Tuesday 19 September 2017

सांप को गले में डालने की मूर्खता न दोहराएं

जो देश इतिहास में दर्ज गल्तियों से सबक नहीं लेता  वह अपनी एकता, अखंडता और स्वाधीनता तीनों से हाथ धो बैठता है। यदि सीमा को लांघकर आये पहले आक्रान्ता के प्रति हमारा देश कठोर हो जाता तब शायद सैकड़ों वर्षों की गुलामी एवं उससे जुड़े अपमान नहीं झेलने पड़ते। लंबे संघर्ष के बाद यद्यपि सत्तर वर्ष पूर्व भारत अंगे्रजों की दासता से मुक्त हो गया किन्तु जाते-जाते गोरी सत्ता देश को टुकड़ों में बांट गई। उम्मीद की जाती थी कि टूटा-फूटा ही सही किन्तु आजाद हिन्दुस्तान अब उन ऐतिहासिक भूलों को नहीं दोहराएगा जो खोखले आदर्शवाद के चलते हमारे पूर्वज करते रहे लेकिन वर्तमान और भविष्य के फेर में हम इतने उलझ गए कि उन पन्नों को पलटने की कभी कोशिश ही नहीं की जिनमें हमारी वे लापरवाहियां दर्ज हैं जिनके कारण सोने की चिडिय़ा विदेशियों के पिंजरे में कैद होकर रह गई थी। पहले मुगल और फिर अंगे्रजों ने भारत पर अपनी प्रभुसत्ता कायम की। फ्रांस और पुर्तगाल ने भी छोटे-छोटे हिस्सों पर कब्जा जमाए रखा। 1947 में मिली स्वतंत्रता के बाद होना तो ये चाहिए था कि इतिहास की उन गल्तियों को न दोहराए जाने की पुख्ता तैयारी होती किन्तु हुआ उसके विपरीत। तथाकथित उदारता एवं राष्ट्रपति की कीमत पर दिखाया जाने वाला आदर्शवाद कश्मीर समस्या के रूप में शुरू हुआ। दूसरा झटका दिया 1962 में चीन ने। इन संकेतों को ठीक तरह से समझने की बजाय देश चुनावी राजनीति के जंजाल में उलझकर रह गया। यही वजह है कि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति के उत्पन्न समस्या जब तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से टिड्डी दल की तरह आये शरणार्थियों के रूप में हमारी देहलीज पर मंडराने लगी तब भी हम उसके तात्कालिक एवं तदर्थ हल में ही उलझे रहे। भले ही बांग्लादेश बनवाकर भारत ने पाकिस्तान को तोडऩे का पराक्रम कर दिखाया हो परन्तु ये कहना गलत नहीं होगा कि उसकी कीमत आज तक भारत चुका रहा है। 1971 के युद्ध के समय लाखों की संख्या में आये बांग्लादेशी शरणार्थी तो परिस्थितियों के मारे थे। भारत ने उन्हें शरण देकर इंसानियत का फर्ज निभाया किन्तु जब बांग्लादेश बन गया तब उन्हें तत्काल वापिस भेजने की कवायद क्यों नहीं की गई। इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। और फिर वह आवक एक सिलसिला बन गई। न सिर्फ सीमावर्ती पूर्वोत्तर राज्यों में बल्कि समूचे देश में बांग्लादेश से अवैध रूप से आये घुसपैठियों ने भारत को अपना घर बना लिया। इसकी वजह से उत्पन्न समस्याएं किसी से छिपी नहीं हैं बावजूद इसके एक तबका म्यांमार से अवैध रूप से आये रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों को निकाल बाहर करने की केन्द्र सरकार की कोशिशों के विरोध में खड़े हो गये हैं। इंसानियत और मानव अधिकारों की दुहाई के साथ ही शरणागत को संरक्षण देने की प्राचीन परंपरा का हवाला देकर लगभग 40 हजार रोहिंग्या मुस्लिमों को वापिस म्यांमार भेजने के केन्द्र सरकार के फैसले का विरोध किया जा रहा है, इसे साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखते हुए चुनावी राजनीति का हिस्सा बताने वाले भी कम नहीं हें। म्यांमार से बीते पांच वर्षों में हजारों रोहिंग्या मुस्लिमों ने चोरी