Monday 11 September 2017

शरीयत को छेड़े बिना भी सुधार संभव

शरीयत चूंकि मुल्ला-मौलवियों की बनाई आचार-संहिता नहीं है अत: उसमें बदलाव न करने के लिये मुस्लिम समाज यदि राजी नहीं तो वह स्वाभाविक ही है। तकरीबन हर धर्म के अधिकतर लोग अपने मौलिक सिद्धान्तों एवं रस्मों-रिवाज में परिवर्तन करने के प्रति आसानी से राजी नहीं होते। यद्यपि पीढ़ी बदलने, परिवारों के सिकुडऩे, शिक्षा के प्रसार तथा मूल स्थान छोड़कर देश-विदेश में दूसरे स्थान पर जा बसने पर व्यक्ति अपने धर्म का तो पालन करता रहता है किन्तु उससे संबंधित तमाम आचरणों में शिथिलता और समझौते की स्थिति बन जाती है। इस दृष्टि से मुस्लिम समुदाय थोड़ा ज्यादा कट्टर है जो धर्म से जुड़े मामलों में सुधार या संशोधन की बात करने से दूर भागता है। मुल्ला-मौलवियों द्वारा संचालित व्यवस्था में धर्म के पालन को लेकर बरती जाने वाली सख्ती का ही परिणाम है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा इस्लाम के अनुयायी अपेक्षाकृत ज्यादा बंधे नजर आते हैं। यद्यपि शिक्षा के प्रसार तथा संचार क्रान्ति ने इस समाज में भी परिवर्तन की सुगबुगाहट पैदा कर दी है परन्तु उसकी गति बेहद धीमी है। गत दिवस मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जो बैठक भोपाल में संपन्न हुई उसमें मुख्य विचारणीय विषय था तीन तलाक पर हाल ही में आया सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय। बैठक यद्यपि किसी खास नतीजे पर नहीं पहुंच सकी किन्तु दबी जुबान अदालत का सम्मान किये जाने तथा ऊंची आवाज में शरीयत में किसी भी प्रकार की दखलंदाजी स्वीकार न करने की बात कहते हुए उक्त विवाद में केन्द्र सरकार की भूमिका की आलोचना अवश्य की गई। तीन तलाक संबंधी न्यायालयीन फैसले को लेकर बोर्ड के सदस्य अभी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके। 10 सदस्यों की एक समिति बना दी गई जो फैसले की व्याख्या करेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को न मानने की घोषणा करने का दुस्साहस भी बोर्ड नहीं कर सका तथा ये तय हुआ कि मुस्लिम समाज के लिये एक आदर्श निकाहनामा तैयार किया जावेगा जिसमें तीन तलाक के गलत होने की बात भी उल्लिखित होगी। इस आधार पर ये मान लेना गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का पालन करने की मानसिकता मजबूरी में ही सही परंतु बोर्ड ने बना ली है। तीन तलाक का मामला सुनते समय सर्वोच्च न्यायालय ने हलाला एवं अन्य संबंधित प्रथाओं पर बाद में विचार करने की बात कही थी। ऐसा लगता है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की चिंता इस बात को लेकर है कि तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक बताकर सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम समाज के प्रचलित रीति-रिवाजों में जो हस्तक्षेप किया, वह और आगे न बढ़ जाए। भाजपा की तीन बड़ी मांगों में एक समाज नागरिक संहिता भी रही है। यद्यपि फिलहाल वह इस पर ज्यादा हल्ला नहीं मचा रही परन्तु बीच-बीच में सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में टिप्पणी करता रहा है। सोशल मीडिया में भी इसे लेकर काफी बहस चला करती है। वैसे अब मुस्लिम समुदाय के भीतर भी धार्मिक कट्टरता से आजाद होने की इच्छा का बीज अंकुरित होकर पौधे की शक्ल ले चुका है। खास तौर पर महिलाएं अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति में संतुष्ट नहीं हैं किन्तु पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था एवं लचीलेपन के प्रति धर्म गुुरूओं की असहमति के कारण मुस्लिम समाज में सुधार की प्रक्रिया कछुआ चाल से भी धीमी चल रही है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मेें धर्मगुरूओं के अलावा इस्लाम के अच्छे व्याख्याकार एवं ओवैसी जैसे विदेश से पढ़कर आये बैरिस्टर भी हैं परन्तु शरीयत पर विचार को लेकर जिस तरह से हाथ खड़े कर दिये जाते हैं उससे लगता है कि मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे तथा समझदार किस्म के लोग भी घर की खिड़कियां और रोशनदान खोलने के प्रति अनिच्छुक हैं। शरीयत की पवित्रता को स्वीकार करना गलत नहीं है किन्तु तीन तलाक सरीखी प्रथा को ढोने की जिद  समझ से परे थी क्योंकि जिस शरीयत को सभी इस्लामी देश मानते है उनमें से भी तमाम ने तीन तलाक को खत्म कर दिया था। पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ न करने की धौंस दिया जाना भी आज के समय में अव्यवहारिक लगने लगा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ये ध्यान रखना होगा कि भले ही भारत का मुस्लिम समाज अभी भी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हो परन्तु मोबाईल और इंटरनेट के दौर में मुस्लिम महिलाएं एवं युवा भी तेजी से बदलती दुनिया को देख-समझ रहे हैं। हमारा कहने का आशय ये नहीं है कि पर्सनल लॉ बोर्ड शरीयत को पूरी तरह अप्रासंगिक अथवा अनावश्यक मान ले परन्तु धर्म रूपी अनुशासन में पूरी तरह जड़ता आने से वह अपनी स्वाभाविकता खो देता है। उस दृष्टि से समय आ गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित मुस्लिम समाज के अन्य प्रतिष्ठित संगठन तथा उनके संचालकगण उन बदलावों पर ठंडे दिमाग से विचार करें जो आज नहीं तो भविष्य में उन्हें करना ही पड़ेंगे। तीन तलाक संबंधी फैसले पर मुस्लिम समाज की महिलाओं ने टीवी पर जिस तरह खुलकर अपने विचार व्यक्त किये वे बोर्ड के सदस्यों सहित देश भर के मुल्ला-मौलवियों ने भी देखे सुने होंगे। बेहतर हो हवा के रूख को समझकर समझदारी से आगे बढ़ा जाए। धार्मिक नियम और प्रथाएं कितनी भी पवित्र क्यों न हों परन्तु उनमें से सभी अजर-अमर हों ये जरूरी तो नहीं। जिस प्रकार समुद्र की विशेषता एवं सौंदर्य निरंतर उठती लहरों में छिपा है ठीक वैसे ही धर्म में भी सदैव चिंतन एवं विचार रूपी लहरें उठती रहना जरूरी हैं।

-रवींद्र वाजपेयी

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