Wednesday 13 September 2017

कमाई : कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे नेता एक हैं

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर उन लोगों के गिरेबाँ पर हाथ डालने की हिम्मत दिखाई है जिन्होंने राजनीति को व्यापार बना रखा है। कतिपय सांसद-विधायकों की संपत्ति में दिन-दूनी, रात चौगुनी वृद्धि का संज्ञान लेते हुए अदालत ने ये प्रश्न भी उठाया है कि आखिर सोते जागते जनसेवा में जुटे ये जन प्रतिनिधि कब और कैसे व्यवसाय कर पाते हैं? एक याचिका की सुनवाई के दौरान ये तथ्य भी उभरकर सानमे आया कि चुनाव नामांकन पत्र में उनके द्वारा दिया गया आय एवं संपत्ति का विवरण आयकर रिटर्न से मेल नहीं खाता। आयकर विभाग ने 7 सांसदों एवं तकरीबन 100 ऐसे विधायकों की सूची न्यायालय में सौंपी है जिनकी वास्तविक आय एवं संपत्ति घोषित विवरण से ज्यादा पाई गई। इनके अलावा बाकी के बारे में भी जांच कराई जाने की जानकारी भी दी। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि जनता को नेताओं की कमाई का स्रोत पता होना चाहिये। याचिका कर्ता ने भी मांग की है कि नामांकन पत्र में भी आय का स्रोत स्पष्ट होना चाहिये। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर काफी सख्त रवैया अपनाया हुआ है इस वजह से आयकर विभाग, चुनाव आयोग एवं केन्द्र सरकार तीनों हरकत में आ गये हैं। कई सांसदों-विधायकों की संपत्ति में 500 गुनी वृद्धि होना निश्चित रूप से हैरत में डालने वाला है क्योंकि इसे लेकर ये प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर वे चुनाव जीतने के बाद की व्यस्त जिंदगी में से समय निकालकर अपने व्यवसाय को किस तरह संचालित कर पाते हैं? सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रूख के बाद आयकर विभाग ने जिन सांसदों और विधायकों की जांच करने का बीड़ा उठाया है उनके नाम जानने की उत्कंठा पूरे देश को है। सर्वोच्च न्यायालय को भी चाहिये कि वह बिना देर किये उन नामों को सार्वजनिक करे जिन्होंने सियासत को तिजारत बनाकर कई पीढिय़ों का इंतजाम कर लिया। यद्यपि नेताओं की संपन्नता में अचानक होने वाली वृद्धि सदैव चर्चा का विषय रही किन्तु शिक्षा एवं जागरूकता के प्रसार के कारण इस मुद्दे को सार्वजनिक बहस का विषय बनाने की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह चुनाव आयोग से होते-होते सर्वोच्च न्यायालय तक आ पहुंची। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नेताओं के रूप में देश के भीतर नव सामंतों का एक नया वर्ग पैदा हो गया है। पिछड़ी और दलित जातियों के रहनुमा कहे जाने वाले नेताओं के पास देखते-देखते करोड़ों-अरबों कहां से आ गये, ये सवाल चिल्ला-चिल्लाकर पूछा जा रहा है। राजनेताओं में कौन ज्यादा और कौन कम भ्रष्ट है ये आकलन करना अलग विषय है अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का छोड़ दें तो सभी दिन-रात दोनों हाथों से बटोरने में जुटे हैं। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद भी सारे नेतागण एक दूसरे के साथ वैैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा बकौल पोरस एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में जो निर्णय देगा उसको चुनाव आयोग किस हद तक लागू कर पाएगा ये इस बात पर निर्भर करेगा कि संसद इस बाबत क्या करती है क्योंकि जब पेट पर लात पड़ती है तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के नेता मिले सुर मेरा तुम्हारा की राग अलापते एक हो जाते हैं। यही कारण है कि तमाम वायदों के बाद भी लोकपाल का गठन ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। बावजूद इसके सर्वोच्च न्यायालय ने ठहरे हुए पानी को हिलाने का जो प्रयास किया उससे तलहटी में जाकर जम गई गंदगी थोड़ी बहुत तो सतह पर आएगी ही। आजीविका हेतु काम-धंधा करना सांसदों और विधायकों का अधिकार है परन्तु चुनाव जीतते ही उनके पास ऐसा कौन सा अलादीन का चिराग आ जाता है जिसकी मदद से वे फकीर से अमीर बन जाते हैं। इसका फार्मूला सभी को पता चलना चाहिये जिससे कि उन्हें चुनने वाली जनता के भी अच्छे दिन आ सकें।

रवींद्र वाजपेयी

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