Tuesday 9 February 2021

कानूनों को स्थगित रखकर वार्ता जारी रखना ही बेहतर विकल्प है



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा संसद में दिए  भाषण में किसानों के साथ  वार्ता  जारी रहने की बात कहे जाने के बाद किसान नेताओं ने  अपनी जो सहमति व्यक्त की वह सकारात्मक संकेत है | एक नेता ने तो स्थान और तारीख बताने तक की मांग कर डाली | लेकिन साथ - साथ उनका  ये भी कहना है कि न्यूनतम  समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) को लेकर आश्वासन नहीं , कानूनी व्यवस्था की जावे | राकेश टिकैत ने इस बारे में प्रधानमन्त्री द्वारा दिए गए आश्वासन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि देश भरोसे पर नहीं वरन कानून से चलता है | ऐसे में सवाल उठता है कि जब किसानों की मूल मांगों को जस का तस मानने के लिए सरकार राजी नहीं है और  किसान नेता कृषि कानूनों को कतिपय संशोधनों के साथ स्वीकार करने से असहमत हैं तब प्रधानमन्त्री के आह्वान पर बातचीत शुरू हो भी जाए तो उसका नतीजा दर्जन भर पिछली वार्ताओं जैसा ही होना तय है | किसान नेताओं को श्री मोदी की ये बात तो समझ  आ गई कि  बातचीत जारी रखी जावे लेकिन उनका ये सुझाव अनसुना कर दिया गया कि आन्दोलन स्थल पर बैठे बुंजुर्गों को घर भेज दिए जाने के साथ ही आन्दोलन समाप्त कर  बातचीत जारी रहे | लेकिन श्री टिकैत का ये कहना कि देश कानून  से चलता है भरोसे से नहीं , दोनों पक्षों के बीच अविश्वास को बढ़ाने वाला ही है | जहाँ तक बात न्यूनतम समर्थन मूल्य की है तो उसकी कानूनी गारंटी देना पूरी तरह अव्यवहारिक होगा | कल को उपभोक्ता ये मांग करने लगेंगे कि कृषि  उत्पादों का अधिकतम मूल्य भी कानूनन तय किया जाये | ऐसे में सरकार के लिए उस स्थिति का सामना करना कठिन होगा | और फिर कृषि उत्पादों की संख्या भी लगातार बढ़ाई जा रही है | हाल ही में केरल सरकार ने साब्जियों  के न्यूनतम मूल्य निश्चित किये हैं | लेकिन सवाल ये है कि सरकार क्या - क्या खरीदेगी ? सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( राशन ) के लिए खरीदे जाने वाले अनाज तक के लिए भण्डारण व्यवस्था अपर्याप्त होने से करोड़ों रु. का अनाज हर साल बर्बाद हो जाता है | और फिर किसान संगठन ये बताने में असमर्थ हैं कि यदि कोई किसान अपनी तात्कालिक जरूरत पूरी करने के लिए अपना उत्पादन न्यूनतम कीमत से कम किसी को बेच दे तब उसको कौन रोकेगा ? वैसे भी अधिकतर छोटे और मध्यम किसान अपनी फसल गाँव में ही बेच देते हैं | ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार भले खरीद करे जो वह करती भी  है , लेकिन उसके लिए व्यापारी को बाध्य करने का कानून बनाये जाने के बाद भी उसे  लागू नहीं किया जा सकेगा | किसान  संगठनों का ये कहना गलत नहीं है कि उनका उत्पाद सस्ते में खरीदकर व्यापारी और उद्योगपति उस पर जबर्रदस्त मुनाफा कमाते हैं | आलू चिप्स और मक्के के आटे का उदाहरण इस दौरान खूब सुनने मिला | लेकिन इसका कारण भंडारण क्षमता और प्रसंस्करण सुविधाओं का जरूरत के अनुसार विकास नहीं किया जाना है | महाराष्ट्र के कुछ इलाके फलों की खेती के लिए काफी प्रसिद्ध हैं | उनमें फलों के रस , जैम , जैली आदि बनाने के उद्योग भी लग गये जिससे किसान को उसके उत्पाद का अच्छा मूल्य मिलता है  | देश के विभिन्न हिस्सों से आये दिन ऐसी खबरें आती हैं जिनमें कम लागत पर खेती और उससे जुड़े कारोबार से अच्छी कमाई के अवसर उत्पन्न किये जा सके | पहले कृषि के साथ पशुपालन भी अनिवार्य रूप से जुड़ा होता था लेकिन जबसे बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ली तबसे उस दिशा में किसानों की रूचि कम होती गई | पशुपालन किसानों के लिए अतिरिक्त आय का सशक्त माध्यम बन सकता है | श्री टिकैत ने सरकार को 2 अक्टूबर तक का समय दिया है , कृषि क़ानून वापिस लेने के लिए | जाहिर है इस अवधि में उन कानूनों के फायदे और नुकसान काफी हद तक सामने आने लगेंगे  | किसान संगठन कानून वापिसी पर जोर दे रहे हैं | यदि सरकार वैसा करने के बाद शांत  बैठ जाए तब भी यथास्थिति बनी रहेगी | ऐसे में अच्छा  यही होगा कि सरकार द्वारा दिए गए प्रस्ताव के अनुसार तीनों कानूनों का क्रियान्वयन साल - डेढ़ साल तक स्थगित रखा जावे और इस दौरान  दोनों पक्ष आपसी   सहमति से जरूरत के मुताबिक उनमें संशोधन कर् लें |  किसान  नेता यदि प्रधानमंत्री द्वारा  संसद में दिए गए आश्वासन पर  अविश्वास करते रहेंगे तो गतिरोध बना रहेगा | उनको ये सोचना चाहिए कि दो महीने से भी ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी वे आन्दोलन के प्रति आम जनता की  वैसी सहानुभूति और समर्थन हासिल नहीं कर सके जो कृषि प्रधान देश होने के नाते अपेक्षित था | 26 जनवरी को दिल्ली में जो हुआ उससे आन्दोलन का नैतिक पक्ष कमजोर हुआ जिसके कारण 1 फरवरी को संसद घेरने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा और उसके बाद आयोजित चकाजाम का भी वैसा असर नहीं हुआ जैसा प्रचारित किया जा रहा था | इसके बाद ही किसान नेताओं के बीच के मतभेद भी सार्वजनिक हुए और अब ये सुनने में आ रहा है कि पंजाब और हरियाणा के साथ ही उप्र से दिल्ली को होने वाली दूध और सब्जियों की आपूर्ति रोकी जायेगी | ऐसा करने से किसान सरकार पर कितना दबाव बना पायेंगे ये तो वे ही जानें लेकिन  दिल्ली के करोड़ों वाशिन्दे अवश्य इस आन्दोलन के प्रति नाराजगी रखने बाध्य हो जायेंगे | इस धमकी से ये भी साबित होने लगा है कि आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को भी कुछ सूझ नहीं रहा | समूचे परिदृश्य पर निगाह डालने के बाद यही उचित प्रतीत होता है कि प्रधानमन्त्री के आह्वान को स्वीकार करते हुए किसान नेता सकारात्मक रवैया प्रदर्शित करते हुए  कानूनों को वापिस लिए जाने की बजाय उनके स्थगन पर राजी हों | उन्हें इस वास्तविकता को समझ लेना चाहिये कि हवा में चलाये तीर किसी काम नहीं आते |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

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