Thursday 7 September 2017

बेहतर होता गौरी को पत्रकार ही रहने देते

बेंगलुरू में महिला पत्रकार गौरी लंकेश की परसों रात उनके घर के सामने गोली मारकर हत्या किये जाने की खबर पूरे देश में तेजी से फैली। गौरी के बारे में इसके पहले शायद कम लोग ही जानते होंगे किन्तु ज्यों ही ये प्रचारित किया गया कि वे हिन्दुत्व विरोधी लेखन करती रहीं त्यों ही ये भी कहा जाने लगा कि उनकी हत्या में हिन्दू संगठनों का हाथ है। अचानक पूरी वामपंथी लॉबी हरकत में आ गई। गौरी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का योद्धा साबित करने की होड़ लग गई। बात फासिज्म तक जा पहुंची। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हत्या की निंदा करते-करते प्रधानमंत्री, रास्वसंघ और भाजपा सभी को लपेट लिया। देश भर में पत्रकारों पर होने वाले जानलेवा हमलों पर उपेक्षापूर्ण रवैया प्रदर्शित करने वाले दिल्ली के पंच सितारा पत्रकारों को अचानक जोश आ गया और वे गौरी के बहाने संघ, भाजपा तथा प्रधानमंत्री को इस हत्या के लिये जिम्मेदार ठहराने के अभियान में जुट गए। कारण ये बताया जाने लगा कि गौरी हिन्दुत्व और उसकी पैरोकार विचारधारा की जमकर मुखालफत अपने लेखों एवं वाणी से करती थीं। चँूकि गौरी लंकेश पेशे से पत्रकार रहीं इसलिये पूरे देश के पत्रकार अपनी वैचारिक पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर उनकी हत्या की कड़ी निंदा एवं हत्यारों को पकड़कर दंडित करने की मांग करने लगे। जगह-जगह मोमबत्ती एवं मशाल जुलूस निकले, शासन-प्रशासन को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु ज्ञापन सौंपे गये। यहं तक तो ठीक था किन्तु ज्यों ही मेरी मुर्गी की डेढ़ टाँग की स्थिति में आ चुके वामपंथी तबके से जुड़े पत्रकारों ने हत्या का ठींकरा हिन्दुत्ववादी संगठनों पर फोडऩे का दाँव चला, गौरी पत्रकार से हटकर एक हिन्दुत्व विरोधी, वामपंथी और उससे भी बढ़कर तो नक्सल समर्थक बन गईं। यदि उनकी हत्या किसी भाजपा शासित राज्य में हुई होती तब वहां के मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगने की होड़ मच जाती किन्तु गौरी जिस राज्य में मारी गई वहाँ कांग्रेस की सत्ता है। इसीलिये न राहुल गांधी ने कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाये और न ही सहिष्णुता के ठेकेदार किसी वामपंथी बुद्धिजीवी अथवा पत्रकार ने। हद तो तब हो गई जब कल शाम दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित शोक सभा में न सिर्फ वामपंथी दलों सहित अन्य भाजपा विरोधी नेता पहुंचे अपितु उनके भाषण भी कराए गये। यदि बात एक पत्रकार की हत्या की निंदा तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण तक सीमित रहती तब किसी को उंगली उठाने का मौका न मिला होता लेकिन शोकसभा को जिस तरह राजनीतिक रूप दे दिया गया उसको लेकर पत्रकार बिरादरी में ही खेमे बँट गए। ट्विटर पर अनेक वरिष्ठ पत्रकारों ने तत्काल लिखा कि गौरी को श्रद्धांजलि देने आये राजनीतिक नेताओं की मौजूदगी  पर ऐतराज का कारण नहीं था परन्तु पत्रकारों के आयोजन में उन्हें मंच देकर शोकसभा को वोटसभा में बदलना पूरी तरह अनुचित और आपत्तिजनक था। शोकसभा में पत्रकारों और नेताओं के भाषण सुनकर ऐसा लगा मानो ये प्रेस क्लब की बजाय जेएनयू के भीतर कन्हैया कुमार एंड कंपनी द्वारा आयोजित जमावड़ा हो। इसी दौरान किसी ने गौरी लंकेश की कन्हैया तथा खालिद के साथ वाली तस्वीर सोशल मीडिया पर प्रसारित कर दी। उधर कन्हैया को ये कहते हुए टीवी पर दिखाया गया कि गौरी