Thursday 11 February 2021

समझौते के बाद भी चीन पर विश्वास करना भूल होगी



चीन सरकार द्वारा बीते 9 माह से लद्दाख में चल रहे विवाद के सुलझने संबंधी जानकारी  देते हुए  बताया गया कि पेंगोंग झील के करीब  दोनों सेनाओं का जमावड़ा खत्म हो जायेगा और तय प्रक्रिया के अंतर्गत सेनाएं पूर्ववत पीछे हट जायेंगी। हालांकि कल तक रक्षा मंत्रालय या भारत सरकार के अन्य किसी अधिकृत स्रोत से इसकी पुष्टि नहीं  हुई थी।लेकिन आज रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में इसकी पुष्टि कर दी ।उन्होंने साफ किया कि भारत ने कुछ भी नहीं खोया । टैंकों की वापिसी के साथ इसका सिलसिला शुरू होगा और सबसे आखिर में सैनिक पीछे हटेंगे। यदि वाकई ऐसा हुआ है तब ये भारत की सैन्य शक्ति का ही प्रभाव माना  जायेगा जिसने चीन को पहली बार झुकने को मजबूर कर दिया। सही बात तो ये है कि  गलवान घाटी में हुई खूनी मुठभेड़ में भारतीय सैन्य टुकड़ी पर धोखे से किये हमले के बाद की गई जवाबी कार्रवाई में हमारे जवानों ने चीनी सैनिकों की जिस तरह धुनाई की उसके बाद चीन की अकड़ कम हुई वरना वह बात करने को भी राजी नहीं होता। उस समय कोरोना के प्रकोप से पूरा देश पीडि़त था। चीन को लगा कि वह 1962 की पुनरावृत्ति कर लेगा जब भारत को करारी हार झेलनी पड़ी और उसने हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा ली। लेकिन 2020 में उसे एकदम उल्टा अनुभव हुआ। भारत ने पूरी सीमा पर जबरदस्त सैन्य मोर्चेबंदी करते हुए चीन को साफ़ संकेत दे दिया कि वह धमकियों से डरने वाला नहीं है। अग्रिम चौकियों तक़ सड़क और पुल  के साथ ही हवाई अड्डा बनाकर लड़ाकू विमानों के अलावा  मिसाइलों की तैनाती तो की ही गई , प्रधानमन्त्री , रक्षा मंत्री और सेनाध्यक्ष ने भी अग्रिम मोर्चों पर जाकर सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए चीन को विस्तारवादी रवैया छोडऩे के प्रति आगाह किया। सबसे बड़ी बात ये हुई कि भारत ने इस विवाद में किसी और को मध्यस्थ नहीं बनाया और चीन को बातचीत की टेबिल पर बैठने बाध्य कर दिया। रणनीतिक महत्व के अनेक स्थानों  पर भारतीय सैनिकों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर सामरिक तौर पर बढ़त भी ले ली। लेकिन सैन्य तैयारियों के समानांतर भारत ने आर्थिक मोर्चे पर जो आक्रामक रवैया अपनाया उसने चीन पर अतिरिक्त  दबाव बनाया। भारत को  जो वैश्विक समर्थन मिला उसकी वजह से भी चीन परेशान हुआ। एक साल पहले तक वह आर्थिक महाशक्ति के तौर पर  अमेरिका तक को चुनौती देने की स्थिति में आ गया था। लेकिन कोरोना के बाद से उसके प्रति पूरी दुनिया गुस्से के साथ ही घृणा से भी भर उठी। भारत सरकार ने एक के बाद एक ऐसे कदम उठाये जिनकी वजह से चीन से होने वाले आयात में बड़ी कमी आई। देश  को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में उठाये गये कदमों का जमीनी असर भले ही अभी उतना न महसूस हुआ हो लेकिन भावनात्मक तौर पर न सिर्फ उपभोक्ता अपितु उद्योगपति भी चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को लेकर उदासीन होने लगे। इस नीति से वह जबरदस्त दबाव में आया। ये  कहना गलत न होगा कि सीमा पर सैन्य स्तर से  दिए गए माकूल जवाब के अलावा आर्थिक दृष्टि से उसकी दुखती रग पर हाथ रखने की  रणनीति  बहुत  कारगर रही। चीन को ये एहसास कतई न था कि भारत इतनी बड़ी तैयारी के साथ युद्ध के लिए खड़ा हो जाएगा। कूटनीतिक मोर्चे पर हमारी ओर से कड़क रवैया दिखाए जाने से भी चीन की अकड़ कम हुई। लेकिन चीन और धोखा एक दूसरे  के पर्याय हैं। धूर्तता  उसकी रग - रग में भरी हुई है। भले ही वह माओ युग  के लौह  आवरण को तोड़कर साम्यवादी चोला पहिनने के बाद भी पूंजी के फेर में फंस गया हो लेकिन उसकी सोच में जो कुटिलता है वह कुत्ते की पूंछ समान है। बीते 9 महीनों में भारत की तरफ से मिले कड़े जवाब से वह निश्चित तौर पर बौखलाया है। सीमा पर हमारी  मोर्चेबंदी से वह जितना विचलित हुआ उससे ज्यादा मार उसे आर्थिक मोर्चे पर पड़ रही है। गलवान घाटी के संघर्ष के बाद भारत में चीन के ग्लैमर से प्रभावित तबके की  मानसिकता भी काफी हद तक बदली है जिसकी वजह से आत्मनिर्भर भारत के प्रति लोगों का आग्रह बढ़ा। बीते कुछ महीनों में वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई है।  ऐसे में चीन ऊपरी तौर पर भले ही समझौतावादी  रवैया दिखा रहा हो लेकिन वह दोबारा कोई हरकत नहीं करेगा इसकी कोई शाश्वति नहीं  दी जा सकती। इसलिए  सेनाओं की वापिसी यदि हो जाए तब भी भारत को सतर्क  रहना होगा क्योंकि गलवान में हुई पिटाई का बदला लेने के लिए वह कब क्या कर बैठे ये कह  पाना मुश्किल है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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