Tuesday 1 February 2022

पुराने संसदीय संस्कारों के बिना नये संसद भवन का कोई औचित्य नहीं



कल एक समाचार काफी तेजी से चर्चित हुआ। संसद भवन की सीढ़ियों से उतरते सपा नेता मुलायम सिंह यादव के केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने पैर छुए तो उन्होंने भी आशीर्वाद स्वरूप अपना हाथ उनके सिर पर रखने जैसा भाव प्रकट किया। पास ही खड़े दूसरे केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अहमद नकवी ने भी श्री यादव की सीढियां उतरने में मदद की। उल्लेखनीय है सपा नेता आयु जनित बीमारियों के कारण काफी अशक्त हो चले हैं। संसद में विरोधी विचारधाराओं के सदस्यगण आपस में मिला करते हैं। केन्द्रीय कक्ष में तो कॉफ़ी हाउस सरीखा माहौल होता है। निजी तौर पर सांसदों के आपसी सम्बन्ध भी होते हैं। लेकिन उ.प्र में विधानसभा चुनाव चूंकि चल रहे हैं इसलिए श्रीमती ईरानी द्वारा श्री यादव के चरण स्पर्श करना समाचार बन गया जिसके साथ में ये भी जोड़ा गया कि अमेठी सांसद ने उ.प्र के यादवों को भाजपा के पक्ष में रिझाने का दांव चला है। उल्लेखनीय है कुछ समय पहले दिल्ली में एक राजनीतिक हस्ती के यहाँ विवाह में मुलायम सिंह और रास्वसंघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत का एक साथ बैठे हुए  चित्र प्रकाशित हुआ तो उसे भी उ.प्र चुनाव से जोड़कर देखा जाने लगा। इस तरह की खबरों से ये पता लगता है कि हमारे देश में निजी जीवन पर भी राजनीति किस हद तक हावी हो चुकी है। कल ही जिस स्थान पर श्री यादव और श्रीमती ईरानी के बीच सम्मान और सौजन्यता का आदान-प्रदान हुआ उन्हीं सीढिय़ों पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और स्मृति भी पास आये लेकिन उनके बीच बातचीत नहीं हुई। स्मरणीय है दोनों के बीच अमेठी में दो बार मुकाबला हो चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव में श्रीमती ईरानी को राहुल ने हरा दिया था लेकिन 2019 में बाजी पलट गई। संसद की सीढ़ियों पर दोनों करीब थे किन्तु नजरें मिलने के बाद भी अनदेखा कर  दिया गया। इस प्रकार एक ही दिन में एक ही जगह दो अलग-अलग व्यवहार देखने मिले। भारत में नेताओं का आपस में सहज मिलना-जुलना भी राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगा है। इसके लिए कौन दोषी है ये कह पाना कठिन है क्योंकि अब राजनीति सिद्धांतों और आदर्शों की राह से फिसलते हुए निजी स्वार्थ और अहं पर आकर सिमट गई है। हाल ही में म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भोपाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निवास के निकट धरने पर बैठ गये क्योंकि श्री चौहान उन्हें मिलने का समय नहीं दे रहे थे। संयोग से उसी दिन भोपाल के हवाई अड्डे पर श्री चौहान की पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से भेंट हो गई। हुआ यूँ कि श्री चौहान सरकारी विमान से आये और श्री नाथ हेलीकॉप्टर से। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो निकट आकर खड़े-खड़े ही कुछ देर बातें कर लीं। इसका चित्र पलक झपकते प्रसारित हो गया। बाहर खड़े पत्रकारों ने श्री नाथ से पूछा कि दिग्विजय सिंह को श्री  चौहान मुलाकात का समय नहीं दे रहे किन्तु आपको इतना वक्त दे दिया। इस पर श्री नाथ ने झल्लाते हुए कहा कि कोई समय-वमय नहीं दिया। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो बातचीत हो गई। लोकतंत्र में परस्पर विरोधी नेताओं का एक-दूसरे से मिलकर हँसने-बतियाने के पीछे राजनीति के अलावा और कुछ नहीं होता ये मान लेना छोटी सोच है। देश के तीन पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर और अटलबिहारी वाजपेयी के बीच के आत्मीय सम्बन्ध जगजाहिर थे। जिनेवा में हुए एक सम्मेलन में पाकिस्तान की मोर्चेबंदी को ध्वस्त करने के लिए राव साहब ने श्री वाजपेयी को भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाया था जबकि तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री सलमान खुर्शीद उपनेता बनाये गये। उसी सरकार ने अटल जी को पद्म विभूषण से अलंकृत भी किया था। चन्द्रशेखर तो वाजपेयी जी को सार्वजनिक तौर पर अपना गुरु कहते थे। लेकिन उन तीनों के बीच राजनीतिक तौर पर जो विरोध था उसमें कोई कमी नहीं आई। इसके उलट हाल ही में गणतंत्र दिवस पर वरिष्ट कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद को पद्म भूषण अलंकरण दिए जाने की घोषणा का कांग्रेस के एक खेमे ने विरोध किया। इसके पीछे कारण ये बताया जाता है कि श्री आजाद उस जी-23 समूह में शामिल हैं जो पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए अध्यक्ष का चुनाव करवाए जाने की मांग करता रहा। देश आजाद होने के बाद अनेक नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर पंडित नेहरु की नीतियों के विरोध में अपने दल बना लिए। संसद में वे सब नेहरू जी की तीखी आलोचना करते थे किन्तु उनके आपसी रिश्तों में कभी कटुता या रूखापन नजर नहीं आया। नेहरु जी  के निधन पर संसद में अटल जी ने श्रद्धांजलि के तौर पर जो भाषण दिया वह लोकतांत्रिक आदर्शों का सर्वोत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आशय ये है कि जिस लोकतंत्र को परिपक्व और सुदृढ़ कहकर हम आत्ममुग्ध होते हैं उसका आधारभूत गुण है सामन्जस्य और सौजन्यता। दुर्भाग्य से आज के राजनेताओं के बीच वह नजर नहीं आता। ये सब क्यों और कैसे हुआ यह विश्लेषण का विषय है। आजादी के अमृत  महोत्सव के दौरान इस बारे में भी विचार होना चाहिए कि राजनीति का वह स्वर्णिम दौर कैसे वापिस लाया जावे जब मतभेद और मनभेद में अंतर होता था और संसद के भीतर किये जाने विरोध में मर्यादा का ध्यान रखा जाता था। बीते कुछ दशकों में भारतीय राजनीति में जिस तरह का जहर घुलता गया उसकी वजह से उसका रंग-रूप विकृत होता जा रहा है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वह अपनी बची-खुची गरिमा भी खो बैठेगी। हाल ही में खबर आई थी कि आगामी शीतकालीन सत्र से संसद की बैठकें नए भवन में होंगीं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात ये है कि संसद का नया भवन कितना भी आकर्षक और आधुनिक सुविधाओं से युक्त हो लेकिन यदि पुराने संसदीय संस्कार इसी तरह लुप्त होते गये तब नए भवन का कोई औचित्य नहीं रहेगा और वह रूपवती भिखारिन जैसा कहलायेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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