Monday 4 September 2017

विकास दर चुनौती है चिंता नहीं

नोटबंदी के अधिकृत आंकड़ों के खुलासे के एक दिन बाद ही खबर आ गई कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर बीते साल की आखिरी तिमाही से भी कम अर्थात् 5.7ज् रह गई। ये तीन साल में सबसे कम बताई जा रही है। जनवरी से मार्च 2017 के दौरान विकास दर 6.1 फीसदी रही थी। तब ये माना गया था कि नोटबंदी के असर के चलते उसमें गिरावट आई जो अति स्वाभाविक था परन्तु अपै्रल से जून 2017 के बीच उसमें और गिरावट आने का सीधा-सीधा अर्थ यही निकलेगा कि आर्थिक क्षेत्र में ठहराव की स्थिति जारी है। यद्यपि इस तिमाही में नगदी की उपलब्धता जैसी कोई अड़चन तो नहीं रही किन्तु जीएसटी के लागू होने की वजह से छाई अनिश्चितता से औद्योगिक इकाइयों के साथ ही बड़े व्यापारियों में अपना स्टॉक खत्म करने की आपाधापी मची रही। जीएसटी की दरों को लेकर चल रही खींचातानी तथा नियम कायदों के बारे में अनिश्चितता ने भी कारोबार में ठंडक की स्थिति बना दी। ऐसे में पहली तिमाही में 5.7ज् की विकास दर भी संतोषजनक न सही किंतु व्यवहारिक रूप से सामान्य कही जाएगी। इस बारे में गत रात्रि प्रसारित एक ट्वीट ने ध्यान आकर्षित किया जिसमें कहा गया था कि विकास दर में वृद्धि के आंकड़ों को अतिरंजित मानने वाला विपक्ष उसमें आई गिरावट पर भरोसा करता है या नहीं? इस टिप्पणी के परिपे्रक्ष्य में वाजपेयी सरकार के पतन के बाद विकास दर में आई गिरावट पर डॉ. मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम दोनों ने कहा था कि उसकी सही स्थिति वही है। उससे ये आभास भी हुआ था कि पिछली सरकार ने विकास संबंधी आँकड़ों में बाजीगरी कर डाली। ऐसी ही बात डॉ. सिंह ने डॉलर के मुकाबले रूपये की कीमत में हुई अप्रत्याशित गिरावट को लेकर भी कही थी। अर्थशास्त्र में एक उक्ति काफी उक्ति काफी प्रचलित है- झूठ, सफेद झूठ और आंकड़ा। ये एक तरह का तंज है जिसका अभिप्राय ये है कि अपनी उपलब्धियों के झूठे प्रचार हेतु आंकड़ों का सहारा लिया जाता है। मोदी सरकार पर भी पहले दिन से ही ये आरोप लगता रहा है कि वह आर्थिक प्रगति के दावे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। लेकिन जनवरी से मार्च और फिर अपै्रल से जून के दौरान दो तिमाहियों में विकास दर में आई गिरावट के बाद केन्द्र सरकार कम से कम उस आरोप से तो बच ही गई। हालांकि इससे घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि ये गिरावट परिस्थितिजन्य है। नोटबंदी के कारण बाजार में नगदी का अभाव होने से लेन-देन प्रभावित हुआ ये सर्वविदित था। लेकिन जब नगदी की कमी दूर हो गई तब भी अर्थव्यवस्था की गति धीमी इस बात का संकेत है कि कालेधन का उपयोग कठिन हो जाने से व्यापारिक गतिविधियों में उछाल रुक गई। रही-सही कसर पूरी कर दी जीएसटी को संसद की मंजूरी मिलने से। ज्यों ही बाजार को लगा कि जीएसटी का लगना तय है उसने उसके लिए खुद को तैयार करना शुरू कर दिया जिसका असर उत्पादन ठप्प होने तथा मांग रुक जाने के रूप में सामने आया। दूसरी बात ये हुई कि नोटबंदी के प्रभाव से उबरने की कोशिश कर रहे उद्योग-व्यापार जगत पर पूरा कारोबार हिसाब-किताब से करने की बंदिश आ गई। नोटबंदी के बाद यद्यपि 99ज् पुराने नोट रिजर्व बैंक में लौट आये किन्तु काले धन से कारोबार रखना दिन ब दिन कठिन होता गया। जीएसटी के प्रारंभिक चरण में ही नंबर दो का कारोबार करने वालों का हौसला काफी टूटा है। भविष्य में ई वे बिल व्यवस्था लागू होने के बाद तो बिना बिल के ऊपर-ऊपर होने वाले कारोबार पर और भी लगाम लगेगी। इससे हो सकता है औद्योगिक उत्पादन और बाजार से आने वाली मांग जून से दिसंबर तक की दो तिमाहियों में भी 6च् के आसपास ही रहे परन्तु एक बार जीएसटी के पूरी तरह चलन में आने के बाद अंतिम तिमाही में वह 7ज् तक पहुंच सकती है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि नोटबंदी और जीएसटी को लागू करने से मोदी सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति का पता तो चला ही लेकिन उससे भी ज्यादा लाभ भारत की वैश्विक छवि में सुधार के रूप में हुआ जिसके परिणामस्वरूप दुनिया भर के निवेशकों ने चीन की बजाय भारत को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया। इसकी एक वजह राजनीतिक स्थिरता भी है। बीच-बीच में हिचकोले खाने के बावजूद मोदी सरकार ने अपना प्रभाव कायम करते हुए पूरे देश में अपने लिये राजनीतिक समर्थन जुटा लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का एनडीए में लौटना और अब अन्नाद्रमुक का भी जुड़ जाना केन्द्र सरकार और भाजपा के पांव मजबूती से जमने का प्रमाण है। उद्योग जगत भी सरकार की नीतियों और निर्णयों से संतुष्ट है। जहां तक बात विपक्ष की है तो वह अब तक अपनी दिशा ही तय नहीं कर पा रहा। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिन आर्थिक अनिश्चितता को दूर करने में मददगार होंगे। डोकलाम विवाद को जिस सूझबूझ और साहस के साथ मोदी सरकार ने सुलझाया उसकी तारीफ शशि थरूर और उमर अब्दुल्ला सरीखे भाजपा विरोधी नेताओं तक को करनी पड़ गई। राजनीतिक स्थिरता, नेतृत्व की दृढ़ इच्छा शक्ति तथा नीतिगत स्पष्टता आर्थिक प्रगति की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। उस दृष्टि से पिछली दो तिमाहियों की गिरावट से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। भले ही कालाधन प्रत्यक्ष तौर पर उजागर नहीं हुआ परन्तु मोदी सरकार उसकी घेराबंदी करने में जरूरत कामयाब हो गई है। अब या तो वह कर ढांचे में आकर अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में शामिल होगा या फिर चोरी के माल की तरह पकड़ा जाएगा। भारतीय अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़े संक्रांति काल से गुजर रही है। इसे प्रसव पीड़ा भी कहा जा सकता है परन्तु इससे शुभ समाचार निकलकर आयेगा ये सुनिश्चित है क्योंकि निर्णय लेने वाले दबाव में आए बिना काम करने की हिम्मत दिखा रहे हैं जो विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री होने के बाद भी पिछली सरकार का प्रधानमंत्री नहीं दिखा सका। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने मौजूदा गिरावट के लिये चुनौती शब्द का उपयोग कर सही किया क्योंकि यदि वे चिंता कहते तब शायद गलत होता।

-रवींद्र वाजपेयी

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