छिपे भारत में न सिर्फ प्रवेश कर विभिन्न शहरों मेें ठिकाने बना लिये बल्कि व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर वे दस्तावेज भी हासिल कर लिये जिनसे वे अपनी नागरिकता साबित कर सकें। जब सरकार ने रुख कड़ा किया तब मामला सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंचा जहां प्रशांत भूषण सरीखे चर्चित वकील उनकी पैरवी करने खड़े हो गये। उसी के बाद ये मुद्दा राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बनने लगा। न्यायालय ने केन्द्र से जवाब मांगा तो गत दिवस उसने हलफनामा देते हुए कह दिया कि रोहिंग्या मुस्लिम देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं। उनके आतंकवादियों से संबंधों का अंदेशा व्यक्त करते हुए सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से बिना हिचक कह दिया कि उन्हें शरण देना या नहीं देना पूरी तरह नीतिगत मामला है जिसमें न्यायपालिका की दखलंदाजी की कोई आवश्यकता और औचित्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला करता है इसके लिए अभी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी किन्तु केन्द्र सरकार के फैसले को लेकर विभिन्न राजनीतिक नेता ही नहीं वरन् उनके साथ अन्य तबके के लोग भी जिस तरह रोहिंग्या मुस्लिमों के पक्ष में खड़े हो गये हैं वह देखकर हैरानी होती है। बांग्लादेशी घुसपैठियों को अपने मतदाता के रूप में उपयोग करने की जो गलती पहले-पहल कांगे्रस ने की उसे बंगाल, त्रिपुरा आदि में वामपंथियों ने दोहराया और अब ममता बैनर्जी भी उसी राह पर चल रही हैं। रोहिंग्या मुस्लिमों को शरण देने की वकालत करने वालों का उद्देश्य भी देशभर के मुसलमानों को ये बताना मात्र है कि वे उनके प्रति कितने फिक्रमंद हैं लेकिन गत दिवस ही किसी आतंकवादी का एक व्यक्ति गिरफ्तार हो गया जिसके रोहिंग्या मुस्लिमों से तार जुड़े होने की बात सामने आई है। ये बात भी उजागर हो गई है कि म्यांमार में बौद्धों के साथ रोहिंग्या मुस्लिमों की जो लड़ाई है उसमें इस्लामी आतंकवादी संगठनों की भी भूमिका है जाहिर है भारत ऐसे अवसरों पर एक उदार एवं बेहद संवेदनशील रवैये के लिए प्रसिद्ध है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय भी हमसे वैसी ही अपेक्षा करता है किन्तु चाहे बांग्लादेशी घुसपैठिये हों या फिर रोहिंग्या मुस्लिम ये केवल शरणार्थी नहीं अपितु भारत विरोधी उन ताकतों के मोहरे भी बन जाते हैं जो देश को भीतर से कमजोर करने पर आमादा हैं। म्यांमार में संकट के गहराने से ये आशंका बढ़ रही है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान सीमा पार कर भारत में घुसना चाह रहे हैं। निश्चित रूप से ये बिन बुलाई मुसीबत एक स्थायी समस्या का रूप लिये बिना नहीं रहेगी। इसलिए जरूरी है कि इसकी भू्रण हत्या कर दी जावे। जो वामपंथी रोहिंग्या घुसपैठियों की वकालत कर रहे हैं उन्हें अपने वैचारिक गुरु माओ त्से तुंग की इस प्रसिद्ध उक्ति को याद कर लेना चाहिए कि राष्ट्रों का निर्माण लहू और लोहे से होता है केवल भावनाओं के ताने बाने से नहीं। सांप को गले में डालने के दुष्परिणाम भोगने के बाद भी यदि वही मूर्खता बार-बार की जाती रही तो देश की एकता और अखंडता की रक्षा असंभव हो जाएगी।

-रवींद्र वाजपेयी

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