उनकी माँ समान थीं। बात और बढ़ी तो पता चला दिवंगत पत्रकार के नक्सलियों से संबंध थे तथा वे उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिये सरकार और उनके बीच संपर्क सूत्र भी बनती रहीं। उनके हिंदुत्व विरोधी होने के साथ ये बात भी उछाली गई कि गौरी कर्नाटक सरकार के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने के लिये काम कर रही थीं। जिन मंत्री के यहां गुजरात के कांग्रेसी विधायकों को छिपाया गया था वे भी गौरी के निशाने पर थे। ये सब पता चलने के बाद गौरी के कुछ ताजा ट्वीट भी सामने आये जिनमें वामपंथियों के बीच चल रही अंतर्कलह का जिक्र था। शायद इसीलिये भाजपा विरोधी माने जाने वाले दिल्ली के ही एक वरिष्ठ पत्रकार ने कनार्टक के गृहमंत्री के हवाले से शक की सुई माओवादियों की तरफ भी घुमा दी। कर्नाटक सरकार ने गौरी हत्याकाँड की जांच हेतु एसआईटी गठित कर दी है। जबकि गौरी का भाई सीबीआई जांच चाह रहा है। दो संदिग्ध गिरफ्तार भी कर लिये गये हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई नहीं जानता कि इस नृशंस हत्या के पीछे किसकी भूमिका रही किन्तु अपने निहित स्वार्थों की खातिर हॉशिये पर आ चुके वामपंथी पत्रकारों तथा उनकी पिछलग्गू लॉबी ने जल्दबाजी में पूरा मामला हिंदुत्ववादी विचारधारा के विरुद्ध बनाते हुए फैसला सुना दिया। वो तो सजा देने का अधिकार नहीं था वरना भाई लोग डॉ. मोहन भागवत और नरेन्द्र मोदी को पकड़ कर जेल में डलवा देते। गौरी लंकेश वामपंथी थीं या कुछ और ? उनका मजहब ईसाइयत था या इस्लाम ? ये सब बातें गौण हैं। वे एक पत्रकर थीं जिन्हें अपनी बात लिखने और कहने का हक देश के संविधान ने दिया। किसी विचारधारा अथवा व्यक्ति की आलोचना तथ्यों के आधार पर करना भी उनका मौलिक अधिकार था। यद्यपि ये भी पता चला कि वे एक सांसद के विरुद्ध प्रकाशित लेख या समाचार का प्रमाण नहीं दे सकीं जिस पर मानहानि  प्रकरण में उन्हें छह माह की सजा भी हो चुकी थी। लेकिन ये ऐसी बात नहीं है जिसके आधार पर उनकी हत्या का औचित्य साबित किया जा सके।  सबसे बढ़कर गौरी एक इंसान थीं जिसे जीवन का कानूनी तथा नैसर्गिंग अधिकार प्राप्त था और इस कारण उसकी हत्या चाहे हिंदूवादी द्वारा की गई, चाहे माओवादी या किसी अन्य द्वारा, सही नहीं हो सकती। हर समझदार व्यक्ति या संगठन उसकी केवल निंदा ही करेगा किन्तु उनकी हत्या को अपने निहित स्वार्थों के दोहन के लिये उपयोग करने की कोशिशों ने पूरे घटनाक्रम का रंग और रूप बदल दिया। राजनीति और उससे जुड़ा सत्ता का खेल अपनी जगह है परन्तु पत्रकारिता वैचारिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित होने के बाद भी बंधुआ नहीं होनी चाहिये। पत्रकार क्रोधित हो तो स्वाभाविक लगता है किन्तु कुंठित होने पर वह अपनी स्वाभाविकता खो देता है।एक मनुष्य होने के नाते वह पूरी तरह निष्पक्ष हो ये तो संभव नहीं किंतु बिकाऊ हो ये भी उचित नहीं होता। ऐसे में यही बेहतर होता कि गौरी लंकेश की मौत को एक पत्रकार की मौत ही रहने दिया जाता। उन्हें किसी विचारधारा या धर्म का विरोधी बताकर उनके तथाकथित समर्थकों ने भले ही तात्कालिक रूप से अपना उल्लू सीधा कर लिया हो किन्तु एक गंभीर प्रश्न को बेमतलब के विवाद में भी फंसा दिया। संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री की आलोचना के अवसर तो और भी मिलते  रहते किन्तु कर्नाटक सरकार की जिम्मेदारी पर सवाल न उठाया जाना भी सवाल खड़े कर गया।

-रवींद्र वाजपेयी

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