Friday 29 September 2017

बीमारी बताई तो इलाज भी बताएं

पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा के जोरदार धमाके से मोदी सरकार और भाजपा को कितना नुकसान हुआ या आने वाले दिनों में होगा इससे भी बढ़कर विचारणीय मुद्दा ये है कि यदि नोटबंदी और जीएसटी से जैसा कि आलोचक मान रहे हैं अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तब उसे पटरी पर लौटाने के तरीके कौन से होने चाहिये? यशवंत जी ने जिस तरह मोर्चा खोला उससे एक बात स्पष्ट हो गई कि वे पार्टी में अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध थे। भले ही उनके बेटे को मंत्रिमंडल में स्थान मिला परन्तु अपनी वरिष्ठता एवं अनुभव का समुचित उपयोग नहीं होने की टीस पूर्व वित्तमंत्री के मन में रह-रहकर उठ रही थी। परसों अखबारी लेख के जरिये सामने आई खुन्नस कल जुबानी जंग में बदल गई। समाचार माध्यमों के लिये अचानक श्री सिन्हा टीआरपी नामक आकर्षण बन गए और इसी दौरान उन्होंने दो बातों का खुलासा किया। पहली तो ये कि वे एक वर्ष से प्रधानमंत्री से मिलना चाह रहे थे किन्तु समय नहीं मिला और दूसरी ये कि जब स्वयं नरेन्द्र मोदी जीएसटी की खिलाफत किया करते थे तब पूरी भाजपा में वे अकेले इसके पक्षधर थे। लेकिन इसे नोटबंदी के नतीजे पूरी तरह सामने आने के बाद बजाय 1 जुलाई के 1 अक्टूबर से लागू करना था। बाकी तो उन्होंने वही सब दोहराया जो संदर्भित लेख में था। उनकी बातों को आधार बनाकर पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम भी सरकार पर चढ़ बैठे। यद्यपि बेटे जयंत द्वारा पिता की आलोचना के प्रत्युत्तर में सरकार के बचाव में लिखे लेख को विपक्ष ने सरकारी प्रेस नोट कहकर मखौल उड़ाया परन्तु इससे यशवंत जी के हमले की धार कुछ कमजोर तो हुई है। उनके समूचे हमले का केन्द्र बिन्दु रहे वित्तमंत्री अरूण जेटली ने तो और भी तीखा हमला बोलते हुए उन्हें 80 की उम्र में रोजगार की चाहत रखने वाला बता डाला। यही नहीं वाजपेयी सरकार में उन्हें वित्तमंत्री पद से हटाने का जिक्र करना भी वे नहीं भूले। इस प्रकार की चुभने वाली बातों से यही संकेत मिला कि सरकार की तरफ से यशवंत बाबू के प्रति नरमी की कोई संभावना नहीं है। बहरहाल पूरे विवाद में एक बात तो पूर्व वित्तमंत्री ने भी स्वीकारी कि जीएसटी एक अच्छी व्यवस्था है। उन्होंने उसे तीन माह बाद लागू करने की बात कहकर ये भी स्वीकार किया कि वे लम्बे समय तक उसे टालने के पक्ष में नहीं थे। बढ़ती बेरोजगारी और घटती विकास दर सहित निजी निवेश में गिरावट के जो आरोप उनकी तरफ से लगाए गए वे भी किसी प्रमाण के मोहताज नहीं हैं परन्तु अब तक श्री सिन्हा ने उन उपायों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा जो मौजूदा संकट से देश को निकालने में मददगार बन सकें। एक अनुभवी प्रशासक, राजनीतिक नेता तथा पूर्व वित्तमंत्री रहे व्यक्ति को चाहिए था कि वह वित्तमंत्री को पत्र लिखकर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने संबंधी रास्ते सुझाकर जिस समाचार पत्र में उन्होंने आलोचनात्मक लेख लिखा उसी में यदि नोटबंदी और जीएसटी से उत्पन्न व्यवहारिक परेशानियों से निकलने के नुस्खे भी वे बताते तब भी वे ध्यान आकर्षित करते तथा चर्चा में आ जाते। हॉलांकि सरकार की आलोचना में उलझे रहने की वजह से भले ही वे विपक्ष के चहेते बन गए तथा समाचार माध्यमों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया हो किन्तु ये सनसनी तभी तक रहेगी जब तक कोई दूसरा धमाका न हो जाए। फर्ज करें यदि हनीप्रीत फरारी से निकलकर पुलिस अथवा अदालत के सामने पेश हो जाएं तो यशवंत बाबू साधारण समाचार बनकर रह जायेंगे। उन्होंने जो भी मुद्दे उठाये वे सामयिक एवं पूरी तरह प्रासंगिक हैं। उन्होंने जिस अंदाज में आलोचना की वह क्षणिक आवेश बनकर रह जाएगा यदि वे यह नहीं बताते कि नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था पर पड़े बुरे असर को दूर करने के लिये क्या किया जावे? कोई चिकित्सक मरीज की बीमारी का बखान तो चिल्लाकर करे परन्तु उसका इलाज न सुझाए तब उसके बारे में क्या राय बनेगी ये श्री सिन्हा को सोचना चाहिए। यशवंत जी को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि उनकी लिखित और जुबानी आलोचना एक बुद्धिजीवी अथवा अर्थशास्त्री की न होकर एक राजनीतिक नेता की अभिव्यक्ति है और इसलिये उसका उत्तर भी राजनीतिक शैली में ही मिलेगा। यशवंत सिन्हा एक धीर-गंभीर व्यक्तित्व के रूप में सम्मनित रहे हैं। बेहतर होगा वे अपनी इस छवि को बनाए रखें वरना वे भी शत्रुघ्र सिन्हा की कतार में खड़े हो जायेंगे जिन्हें अब कोई भी गंभीरता से नहीं लेता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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