय भूभाग का एक हिस्सा वह पहले ही चीन को दे चुका था | दोनों दशों के बीच आर्थिक , सामरिक और राजनयिक रिश्ते भी  काफी प्रगाढ़ हैं जिसका मुख्य कारण  भारत विरोध है | बहरहाल पड़ोसी देशों में बांग्ला देश और भूटान को छोड़कर बाकी से भारत के  सम्बन्ध अपेक्षाकृत खराब हैं | श्रीलंका तो खैर लिट्टे द्वारा  किये गये संघर्ष के समय से ही  नाराज है लेकिन हाल के वर्षों में नेपाल का हमारे विरुद्ध आक्रामक हो जाना  चौंकाने वाला रहा | हालाँकि बीते दो दशक में इस राष्ट्र में चीन समर्थक माओवादी ताकतों की  उत्तरोत्तर वृद्धि  से भारत  विरोधी भावनाओं को जगह मिलती गई लेकिन जबसे राजतन्त्र समाप्त हुआ तबसे चीन  पूरी तरह हावी हो गया |  लेकिन इन सबसे हटकर भारत के लिए चिंता का ताजा -  तरीन कारण है चीन और  रूस में बढ़ती नजदीकियां | इस बारे में उल्लेखनीय  ये है कि रूस में हुई  साम्यवादी क्रांति से प्रेरित होकर माओत्से तुंग की अगुआई में 1949 में चीन में जो साम्यवादी सरकार बनी वह जल्द ही सोवियत संघ के प्रभाव  से निकलकर अपना खुद का आभामंडल बनाने में जुट गई |  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया शीत युद्ध के नाम पर अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले दो गुटों में बंट गई थी तब भारत ,  मिस्र ,युगोस्लाविया और इंडोनेशिया आदि ने मिलकर गुट निरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रखी | लेकिन चीन अमेरिका और सोवियत संघ दोनों से दूर रहने के बाद भी गुट निरपेक्ष आन्दोलन का हिस्सा नहीं बना | लेकिन उसने अमेरिकी खेमे में घुसे पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रखा जिससे भारत को घेरा जा सके | चीन के साम्यवादी शासक ये बात अच्छी तरह जानते थे कि पाकिस्तान पूरी तरह अमेरिका का पालित है जो सोवियत संघ पर नजर रखने के लिए उसका इस्तेमाल करता रहा | बावजूद उसके इस्लामाबाद और बीजिंग के बीच दोस्ताना बढ़ता गया  | लेकिन इसी के साथ  भारत की सोवियत संघ से दोस्ती बढ़ी | यद्यपि भारत  सोवियत संघ की अगुआई वाली वारसा संधि में शामिल नहीं था लेकिन अमेरिका और चीन से  तनावपूर्ण रिश्तों की वजह से  सोवियत संघ ने भारत को अपना रणनीतिक साझेदार बना लिया | कश्मीर पर संरासंघ की सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान  को जब भी अमेरिका और ब्रिटेन समर्थन देते तब सोवियत संघ भारत के पक्ष में वीटों का उपयोग कर देता था | पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा दी जाने वाली युद्ध सामग्री के जवाब में भी सोवियत सरकार ने भारत को उनकी आपूर्ति की | 1962 के चीनी हमले के दौरान जरूर मास्को तटस्थ रहा | उस समय सोवियत संघ का कहना था कि साम्यवादी होने से चीन उसका भाई और  भारत दोस्त है इसलिए वह इस झगड़े से दूर रहेगा | हालाँकि  1965 और 1971 की जंग में सोवियत संघ का झुकाव भारत की तरफ रहा जिसका कारण अमेरिका के वर्चस्व को कम करना था | चीन का पाकिस्तान को खुला समर्थन भी  सोवियत संघ के भारत प्रेम का कारण बना |लेकिन कालान्तर में सोवियत संघ के  बिखराव और वैश्विक  अर्थव्यवस्था में आये उदारीकरण ने शीत युद्ध को अतीत में धकेल दिया | जर्मनी एक हो गया वहीं  सोवियत संघ का विखडंन होने के बाद रूस नामक सबसे बड़ा देश आर्थिक बदहाली और राजनीतिक अस्थिरता में फंसता दिखा | हालात यहाँ तक बन गये कि जिस अमेरिका से उसके सांप और नेवले जैसे सम्बन्ध थे वही उसका पालनहार बनता नजर आया | लेकिन जल्द ही ब्लादिमिर पुतिन के रूप में एक नया शासक रूस में उभरा और देखते ही देखते उसने अमेरिका की टक्कर में अपने देश को खड़ा करने का