Saturday 13 February 2021

नेताओं की अदूरदर्शिता से कमजोर पड़ रहा किसान आन्दोलन



दिल्ली के विभिन्न प्रवेश द्वारों पर चल रहे किसान आन्दोलन में अब पहले जैसी धार नहीं रही। 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद किसान संगठनों के बीच मतभेद उभरने की खबरें भी आईं। इसकी  वजह भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का आन्दोलन पर एक तरह से कब्जा कर लेना बताया जा रहा है। वे बड़ी ही चतुराई से आन्दोलन को जाट समुदाय के बीच केन्द्रित करते हुए उसके चेहरे बन बैठे। उप्र और उत्तराखंड में चकाजाम नहीं करने का उनका निर्णय भी किसान संयुक्त मोर्चे के अधिकतर नेताओं को रास नहीं  आया। उसके बाद से ऐसा लगने लगा कि मोर्चे में पहले जैसा सामंजस्य नहीं है। श्री टिकैत द्वारा 2 अक्टूबर तक आन्दोलन करने की घोषणा को लेकर भी मोर्चे के भीतर नाराजगी देखी जा रही है। ताजा समाचारों के अनुसार न सिर्फ टिकरी और सिंघु अपितु राकेश के अपने गढ़ गाजीपुर में भी किसानों की उपस्थिति घटने लगी है। सड़कों पर ताने गये तम्बुओं के अतिरिक्त ट्रैक्टर ट्रॉली में जो आवास व्यवस्था की गई थी उनमें भी किसानों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। किसान  नेता चाहे जितना दावा करें लेकिन  छह महीने की जिस तैयारी से धरने की शुरुवात हुई थी , उसका दम निकलने लगा  है। रबी फसल की कटाई भी नजदीक आती जा रही है। सबसे बड़ी बात ये है कि अपना घर - खेत छोड़कर कड़कड़ाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे बैठने वाले आन्दोलनकारी भी इस बात से निराश हो चले हैं कि अभी तक उनके हाथ कुछ नहीं लगा और दर्जन भर वार्ताओं के बाद भी समझौते की सम्भावना नजर नहीं आ रही। ये सोचना तो जल्दबाजी होगी  कि आन्दोलन पूरी तरह विफल हो गया लेकिन ये कहना भी गलत न होगा कि किसान नेता लंबे आन्दोलन की जमीनी तैयारी ठीक से नहीं कर पाए जिससे वह सीमित क्षेत्र तक सिमटकर रह गया। यही वजह है कि सरकार बजाय झुकने के अपनी बात पर अड़ी हुई है। पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसान भले ही अभी भी धरना स्थल पर जमे हों लेकिन छोटे किसान का धैर्य जवाब देने लगा। हालाँकि किसान संगठनों ने नए जत्थे बुलवाने की व्यवस्था बनाई जो कुछ समय तक चली भी  । लेकिन अब वह सिलसिला कमजोर पड़ने लगा है । पंजाब के गाँवों में जुर्माने की  धमकी के बाद भी लोगों में पहले जैसा उत्साह नहीं रहा तो इसकी वजह आन्दोलन का दिशाहीन होना ही है। जो नेता एकता का प्रदर्शन करते हुए नजर आते थे वे अब अलग - अलग बयान देते हुए एक दूसरे के फैसलों पर सवाल उठाने लगे हैं। राष्ट्रव्यापी चकाजाम को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से भी आन्दोलन का दबाव कम हुआ है। 18 फरवरी को रेल रोकने की जो घोषणा की गई है उसको लेकर भी विशेष तैयारी नजर नहीं आ रही। लेकिन श्री टिकैत द्वारा हरियाणा और राजस्थान का दौरा करने के बाद अन्य  राज्यों में जाने का जो फैसला किया गया वह बुद्धिमत्तापूर्ण कदम है। सही बात तो ये है कि सीधे दिल्ली को घेरकर बैठ जाने के पहले  यदि किसान नेता देशव्यापी दौरे करते हुए किसानों और जनता दोनों के बीच अपनी बात पहुँचाते तो आन्दोलन के प्रति ज्यादा समर्थन जुटाया जा सकता था। आन्दोलन की शुरुवात पंजाब से चूंकि हुई इसलिए दूसरे राज्यों ने उस पर ध्यान नहीं दिया  और यही  सबसे बड़ी गलती हुई क्योंकि दिल्ली के बाहर जो जमावड़ा हुआ उसमें सिखों की बहुतायत होने से आन्दोलन पर एक समुदाय विशेष का ठप्पा लग गया।  अनेक राज्यों से  संगठनों के नेतागण तो मंच लूटने जा पहुंचे लेकिन उनके साथ किसानों की अपेक्षित संख्या नहीं होने से वे दबाव बनाने की स्थिति में नहीं आ सके। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि जो काम  श्री टिकैत तथा बाकी नेता अब कर रहे हैं वही आन्दोलन शुरू  करने के पहले कर लिया जाता तो भले ही दिल्ली में आयोजित धरने में देश भर से किसान नहीं आ पाते परन्तु  वे अपने - अपने स्थानों पर नए कृषि कानूनों का विरोध करते । और फिर किसानों के आयोजन में योगेन्द्र यादव जैसे गैर किसान के प्रवेश से सरकार के साथ समझौते की गुंजाईश खत्म हो गई। यदि संयुक्त मोर्चे में शामिल किसान नेता प्रारम्भ से  ही देश भर में दौरे पर निकल  गये होते तो कृषि मंत्री को संसद में ये कहने का अवसर न मिलता कि आन्दोलन एक ही राज्य का है। लेकिन किसानों का नेता होने का दावा करने वाले सुर्खियों  में रहने का मोह नहीं छोड़ सके और दिल्ली तक ही सीमित रहे। आन्दोलन लम्बा खिंचने के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकलने से समाचार माध्यमों में भी अब उसको लेकर पहले जैसी रूचि नहीं रही। बची - खुची कसर पूरी कर दी राकेश टिकैत की महत्वाकांक्षा ने। सच्चाई ये है कि देश के  जनमानस में  किसानों के प्रति तो सहानुभूति , समर्थन और सम्मान का भाव है किन्तु किसान नेताओं के प्रति नहीं। और ये परखी हुई बात है कि किसी भी आन्दोलन को सफलता तभी मिलती है जब उसे जनता का भावनात्मक समर्थन मिले , जो  अब तक  यह आन्दोलन हासिल करने में विफल रहा । और इसके लिये उसे खड़ा करने वाले वे नेता और संगठन जिम्मेदार  हैं जिनमें दूरदर्शिता का नितांत अभाव है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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