किसी राजनेता की मृत्यु के उपरान्त आयोजित श्रृद्धांजलि सभा में विरोधी विचारधारा वाले नेतागण भी प्रशंसा करते हुए उसके गुणों का बखान करते हैं। इस दौरान कहीं से भी नहीं लगता कि ये वही लोग हैं जो जीवित रहते तक उसकी बखिया उधेड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। इसी तरह रास्ते में शवयात्रा देखकर देखकर हर कोई रुक जाता है और मन ही मन मृतक की शांति के लिए अपने इष्ट से प्रार्थना करता है। ये सम्वेदनशीलता ही मानवीयता का आधार है। लेकिन आज की राजनीति में जब विरोधी विचारधारा के लोगों में मतभेद शत्रुता के चरम पर पहुँच जाते हैं तब आश्चर्य से ज्यादा दु:ख होता है। उस दृष्टि से गत दिवस राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे वरिष्ठ कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद के कार्यकाल की समाप्ति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण के दौरान भावुक हो जाना चर्चा का विषय बन गया। उन्होंने श्री आजाद के संसदीय योगदान के साथ उनके व्यक्तित्व की तो प्रशंसा की ही लगे हाथ ये भी कह दिया कि वे लौटकर आएंगे और उनके अनुभवों का लाभ लिया जावेगा। भावुक तो श्री आजाद भी हुए और इंदिरा जी तथा संजय गांधी के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी का भी स्मरण किया। भावनाओं के इस प्रवाह का राजनीतिक विश्लेषण भी बिना देर किये शुरू हो गया। किसी को प्रधानमन्त्री के आंसुओं में नाटकीयता दिखी तो किसी को राजनीति। श्री आजाद के भाषण में भी उनकी पार्टी की अंदरूनी खींचतान की झलक दिखाई दी , जिसके चलते उन्हें राज्यसभा की सदस्यता से वंचित होना पड़ा। ये कयास लगाये जाने लगे कि केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने में उनकी सहायता ले सकती है। ज्ञातव्य है श्री आजाद इस राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे हैं और वर्तमान परिदृश्य में डा. फारुख अब्दुल्ला के अलावा एकमात्र नेता हैं जिनकी राष्ट्रीय राजनीति में पहिचान है। चूँकि श्री आजाद अधिकतर समय केंद्र में ही रहे इसलिए राजनीतिक तौर पर वे राष्ट्रीय मुद्दों के बेहतर जानकार है। बतौर सांसद भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। हालांकि कांग्रेस में वे प्रथम पंक्ति के नेता नहीं बन सके और इसका कारण संभवत: जम्मू कश्मीर का राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा रहना ही रहा। लेकिन 370 और 35 ए हटने के बाद से वहां के हालात पूरी तरह बदल गये हैं। यद्यपि श्री आजाद ने उस निर्णय का राज्यसभा में पूरी ताकत से विरोध किया था लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी ये एहसास हो चला है कि वे संवैधानिक प्रावधान इतिहास हो चले हैं। ऐसे में यदि वे अपनी भूमिका को नए सिरे से तय करने की सोच रहे हों तो उसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन प्रधानमन्त्री ने जिस तरह उनकी तारीफ के पुल बांधे उस पर अधिकतर प्रातिक्रियाएं व्यंग्यात्मक ही रहीं। विशेष रूप से श्री मोदी का ये कहना कि उन्हें निवृत्त नहीं रहने दिया जावेगा , नये राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे गया किन्तु इससे अलग हटकर देखें तो इस तरह की सौजन्यता को केवल राजनीतिक दृष्टि से ही देखा जाना अटपटा लगता है। पंडित नेहरु के दौर में विपक्ष इतना तगड़ा नहीं था । फिर भी संसद में विपक्ष के जो नेता होते थे वे प्रधानमंत्री की कटु आलोचना करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते थे परन्तु नेहरु जी ने उसे शत्रुता नहीं समझा। दरअसल राजनीति में कटुता का दौर शुरू हुआ 1975 में आपातकाल के साथ जब इंदिरा जी ने समूचे विपक्ष को जेल में ठूंसकर संसद को बंधक बना लिया था। यहां तक कि बाबू जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी जैसी वयोवृद्ध हस्तियों तक को नहीं बख्शा। भले ही आपातकाल दो साल के भीतर अलविदा हो गया लेकिन राजनीति में शत्रुता के जो बीज बो गया उसकी फसल गाजर घास की तरह देश भर में फैल चुकी है। ये देखते हुए संसद या इसके बाहर नेतागण एक-दूसरे की तारीफ या तो किसी शोक प्रसंग के दौरान करते हैं या फिर स्वार्थवश। लोकतंत्र में वैचारिक विरोध के समानांतर सौजन्यता और मानवीयता निहायत जरूरी है। नेहरु जी और लोहिया जी की नोक झोंक , और नेहरु जी मृत्यु के बाद संसद में अटल जी द्वारा दिया गया भाषण भारतीय लोकतंत्र की सबसे सुखद स्मृतियों में से है। ऐसे में प्रधानमन्त्री और गुलाम नबी आजाद के भावुक हो जाने में नाटकीयता और राजनीतिक गुणा- भाग देखना इस बात का परिचायक है कि राजनीति में सौजन्यता आश्चर्यचकित करने लगी है। हालांकि आज के दौर में वैचारिक छुआछूत तो लगभग खत्म सी है। वामपंथ और भाजपा के बीच ही पूरी तरह से छत्तीस का आँकड़ा है। वरना अन्य सभी दलों के बीच आवाजाही को लेकर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसे में श्री आजाद और प्रधानमन्त्री के बीच कोई खिचड़ी पक रही है तो बड़ी बात नहीं। कश्मीर को लेकर जहां केंद्र सरकार को ऐसे स्थानीय लोग चाहिए जो वहां की जमीनी सच्चाई से वाकिफ हों , वहीं श्री आजाद को भी अपनी राजनीति जिंदा रखने की चिंता है। लेकिन इस तरह की भावनाएं और संवाद संसद में यदि सामान्यत: व्यक्त होने लगें तो इससे निचले स्तर तक फ़ैल चुकी कटुता में कमी लाई जा सकती है , जो आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। बेहतर हो संसद सत्रों के दौरान ही इस तरह के आयोजन रखे जाएं जिनमें राजनीतिक कड़वाहट से ऊपर उठकर सौजन्यता और शिष्टाचार नजर आये।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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