Monday 22 February 2021

पेट्रोल-डीजल की कीमतों को बेलगाम छोड़ना समझ से परे



कोरोना काल में केंद्र और राज्य दोनों की आर्थिक स्थिति खराब हो जाने से राजस्व  में जबरदस्त कमी आई। उद्योग-व्यापार बंद हो  गये और लोगों की आवाजाही भी रुक गयी। निश्चित रूप से उन हालातों में देश और प्रदेश चलाना बहुत बड़ी समस्या थी किन्तु किसी तरह से गाड़ी खींची जाती रही। प्रत्यत्क्ष करों से होने वाली आय में भी जबर्दस्त गिरावट देखी गई। लेकिन ज्योंही लॉक डाउन हटा त्योंही स्थितियां सामान्य होने लगीं।  उस दौरान अर्थव्यवस्था को लगा  झटका  मामूली नहीं था। उत्पादन शुरू होने के बाद भी बाजारों में मांग नहीं होने से कर की उगाही लक्ष्य के अनुसार नहीं हो पा रही थी। लॉक डाउन हटने के कुछ महीने बाद तक जीएसटी की वसूली भी अपर्याप्त थी। ऐसे में केंद्र और राज्य  सरकार को  राजस्व वसूली का सबसे आसान स्रोत समझ आया पेट्रोल और डीजल। भले ही सरकार ये दावा करती हो कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय उतार-चढ़ाव पर निर्भर हैं लेकिन भारत में केंद्र और राज्यों द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों पर जितना कर लगाया जाता हैं वह विकसित देशों को तो छोड़ दें भारत से आकार और आर्थिक दृष्टि से कमजोर छोटे-छोटे देशों तक की तुलना में बहुत ज्यादा है जिसके आंकड़े किसी से छिपे नहीं हैं। सरकारी करों की विसंगति का प्रमाण ही है कि विभिन्न राज्यों में पेट्रोल डीजल के दाम अलग-अलग हैं। उदहारण के तौर पर उप्र और मप्र में पेट्रोल डीजल की कीमतों में तकरीबन 8 रूपये प्रति लिटर का अंतर है। मप्र उन राज्यों में है जो पेट्रोल-डीजल पर सबसे जयादा कर लगाते हैं। एक समय था जब देश में पेट्रोल 70-75 रु. प्रति लिटर के स्तर पर था तब गोवा में स्व. मनोहर पार्रिकर की सरकार ने उसे 50-52 रु. प्रति लिटर पर रोके रखा। देखने वाली बात ये हैं कि अनेक अवसरों पर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में गिरावट आने पर राज्य सरकारों ने कर बढ़ाकर उपभोक्ता को उसके लाभ से वंचित कर दिया। निश्चित रूप से विलासिता की कुछ वस्तुएं ऐसी हैं जिन पर सरकारें बेतहाशा कर  थोपकर अपना खजाना भर सकती है किन्तु पेट्रोल-डीजल को उस श्रेणी में रखा जाना औचित्यहीन है क्योंकि वह आम जनता की  रोजमर्रे की आवश्यकता  बन चुके हैं। यहाँ  तक कि निम्न मध्यमवर्गीय उपभोक्ता भी उसके खरीददार हैं। लॉक डाउन हटने के बाद से पेट्रोल- डीजल और रसोई गैस की कीमतों में जिस तरह से वृद्धि होती जा रही है वह चौंकाने वाली है। यद्यपि इसके लिए सऊदी अरब द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कमी किया जाना बड़ा कारण बताया जाता है किन्तु भारत में केंद्र और राज्य सरकारें  इस बारे में काफी हद तक  मुनाफाखोरों जैसा आचरण कर रही हैं। सरकार एक तरफ तो उद्योगों, किसानों और  नौकरपेशा के हित के लिए राहत के पैकेज घोषित किया करती हैं  लेकिन जिन पेट्रोल और डीजल की कीमतें समूची अर्थव्यवस्था को प्राथमिक स्तर से ही  प्रभावित करती हैं उनके बारे में वह बेहद असम्वेदनशील है। आम तौर पर तो इसके लिए केंद्र सरकार को कसूरवार ठहराया जाता है किन्तु ये कहना  गलत न होगा कि राज्य सरकारें भी इस बारे में कम बेरहम नहीं  हैं। यही कारण है कि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के अंतर्गत लाने के लिए कोई राज्य सरकार तैयार नहीं है। अब जबकि पेट्रोल-डीजल के दाम शतक बनाने की स्थिति में आ गए हैं और केंद्र सरकार ने अपना पल्ला  झाड़कर मामला पेट्रोलियम कम्पनियों पर छोड़ दिया है तब इस बात का भी विश्लेषण होना चाहिए कि लम्बे लॉक डाउन के बाद भी इन कम्पनियों ने आखिर जबरदस्त मुनाफा कैसे कमाया? और यदि कमा भी लिया तब अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के साथ ही उन्हें दाम घटाकर जनता को राहत देने की उदारता दिखानी चाहिए। लेकिन जिस तरह से रोजाना कीमतें बढ़ रही हैं और केंद्र तथा राज्य सरकारें चुपचाप उनसे होने वाले लाभ को उदरस्थ करती जा रही हैं , वह लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विरुद्ध है। मोदी सरकार ने कोरोना काल में जनता को जमकर राहतें बांटी लेकिन पेट्रोल-डीजल की कीमतों ने सारी कसर पूरी कर दी। इसका असर महंगाई बढ़ने  के रूप में सामने आया है। परिवहन का खर्च बढ़ने से हर चीज की कीमतें बढ़ती हैं। ये जानने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। हालांकि केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत दिवस इस बारे में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए राज्यों से भी इस बारे में उपाय करने कहा है। लेकिन जिस आर्थिक समस्या से केंद्र जूझ  रहा है वही तो राज्यों के सामने है। ऐसे में जरूरी हैं कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों के बारे में ऐसा कोई फैसला लिया जाए जिससे कि वे न्यायोचित ठहरायी जा सकें। मौजूदा स्थिति में तो क्या हो रहा है किसी को समझ में नहीं आ रहा। सर्वोत्तम तरीका तो यही होगा कि पेट्रोलियम चीजों को भी जीएसटी के अंतर्गत लाते हुए मूल्यों को युक्तियुक्त बनाया जावे। सरकार विभिन्न मदों में जो राहत जनता को देती है वह पेट्रोल-डीजल की कीमतों के जरिये वापिस भी ले लेती है। भले ही प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता बनी हुई है और केंन्द्र  सरकार के प्रति आम धारणा  भी सकारात्मक है लेकिन इसे स्थायी मान लेना सही नहीं होगा । आखिर खाने-पीने की चीजों के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतें ही आम जनता को सबसे ज्यादा खुश या नाराज करती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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