क्रिकेट में हर गेंद पर चौका या छक्का मारना बड़े से बड़े बल्लेबाज के लिये नामुमकिन होता है। इसीलिये वह एक-दो रन बना-बनाकर अपना स्कोर बढ़ाता रहता है। कूटनीति भी ऐसा ही क्षेत्र है। यहां धैर्य के साथ टिके रहने वाला वह बल्लेबाज ही अंतत: सफल होता है जो मौका पाते ही अपना स्कोर बढ़ाता चले। पिछले दिनों डोकलाम विवाद में भारत को मिली कूटनीतिक सफलता इसी धैर्य का परिणाम रही। चीन में शुरू हुए ब्रिक्स सम्मेलन में जाने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अप्रत्यक्ष रूप से डोकलाम गुत्थी सुलझाने का जो दबाव बनाया उसका असर गत दिवस साफ नजर आ गया जब सम्मेलन के घोषणा पत्र में पाकिस्तान में पल और चल रहे जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा द्वारा फैलाए जा रहे आतंकवाद के विरुद्ध चिंता व्यक्त करते हुए निंदा की गई। आश्चर्य इस बात का रहा कि कहां तो चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने श्री मोदी से अपने भाषण में आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान का विरोध नहीं करने की समझाईश दी थी और गत दिवस वही चीन पाकिस्तान में चल रही आतंकवाद की फैक्टरियों के विरुद्ध जारी संयुक्त घोषणा पत्र का हस्ताक्षरकर्ता बन गया। कूटनीति के जानकार इसे सफलता तो मान रहे हैं किन्तु उतनी बड़ी भी नहीं जिससे ये कहा जो सके कि पाकिस्तान के प्रति चीन का प्रेम कुछ कम हो गया है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो जिनपिंग गत वर्ष गोवा में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत के आग्रह पर पाकिस्तान के विरुद्ध घोषणा पत्र में एक शब्द रखने तक पर राजी नहीं थे वे ही अपने देश में उसकी खुली निंदा को नहीं रोक सके। ब्रिक्स घोषणा पत्र में आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को लपेटने का ये कदम इसलिये और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हस्ताक्षरकर्ताओं में वह रूस भी शामिल है जिसके बारे में ये हवा उडऩे लगी थी कि मोदी सरकार द्वारा अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने के कारण रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत विरोधी रूख अपना लिया है। इसकी एक वजह ये भी बताई गई कि रक्षा उपकरणों की खरीदी में भारत द्वारा एक देश से बंधकर रहने के बजाय पूरी तरह से व्यापारिक नीति पर अमल किया जाने लगा लेकिन बीते कुछ दिनों से जो संकेत मिल रहे थे उनके अनुसार रूस भी चीन और पाकिस्तान को लेकर काफी सतर्क हो चला था। ब्रिक्स में शामिल ब्राजील और द.अफ्रीका तो वैसे भी पाकिस्तान के प्रति हमदर्दी नहीं रखते। दरअसल चीन और रूस के रूख में थोड़ी सी ही सही किन्तु जो नरमी आई उसकी एक वजह इस्लामी आतंकवाद का बीज उनकी धरती पर भी अंकुरित होना है। सोवियत संघ से टूटकर अलग हुए मध्य एशिया के तमाम देश इस्लाम के अनुयायी हैं। वहीं चीन के सिकियांग प्रांत में मुस्लिम चरमपंथी रह-रहकर सिर उठाया करते हैं। यद्यपि चीन सरकार ने देश में ईद-मोहर्रम मनाने, रोजा रखने तथा हज यात्रा आदि पर काफी सख्ती लगा रखी है परन्तु ये डर भी सता रहा है कि देर सबेर उसकी पाकिस्तान समर्थक नीति गले में साँप लपेटने जैसी न हो जाए। काफी समय से चीन सं.रा.संघ की सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कुख्यात आतंकवादी मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने का विरोध करता आया है किन्तु गत दिवस वह ब्रिक्स देशों के घोषणा पत्र में पाक प्रवर्तित आतंकवादी संगठनों की हरकतों के उल्लेख को नहीं रोक पाया। हॉलांकि इसे दूसरे कोण से देखें तो इसमें भी चीन की कूटनीतिक चालबाजी हो सकती है जिसका उद्देश्य भारत को खुश करना तथा पाकिस्तान को अपने पक्ष में और दबाना भी हो सकता है। असलियत जो भी हो लेकिन सतही तौर पर तो ये माना ही जा रहा है कि ब्रिक्स घोषणा पत्र आतंकवाद के विरुद्ध भारत के दृष्टिकोण की उल्लेखनीय सफलता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी के चीन पहुंचने पर उनकी अगवानी चीन सरकार के राज्य मंत्री स्तर के नेता द्वारा किये जाने पर भाजपा विरोधी खेमे ने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री का खूब मखौल उड़ाया था किन्तु सम्मेलन की शुरुवात में ही जो साझा घोषणा की गई वह पूरी तरह भारत के पक्ष में मानी जाएगी और इसका श्रेय श्री मोदी के कूटनीतिक चातुर्य को देना हर दृष्टि से सही होगा। डोकलाम विवाद के दौरान चीन के जबर्दस्त उकसावे के बाद भी भारत सरकार ने जरा भी हड़बड़ाहट या गुस्सा प्रगट नहीं किया तथा सीमा पर चीन की धमकियों से हर तरह निपटने की तैयारी कर ली। जिनपिंग के साथ श्री मोदी के पुराने रिश्तों को लेकर विपक्ष ने काफी तंज भी कसे किन्तु कूटनीति और सैन्य स्तर पर हर तरह से डटने के साथ ही व्यापारिक मोर्चे पर भी चीन को घेरने की नीति ने अपना असर दिखा दिया और अंतत: डोकलाम में एक भी गोली चले बिना तनाव पर विराम लग गया। ब्रिक्स सम्मेलन के पहले रक्षा सलाहकार अजीत डोमाल की चीन यात्रा ने भी काफी अच्छा क्षेत्ररक्षण जमा दिया था। भले ही चीन की सदाशयता को स्थायी मानना बड़ी भूल होगी किन्तु उ. कोरिया द्वारा उत्पन्न संकट के कारण भी वह दबाव में आ गया है। उसे मालूम है कि यदि अमेरिका ने उ. कोरिया को निशाना बनाया तब उसकी लपटों से चीन भी थोड़ा तो झुलसेगा ही। फिलहाल द.एशिया के छोटे-छोटे अधिकतर देश भारत को अपने संरक्षक के तौर पर जिस तरह स्वीकार करते जा रहे हैं उससे भी चीन की चिंताएं बढ़ चली है। ब्रिक्स सम्मेलन में पाकिस्तान के विरोध के लिये तैयार हो जाना उसकी मजबूरी हो सकता है किन्तु इससे भारत को जबर्दस्त फायदा हुआ है जिसका असर पर आने वाले दिनों में साफ नजर आयेगा। घरेलू राजनीति में लगातार ताकतवर होने के बाद अब वैश्विक स्तर पर भी बतौर प्रधानमंत्री श्री मोदी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान को हर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग करने की कोशिशें जिस तरह रंग लाती जा रही हैं ब्रिक्स घोषणा पत्र उसका ताजा तरीन उदाहरण है।
-रवींद्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment