Wednesday 20 September 2017

अर्थव्यवस्था : अगले 15 दिन महत्वपूर्ण

रात को 12 बजे घंटा बजाकर जीएसटी नामक कर प्रणाली को लागू करने का श्रेय लेने के महज दो माह बाद ही यदि केन्द्र सरकार के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभरने लगीं तो स्वाभाविक है परिणाम आशानुरूप नहीं रहे। जुलाई माह की जीएसटी विवणियों से आये लगभग 93 हजार करोड़ में से 65 हजार करोड़ बतौर इन पुट क्रेडिट व्यापारियों को वापिस करने की बात स्पष्ट होते ही मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधकों को पसीना आने लगा। गिरती विकास दर, कारोबार में सर्वत्र निराशाजनक माहौल की चर्चा, रोजगार सृजन में सुस्ती तथा पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ रही कीमतों से एकाएक ये धारणा मजबूत होने लगी कि आर्थिक मोर्चे पर अच्छे दिन का वायदा पूरी तरह फुस्स हो गया और उसके ठीक उलट बुरे दिन आ गये और वह भी बैंड-बाजा-बारात के संग। गत दिवस वित्त मंत्री अरूण जेटली के साथ अनेक मंत्री और सलाहकार बैठे। प्रधानमंत्री के सामने स्थिति का विवरण पेश करने की कवायद भी शुरू हो गई है। पेट्रोलियम मंत्री दीपावली तक पेट्रोल-डीजल की कीमतें गिरने का आश्वासन दे रहे हैं। जीएसटी काउंसिल की बैठक में इन दोनों चीजों को भी जीएसटी के दायरे में लाने का दबाव केन्द्र की तरफ से डाला जावेगा। दरअसल केन्द्र सरकार की समझ में एक बात पूरी तरह से आ गई है कि अर्थ व्यवस्था से जुड़ी तकनीकी और गूढ़ बातों पर अब चंद दिमाग वालों का एकाधिकार नहीं रह गया। बढ़ती शिक्षा एवं सूचना तकनीक के विकास ने औसत दर्जे के शिक्षित व्यक्ति की समझ में भी ये बात डाल दी है कि पेट्रोल-डीजल पर भारी-भरकम करारोपण के जरिये न सिर्फ केन्द्र वरन् राज्य भी मुनाफाखोरी के कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। व्यापारी को कालाबाजारी और मुनाफाखोरी के लिये प्रताडि़त करने वाली सरकार नामक व्यवस्था ने बीते कुछ वर्षों में पेट्रोल-डीजल से जो कमाई की भले ही उसको इन्फ्रास्ट्राक्चर एवं रक्षा सौदों पर खर्च किया हो परन्तु वह आम जनता को ये समझाने में सफल नहीं हो सकी कि उसकी नीयत साफ है। नोटबंदी और जीएसटी दोनों को लेकर जो उम्मीदें जगाई गईं थीं वे सैद्धांतिक तौर पर भले ही सरकार की उम्मीदों के मुताबिक रही हों परन्तु व्यवहार में देखें तो अब तक उनका नकारात्मक असर ही ज्यादा दिखाई दे रहा है। यद्यपि ये अच्छी बात है कि केन्द्र सरकार किसी घपले और घोटाले के आरोप में नहीं फंसी किन्तु जनता के नजरिये से देखें तो महज इतने से उसे संतुष्टि नहीं मिल रही। अब प्रश्न ये है कि मौजूदा स्थिति से देश बाहर कैसे आयेगा? दीपावली का मौसम भारत में व्यापार की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होता है जब माटी के दिये से लेकर करोड़ों रूपये के आभूषण तक बिक जाते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार और व्यापार जगत दोनों उम्मीद लगाए बैठे हैं। नोटबंदी को साल बीतने जा रहा है। जीएसटी को लेकर व्याप्त अनिश्चिता अभी तक बनी हुई है क्योंकि उसे लागू करने में सरकार की अपनी व्यवस्था अपर्याप्त साबित हो रही है। वित्त मंत्री ने शुरू में ही ये संकेत दिये थे कि आगे जाकर जीएसटी की दरों में जरूरत पडऩे पर कमी की जाएगी वहीं बीतें कुछ दिनों से ये खबरें भी आ रही हैं कि चार की बजाय 12 और 18 प्रतिशत दो ही दरें रहेंगी। आयकर छूट सीमा के साथ ही उसकी दरों में कमी की अटकलें भी लग रही हैं। क्या होगा, क्या नहीं फिलहाल कह पाना कठिन है क्योंकि जीएसटी का नियमन जो काउंसिल करती हैं उसमें सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व है, जिनमें अलग-अलग दलों का शासन है। उससे भी बढ़कर तो क्षेत्रीय दल भी प्रभावशाली हैं। ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार के सामने कई विचारणीय मुद्दे हंै। मसलन, बाजार में मांग बढ़ाना जिससे कारोबारी सुस्ती दूर हो क्योंक ऐसा नहीं होने पर कर वसूली भी अपेक्षानुरूप नहीं होगी जिसका खामियाजा विकास परियोजनाओं को पूरा करने में होने वाले विलंब के तौर पर सामने आयेगा। लेकिन यदि सरकार आर्थिक मोर्चे पर सफलता के साथ ही जनता का समर्थन और विश्वास बनाये रखना चाहती है तब उसे कर ढांचे को सहज और सरल बनाना होगा। काले धन के खिलाफ की जा रही सख्ती पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिये किन्तु सब चोर हैं की धारणा भी बदलनी चाहिये। नोटबंदी की तकलीफें झेलने के बाद भी यदि उ.प्र. में भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत मिला तो इसका आशय यही था कि जनमानस सरकार के कड़े कदमों का समर्थन करता है। जीएसटी को लेकर लगाई गई उम्मीदें भी अभी खत्म नहीं हुई हैं। बड़ा व्यापारी वर्ग उससे उत्पन्न व्यवहारिक परेशानियों के बाद भी इस बात को लेकर आशान्वित है कि व्यवस्था सुधर जाने के उपरांत उसके लिये काम करना आसान हो जाएगा। सितंबर का महीना खत्म होने के साथ ही जीएसटी को तीन माह पूरे हो जायेंगे। यद्यपि विवणियां भरने में आ रही दिक्कतों के मद्देनजर इस तिमाही के आंकड़े तो नवंबर के पहले तक शायद ही उपलब्ध हो पाएं किन्तु गुजरात चुनाव रूपी चुनौती के सामने होने की वजह से प्रधानमंत्री यथास्थिति से निकालकर अर्थव्यवस्था संबंधी कुछ न कुछ ऐसा जरूर करेंगे जिससे उनके अपने राज्य में भाजपा का कब्जा बरकरार रहे। नरेन्द्र मोदी के सामने डा. मनमोहन सिंह सरीखी कोई मजबूरी नहीं है जिनके ऊपर 10 जनपथ नामक समानांतर सत्ता हावी थी। ऐसे में ये उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि दीपावली के पहले ही आर्थिक मोर्चे पर राहत का एहसास कराया जावेगा। केन्द्र सरकार के अगले बजट पर भी इसीलिये अभी से नजरें लग गई हैं क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार के लिये कुछ ऐसे उपाय करने की मजबूरी तो है ही जिनसे आम जनता को सीधा-सीधा फायदा मिल सके। इस दृष्टि से आने वाले एक-दो पखबाड़े काफी महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर जो आशकाएं पूर्व प्रधानमंत्री डा. सिंह जता रहे हैं लगभग वहीं भाजपा के अपने सांसद और संघ परिवार के चहेते डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने भी व्यक्त की हैं। उधर पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों पर भाजपा के नए दोस्त जनता दल (यू) ने भी आगाह किया वहीं सबसे पुराने साथी शिवसेना ने भी तलाक की धमकी दे दी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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