Friday 12 February 2021

महामहिम शब्द की सार्थकता को बनाये रखने की जिम्मेदारी है राज्यपालों की



हालाँकि ये पहली बार नहीं हो रहा लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे महानुभावों की निर्वाचित सरकार के नेता से पटरी नहीं बैठने के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी को सरकारी विमान उपलब्ध नहीं होने पर उनका किसी एयर लाइंस की नियमित उड़ान से देहरादून जाने का है। जैसी कि खबर है उसके अनुसार राज्यपाल को हवाई अड्डा पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि राज्य सरकार द्वारा उन्हें सरकारी विमान देने से मना कर दिया गया जिसके बाद वे यात्री विमान की टिकिट खरीदकर अपने गंतव्य को रवाना हो गये। बवाल मचा तो राज्य सरकार ने सफाई दी कि राजभवन को इस बारे में पहले ही सूचित किया जा चुका था किन्तु राज्यपाल को उसकी जानकारी नहीं होने से वे हवाई अड्डे जा पहुंचे। विमान हेतु राज्य सरकार ने क्यों मना किया इसका खुलासा अभी नहीं हुआ किन्तु प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि श्री कोश्यारी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं होने से आये दिन तनाव उत्पन्न होता है। दरअसल पिछले विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र में सरकार के गठन को लेकर बनी अनिश्चितता के बीच  श्री कोश्यारी ने जिस तरह सुबह-सुबह देवेन्द्र फडनवीस और अजीत पवार को शपथ दिलवाई उसकी खुन्नस श्री ठाकरे के मन में है। उसके बाद भी विभिन्न अवसरों पर दोनों के बीच टकराहट होती रही। कंगना रनौत और अर्नब गोस्वामी के मामले में भी राजभवन और मुख्यमंत्री आमने-सामने आये। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच खींचातानी का दूसरा नजारा इन दिनों बंगाल में देखा जा सकता है। राज्यपाल जगदीप धनखड़ खुले आम मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की मुखालफत करते रहते हैं। गत दिवस तो उन्होंने लोकतंत्र बचाने के लिए ममता सरकार की विदाई को जरूरी बताकर आग में घी डालने जैसा काम कर डाला। हालाँकि ममता भी राज्यपाल के विरुद्ध अमर्यादित टिप्पणियाँ करने से बाज नहीं आतीं। लेकिन श्री धनखड़ भी मर्यादाएं लाघने में संकोच नहीं करते। ऐसे मामलों का मुख्य कारण केंद्र और राज्य में परस्पर विरोधी सरकारें होना है। राज्यपाल चूँकि केंद्र द्वारा नियुक्त होता है इसलिए उसकी वफादारी भी उसके प्रति ज्यादा रहती है। संघीय ढांचे में  राज्य का शासन संविधान के मुताबिक चले ये देखने के लिए राज्यपाल का पद बनाया गया था परन्तु धीरे-धीरे वह राजनीति के मकड़जाल में फंस गया। जब तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था तब तक ये स्थिति नहीं बनीं लेकिन जबसे केंद्र और राज्यों की सरकारें अलग-अलग दलों  की बनने लगीं तब से इस तरह के विवाद बढ़ते गए। विशेष रूप से क्षेत्रीय दलों की राज्य सरकारों का केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल से पंगा होता ही रहता है। इसमें ज्यादा गलती किसकी होती है ये कह पाना कठिन है लेकिन ये बात शत-प्रतिशत सही है कि अधिकतर राज्यपाल अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता से बंधे होने के कारण संवैधानिक पद की गरिमा बनाये रखने में विफल रहते हैं। रोमेश भंडारी, बूटा सिंह और ऐसे ही अनेक उदाहराण हैं जिन्होंने राजभवन में बैठकर राजनीतिक नेता की तरह आचरण किया जिससे  इस पद का मान-सम्मान कम हुआ। वैसे काँग्रेस का रिकॉर्ड इस बारे में बहुत ही कलंकित है जिसने अपने एकाधिकार वाले जमाने में विपक्षी दल की राज्य सरकारों को बिना ठोस कारण के बर्खास्त करने का खेल जमकर खेला। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बोम्मई मामले में दिए फैसले के बाद जरूर ये सिलसिला रुका लेकिन अभी भी राज्यपाल केंद्र के एजेंट की छवि से बहर नहीं निकल पा रहे। श्री कोश्यारी और श्री धनखड़ का उल्लेख तो सामयिक होने से  महज सांकेतिक है लेकिन  समय आ गया है जब इस संवैधानिक पद के अधिकार और उसकी भूमिका पर नए सिरे से विचार किया जावे। इस बारे में एक बात स्पष्ट है कि देश में बहुदलीय व्यवस्था अब एक वास्तविकता है। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को नकारना भी सच्चाई से आँखें मूँद लेना है। ऐसे में राजभवन  और राज्य सरकार के बीच छोटी - छोटी बातों पर होने वाले विवाद लोकतंत्र के सम्मान को ठेस पहुंचाते हैं। राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पारित विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किये जाने से वह लागू नहीं हो पाता। मप्र के राज्यपाल रहे भाई महावीर और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच भी तनातनी चली जिसके बाद महामहिम ने सरकारी विमान का उपयोग बंद कर दिया था। उन्होंने भी अनेक विधेयकों पर लम्बे समय तक हस्ताक्षर नहीं किये। विवाद तो विरोधी विचारधारा के राष्ट्रपति को लेकर भी होता है। हाल ही में संसद का बजट सत्र शुरू होने पर राष्ट्रपति के अभिभाषण का विपक्ष द्वारा बहिष्कार किया जाना इसका प्रमाण है। निश्चित रूप से इस तरह के विवाद अशोभनीय लगते हैं। यद्यपि कुछ ऐसे उदाहराण भी हैं जिनमें विरोधी राजनीतिक विचारधारा के महामहिमों से प्रधानमन्त्री या मुख्यमंत्री के रिश्ते बहुत ही सौजन्यतापूर्ण रहे। इनमें डा.शंकरदयाल शर्मा और अटलबिहारी वाजपेयी तथा प्रणब मुखर्जी और नरेंद्र मोदी उल्लेखनीय हैं। लेकिन राज्यों में ऐसा कम ही होता है। यही वजह है कि क्षेत्रीय दलों द्वारा राज्यपाल के पद को ही विलोपित किये जाने की मांग उठाई जाती रही है। मौजूदा दोनों प्रकरणों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही टकराव के बहाने खोजते दिखाई देते हैं लेकिन राजभवन से ज्यादा गम्भीरता और गरिमामय व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। उस दृष्टि से श्री कोश्यारी और श्री धनखड़ को अपनी  राजनीतिक प्रतिबद्धता से परे संवैधानिक लक्ष्मण रेखा के भीतर रहकर ही आचरण करना चाहिए। उद्धव ठाकरे और ममता बैनर्जी को भी  सौजन्यता और शालीनता का प्रतीक नहीं माना जाता लेकिन संवैधानिक पद पर विराजमान महानुभाव को महामहिम शब्द की सार्थकता को बनाये रखने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment