Friday 22 September 2017

महिलाओं को उनका वाजिब हक मिलना चाहिये

लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने 2017 के शुरू होते ही मांग की थी कि संसद और विधासनसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने वाले विधेयक को पारित करवाए। 2010 के बजट सत्र में राज्यसभा ने इसे पारित कर दिया था परन्तु लोकसभा में इस विधेयक की कई मर्तबा फजीहत हो चुकी है। इसकी वजह मंडल समर्थक नेताओं की लॉबी है जो चाहती है कि 33 प्रतिशत आरक्षण में भी पिछड़ी जातियों का कोटा तय किया जावे। इसी को लेकर शरद यादव ने लोकसभा में  विधेयक मंत्री के हाथ से छीनकर फाड़ तक  दिया था। उन्होंने यहां तक कह दिया कि मौजूदा प्रारूप को पारित करने पर केवल परकटी (आधुनिक) महिलाएं लाभान्वित होंगी। उस बयान पर श्री यादव की काफी आलोचना भी हुई। समाजवादी नेता मधु दंडवते की पत्नी प्रमिला ने भी उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाईं थीं। कांग्रेस के साथ वामपंथी दल भी महिला आरक्षण पर राज्यसभा द्वारा पारित विधेयक को ही पारित करवाने के पक्षधर रहे हैं किन्तु लोकसभा में बहुमत न होने से बात अटकी रही। लालू और मुलायम भी आरक्षण के भीतर आरक्षण को लेकर अड़े रहे। मायावती और रामविलास पासवान भी ऐसा ही चाहते रहे हैं। जहाँ तक बात भाजपा की है तो शुरू-शुरू में तो वह भी विधेयक को जस का तस पारित करवाने को राजी थी परन्तु बाद में उमाश्री भारती सहित ओबीसी वर्ग के अन्य नेताओं ने भी जब मंडल राग अलापना शुरू कर दिया, तब पार्टी ने बर्र के छत्ते में पत्थर मारने से परहेज कर लिया। पता चला है मोदी सरकार ने इस विधेयक को लोकसभा के आगामी सत्र में पारित करवाने का फैसला कर लिया है। इस बारे में अरूण जेटली ने कांग्रेस के कतिपय नेताओं से बात भी कर ली। इस पहल का उद्देश्य देश भर की महिला मतदाताओं को आकर्षित करना ही हो सकता है। गुजरात चुनाव में भाजपा इसे भुनाने की कोशिश भी करेगी। उ.प्र. विधानसभा चुनाव के दौरान तीन तलाक का मुद्दा छेडऩे का जबर्दस्त लाभ मिलने से भाजपा के रणनीतिकार काफी उत्साहित हैं। ज्योंही कांग्रेस को भनक लगी त्योंही वह भी श्रेय की होड़ में शामिल हो गई। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर समर्थन का वायदा करते हुए ये याद भी दिला दिया कि लोकसभा में सरकार के पास चूंकि पर्याप्त बहुमत है अत: उसका लाभ उठा लिया जाए। अब यदि कांग्रेस भी साथ दे दे तथा भाजपा में ओबीसी लॉबी टांग न अड़ाये तब विधेयक का पारित होना संभव हो जायेगा। लेकिन ये इतना आसान भी नहीं है क्योंकि भाजपा पर भी अब सवर्ण जातियों का कब्जा नहीं रहा। स्वयं प्रधानमंत्री भी पिछड़ी जाति के हैं तथा जान देकर भी आरक्षण जारी रखने की बात कह चुके हैं। अमित शाह भी 2019 के मिशन में दलित, आदिवासी सहित उन जातियों के बीच पार्टी का आधार मजबूत करने के लिये जुटे हैं जो अन्य दलों का वोट बैंक मानी जाती हैं। एक बार मान लें कि भाजपा राज्यसभा द्वारा पारित विधेयक को ही पारित करवा लेगी तब ये प्रश्न उठेगा कि संसद में अचानक एक तिहाई सीटों से पुरुषों की विदाई कहीं निर्णय क्षमता को प्रभावित तो नहीं करेगी? इसके जवाब में एक बात ये भी सामने आई थी कि संभवत: लोकसभा में सीटें बढ़ाई जावेंगी या फिर कई मौजूदा सीटों पर पुरुषों के साथ ही महिला सांसद चुनने की भी व्यवस्था की जावेगी जिससे निर्वाचन क्षेत्र बढ़ाने की जरूरत न पड़े। जो भी होगा वह विधेयक के पारित होने पर ही सामने आयेगा किन्तु इतना जरूर है कि लोकसभा अध्यक्ष की अपेक्षानुसार केन्द्र सरकार के हरकत में आने और श्रीमती गांधी द्वारा समर्थन की चि_ी भेज देने के बाद अब इस बात पर भी बहस की जरूरत है कि क्या देश इस स्थिति में है जो एक तिहाई सांसद और विधायक महिलाओं को बना दिया जावेे। ग्राम पंचायत तथा अन्य स्थानीय निकायों में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बरसों पहले लागू हो चुका  है। उसकी वजह से महिलाओं की हिस्सेदारी शासन-प्रशासन में बढ़ी भी है। कुछ महिलाएं तो बहुत ही अच्छा कार्य कर रही हंै किन्तु अधिकांश या यूं कहें कि 75 प्रतिशत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। यहां तक कि विधायक और सांसद बन जाने वाली महिलाएं भी पुरुषों के समकक्ष नतीजे नहीं दे पातीं। यद्यपि सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज और सोनिया गांधी जैसे कई नाम हैं जिन्होंने महिलाओं की नेतृत्व क्षमता को जोरदार तरीके से प्रमाणित किया है लेकिन एक तिहाई विधायक-सांसदों की सीटों पर योग्य और सक्षम महिलाओं का चयन राजनीतिक दलों के लिये भी बड़ा सिर दर्द बन जायेगा। हॉलांकि सभी पार्टियों में महिलाओं के प्रकोष्ठ बन चुके हैं तथा न केवल उच्चशिक्षित तथा संपन्न परिवारों की अपितु गरीब एवं मध्यम वर्ग से भी महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में नजर आने लगी हैं। उनमें महत्वाकांक्षा भी बढ़ी है। शिक्षा के प्रसार ने भी अनेक युवतियों को राजनीति में आकर अपनी क्षमता दिखाने हेतु प्रेरित-प्रोत्साहित किया हंै। अनेक राज्यों में महिला मुख्यमंत्री पुरुषों के बराबर ताकतवर रही हैं। ममता बैनर्जी और उनके पूर्व स्व. जयललिता एवं शीला दीक्षित इसकी उदाहरण हैं। बावजूद इसके विधान और लोकसभा में एक तिहाई महिला सदस्य ढूंढ़ पाना आसान नहीं होगा। ये मानकर चलना चाहिए कि विधेयक जस का तस पारित हो या संशोधनों के साथ परन्तु प्रारंभिक दौर में तो अपेक्षाकृत कम योग्य एवं क्षमता वाली महिला सदस्यों को चुनना देश की मजबूरी बन सकती है। दूसरी तरफ ये सोचना भी गलत नहीं होगा कि दस वर्ष के बाद महिलाओं के बीच से ही सक्षम-सुयोग्य नेतृत्व उभरेगा। अब ये दायित्व राजनीतिक दलों का होगा कि वे बिना पक्षापात एवं रागद्वेष के ऐसी महिलाओं को सक्रिय भूमिका में लाएं जो नेतृत्व के मामले में आत्म्निर्भर होकर काम कर सकें। अनु.जाति और जनजातियों को आरक्षण देने के बाद भी उनके बीच से चन्द अपवादों को छोड़कर ऐसा नेतृत्व नहीं उभर सका जो आश्वस्त कर सके। लेकिन इस कारण से महिला आरक्षण विधेयक को टांगकर रखे रहना भी उचित नहीं है। बेहतर होगा यदि राजनीतिक नफे-नुकसान से ऊपर उठकर संसद-विधानसभा में देश की आधी आबादी को उनका वाजिब प्रतिनिधित्व दिया जाए। मंडल समर्थक् सदस्यों को भी अपनी जिद छोड़कर विधेयक के मौजूदा प्रारूप को स्वीकार कर लेना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति के मद्देनजर अब बतौर जनप्रतिनिधि भी उन्हें अवसर देना जरूरी हो गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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