पुरजोर प्रयास किया | उसके बाद चाहे ईरान हो या सीरिया , जहां भी अमेरिका ने दादागिरी दिखाई रूस ने  उनकी मदद की | लेकिन इस दौरान ये देखने मिला कि अमेरिका द्वारा चीन की घेराबंदी के विरोध में रूस ने बीजिंग की त्तरफदारी की | बीते साल जब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें हटीं और तालिबान की सत्ता कायम हुई तब रूस और चीन दोनों एक साथ उसके साथ खड़े दिखाई दिये |  इस सम्बन्ध में ये भी गौरतलब है कि भारत बीते कुछ दशक में जिस तरह से आर्थिक , सामरिक और राजनयिक तौर पर अमेरिका के करीब आया उसने रूस को चौंकन्ना किया | लेकिन भारत ने उसे पूरी तरह दूर नहीं होने दिया | हाल ही में रक्षा उससे प्रणाली खरीदने के मामले में जब अमेरिका ने भारत को धमकाना चाहा तब उसे साफ़ शब्दों में समझा दिया गया कि भारत जिससे चाहे रक्षा उपकरण खरीदेगा | वैसे इस मामले में मोदी सरकार की नीति बहुत ही व्यवहारिक है |  रूस और अमेरिका दोनों को एक साथ साधे रहने की कूटनीति से हमारे राष्ट्रीय और रणनीतिक हित बहुत हद तक सुरक्षित हुए हैं | लेकिन बीते कुछ सालों में चीन और रूस दोनों में एक बात समान हुई और वह ये कि पुतिन और जिनपिंग दोनों ने आजीवन सत्ता में बने रहने का इंतजाम कर लिया | इसके साथ ही अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाईडेन के भी कड़क स्वभाव के होने से वैश्विक राजनीति में अचानक नया शक्ति संतुलन देखने मिलने लगा | बीते कुछ समय से रूस और यूक्रेन के बीच  तनाव में जिस तरह अमेरिका कूदा और यूक्रेन ने नाटो संधि का हिस्सा बनना चाहा उससे  चीन  और रूस करीब आ गये | विगत दिनों  पुतिन और जिनपिंग के बीच हुई बातचीत में चीन ने जहां यूक्रेन विवाद में रूस का साथ देने की बता कही वहीं रूस ने ताईवान को चीन का हिस्सा बताकर नए समीकरण का संकेत दे दिया | इस बारे में समान बात ये भी है कि रूस जिस तरह यूक्रेन को हथियाने के लिए युद्ध करने को आमादा है उसी तरह  चीन भी ताइवान को सैन्यबल से जीतकर अपने में मिलाने प्रयासरत है | दोनों जगह अमेरिका ही चूंकि रूस और चीन के विरुद्ध खड़ा है इसलिए वे दोनों यदि साथ आ रहे हैं तो ये अस्वाभाविक नहीं है किन्तु वह भारत के लिए चिंता का कारण बन सकता है | दक्षिण एशिया  में चीन की दादागिरी रोकने  अब तक भारत ने अमेरिका , जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर जो मोर्चेबंदी कर रखी है उसके चलते रूस यदि चीन की तरफ झुका तब वह भारत  के लिये नुकसानदेह हो सकता है | हालाँकि  जिस तरह समान विचारधारा के बावजूद स्टालिन के रूस और माओ के चीन में शत्रुता बनी रही वैसी ही पुतिन और जिनपिंग के बीच देर सवेर बन जाना अवश्यंभावी है किन्तु इसके पहले भारत के सामरिक  , आर्थिक और राजनयिक हित प्रभावित न हों ये देखना जरूरी है | उस दृष्टि से यूक्रेन और ताइवान संकट शीतयुद्ध के उस दौर की  यादों को ताजा कर रहा है जब क्यूबा के विरुद्ध अमेरिका की घेराबंदी के विरुद्ध सोवियत संघ की जवाबी कार्रवाई की आशंका ने तीसरे विश्व युद्ध के हालात पैदा कर दिए | यद्यपि कोई भी देश उस स्थिति तक नहीं जाना चाहेगा लेकिन अचानक वैश्विक परिदृश्य कुछ अति महत्वाकांक्षी नेताओं के कारण जिस तरह तनाव से भर उठा है उसमें भारत को बहुत संभलकर कदम आगे बढ़ाना होंगे क्योंकि हमारे पड़ोस में दो जन्मजात शत्रु बैठे हुए हैं और दुनिया अब राजनीतिक  विचार नहीं अपितु व्यापार से संचालित है | इसलिए कौन कब किसके साथ या विरोध में खड़ा हो जायेगा ये कहना कठिन है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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