Tuesday 2 February 2021

मध्यम वर्ग और किसान के तुष्टीकरण से बचने का जोखिम उठाया वित्त मंत्री ने



मोदी सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2021 - 22 के लिए आम बजट गत दिवस लोकसभा में पेश किया गया | कोरोना और किसान नामक दो मुद्दे बजट के पहले सरकार पर दबव बनाये हुए थे | ऊपर से असम , बंगाल , तमिलनाडु और केरल के विधानसभा चुनाव रूपी चुनौतियां  सामने खड़ी हुई हैं | ऐसे में लोकप्रिय बजट देते हुए आम जनता को खुश करना अपेक्षित था | राहुल गांधी सहित अनेक आर्थिक विशेषज्ञ  कोरोना काल के दौरान ही ये मांग करने लगे थे कि सरकार लोगों को नगद राशि दे जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े और बाजार गुलजार हो सकें | सैद्धांतिक तौर पर ये सलाह बहुत ही व्यवहारिक थी | केंद्र सरकार ने समाज के गरीब तबके के बैंक खातों में कुछ राशि जमा भी  करवाई किन्तु वह बहुत ही कम रही | चूंकि करोड़ों लोगों से रोजगार छिन गया था इसलिये उनका पेट भरने के लिए मुफ्त अनाज देने का विकल्प सरकार ने चुना जो काफी हद तक कारगर भी रहा | लेकिन परेशानी तो समाज के हर वर्ग के सामने थी | उद्योग - व्यापार चौपट हो चुका था | परिणामस्वरूप सरकार की राजस्व वसूली भी घट गई  | वित्तीय घाटा और विकास दर संबंधी सभी अनुमान गड़बड़ा गए | जैसे - तैसे हालात सामान्य होने को आये तो किसान आन्दोलन ने नई मुसीबत पैदा कर दी | ऐसे में एक लोकप्रिय बजट की  अपेक्षा पूरा देश कर रहा था | आशय आयकर में छूट और आम उपभोक्ता वस्तुओं को सस्ता करने से है | लेकिन निर्मला सीतारमण द्वारा जो बजट पेश किया गया उसका शेयर बाजार सहित उद्योग जगत और उदारीकरण के समर्थक आर्थिक विशेषज्ञों ने तो दिल खोलकर स्वागत किया किन्तु आम जनता , नौकरीपेशा और  किसान को इसमें ऐसा कुछ भी नहीं  दिख रहा जिस पर वह संतोष कर सके | विपक्ष से तो खैर बजट की तारीफ अनपेक्षित रहती ही है | सवाल ये है कि फिर बजट में ऐसा क्या है जिसके कारण आर्थिक मामलों के वे जानकार भी इसकी प्रशंसा कर रहे हैं जो मोदी सरकार की नीतियों और क्रियाकलापों के कटु आलोचक के तौर पर  विख्यात हैं | उत्तर में ये कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने इस बजट में चुनाव की देहलीज पर खड़े राज्यों में विकास  के लिए तो खजाना खोल दिया है लेकिन पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर नजर डालें तो इसे लोकलुभावन बजट नहीं कहा जा सकता | ऐसे में इसकी प्रशंसा केवल इस कारण हो रही है कि सरकार ने सीधे जनता के हाथ में पैसे देने की बजाय विकास कार्यों में तेजी लाकर रोजगार और मांग बढ़ाने को प्राथमिकता दी | सबसे प्रमुख बात ये रही कि कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों के मद्देनजर स्वस्थ भारत की सोच को मजबूत करने के लिए स्वास्थ्य संबंधी आवंटन  35 हजार करोड़ कर दिया गया | इसी तरह शिक्षा को भी महत्व दिया गया | लेकिन सबसे ज्यादा जिस क्षेत्र पर सरकार का ध्यान दिखाई दिया वह है अधोसंरचना संबंधी प्रकल्पों के लिए एक लाख करोड़ से भी ज्यादा का प्रावधान | इसी के साथ ही पर्यावरण संरक्षण को भी सरकार की चिंताओं में शामिल किया गया है | वित्त मंत्री ने पुराने वाहनों के बारे में जो स्क्रैप नीति बनाई वह भी कालान्तर में कारगर होगी ये उम्मीद लगई जा रही है | लेकिन सबसे बड़ा कदम जो इस बजट के ज़रिये उठाया गया है वह है विनिवेश और निजीकरण | कुछ सरकारी बैंक और जीवन बीमा निगम में निजी क्षेत्र को प्रवेश देने का फैसला निःसंदेह दुस्साहसी है जिसका विरोध भी सुनाई देने लगा है | बीमा क्षेत्र में 74 फीसदी विदेशी निवेश की  अनुमति दिया जाना पूंजी बाजार में आवक बढ़ाने में सहायक बन सकता है | और भी  ऐसा बहुत कुछ बजट में है जो आम जनता के नजरिये से तो  किसी काम का नहीं है लेकिन आलोचक भी दबी जुबान ही सही किन्त्तु ये मान रहे हैं कि वित्त मंत्री ने जो लक्ष्य तय किये हैं वे लम्बे समय के लिए हैं | बजट में अनुत्पादक व्यय की बजाय पूंजीगत खर्च पर जोर देकर सरकार ने विनिवेश के औचित्य को सबित करने का जो प्रयास किया वह आलोचकों के सबसे अधिक निशाने पर है | इस बारे में ये संदेह भी व्यक्त किया जा रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि सरकार अपनी संपत्ति बेच भी दे और पैसा भी  खुर्द - फुर्द हो जाए | लेकिन इस बजट की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें किसी वर्ग विशेष के तुष्टीकरण की बजाय ठोस वास्तविकताओं पर ध्यान दिया गया है | जो लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं उनका कहना भी है कि ये आत्मनिर्भर , स्वस्थ , शिक्षित , सुरक्षित और विकसित भारत का बजट है लेकिन ये सब होते - होते लंबा समय लग जाएगा | इस आधार पर मोदी सरकार ने कर्मचारी और किसान जैसे वर्ग के दबाव से मुक्त रहते हुए विकासोन्मुखी बजट पेश करते हुए लोकप्रियता की बजाय वास्तविकता को केंद्र बिंदु बनाया जो राजनीतिक दृष्टि से खतरा मोल लेने जैसा है | अपने सबसे बड़े समर्थक मध्यम वर्ग के अलावा  किसानों को लुभाने की बजाय विकास कार्यों के साथ ही शिक्षा , स्वास्थ्य , पर्यावरण , सुरक्षा और  आत्मनिर्भरता पर बजट को केन्द्रित रखकर 21 वीं सदी के तीसरे दशक की जो दिशा तय की है यदि वह इस देश की राजनीतिक संस्कृति  में रच बस जाए तो आने वाले कुछ सालों में भारत की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल सकती हैं | बशर्ते सरकारी मशीनरी ईमानदारी से काम करे और सभी सत्ताधारी क्षणिक लाभ की बजाय दूरगामी लक्ष्यों को प्राथमिकता दें | कोरोना के बाद का भारत आत्मविश्वास से भरा हुआ है और उसी की झलक इस बजट में दिखाई देती है | उम्मीद की जानी चाहिए कि गत एक वर्ष  की मनहूसियत आने वाले वित्तीय साल में दूर हो सकेगी | बीते  दो महीनों से जीएसटी की रिकॉर्ड वसूली ने निश्चित तौर पर वित्तमंत्री का हौसला बढ़ाया है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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