Monday 13 November 2017

चित्रकूट:भाजपा के लिए खतरे की घण्टी

भले ही भाजपा ये कहे कि चित्रकूट विधानसभा सीट पर पहले से ही कांग्रेस काबिज थी, ऐसा कहकर वह कांग्रेस की जीत को महत्व चाहे न दे लेकिन अपनी पराजय को हल्के में लेना उसके लिए आत्मघाती होगा। आम तौर पर ये माना जाता है कि उपचुनाव में विपक्षी दल फायदे में रहता है लेकिन मप्र में शिवराज सिंह चौहान ने अधिकतर उपचुनावों में भाजपा को जीत दिलाकर  कांग्रेस के हौसले पस्त कर रखे थे । कुछ समय पूर्व हुए अटेर उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद अब चित्रकूट में मिली हार ने भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। प्रत्याशी चयन को लेकर कांग्रेस में इस बार विवाद नहीं हुआ लेकिन इसके ठीक उलट भाजपा में टिकिट को लेकर जो घमासान मची वह आखिरी तक जारी रही। जिस उम्मीदवार की टिकिट काटने पर बवाल मचा उसे मुख्यमंत्री तक ने बिठाकर समझाया। ऊपरी दिखावे के बाद भी असन्तोष की ज्वाला भीतर-भीतर धधकती रही जिसका नतीजा पराजय के रूप में सामने आ गया। इस जीत से उत्साहित कांग्रेस को यदि ये लगने लगा हो कि मप्र में उसका सूखा खत्म हो गया है तो ये कोरा आशावाद होगा क्योंकि विधानसभा चुनाव के लिए अभी एक वर्ष का समय शेष है। बावजूद इसके भाजपा के लिए एक विचारणीय मुद्दा या यूँ कहें कि चिंता का कारण तो बन ही गया कि शिवराज सिंह का जादू मतदाताओं पर पहले जैसा कायम नहीं रहा। मुख्यमंत्री की चुनाव जिताऊ क्षमता को पूरी तरह खत्म होना मान लेना तो गलत होगा किन्तु ये भी सही है कि उनकी सरकार की उपलब्धियां अब पुरानी पड़ चुकी हैं। दरअसल शिवराज सिंह की जो पकड़ सत्ता और जनता दोनों पर थी वह बीते एक डेढ़ वर्ष में कुछ कमजोर तो पड़ी ही है। भले ही भाजपा इसे नहीं माने किन्तु भ्रष्टाचार के मोर्चे पर मप्र सरकार की छवि भी दिग्विजय सिंह के शासनकाल के अंतिम दिनों सरीखी हो गई है जिसकी वजह से पार्टी के अपने कैडर में निराशा और अपराधबोध है। किसानों से जुड़े मुद्दों और समस्याओं पर शिवराज सरकार की समूची कार्यप्रणाली आलोचनाओं के घेरे में आ खड़ी हुई है। मन्दसौर कांड के बाद प्याज खरीद में घोटाले के उपरांत दाल खरीद को लेकर भी किसान बेहद खफा हैं।उन्हें वाजिब दाम दिलवाने के लिए शुरू की गई भावान्तर योजना भी अव्यवस्था का शिकार होकर रह गई। बिजली संकट दूर करने में भले ही राज्य सरकार अपनी पीठ ठोंक ले किन्तु बिजली के बिलों को लेकर जिस तरह मप्र विद्युत मण्डल की दादागिरी चल रही है उससे आम जनता बहुत रुष्ट है। चित्रकूट की लम्बे अंतर से हार से भाजपा के संगठन में आ गई निष्क्रियता भी उजागर हो गई। प्रत्याशी चयन में मुख्यमंत्री और प्रदेश संगठन की उपेक्षा यदि हुई तो भी कैडर आधारित पार्टी होने का दावा करने वाले संगठन में पहले जैसा स्वस्फूर्त समर्पण नहीं रहा,ये स्वीकार करना ही पड़ेगा। भाजपा के आम कार्यकर्ता में सत्तारूढ़ लोगों के रूखे व्यवहार से काफी गुस्सा है वहीं विभिन्न पदों पर नियुक्तियों को लेकर जो कंजूसी और उदासीनता  शिवराज सरकार द्वारा दिखाई गई वह अब मंहगी पडऩे लगी है। पार्टी कार्यकर्ता से तो दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है किंतु सत्ता की मलाई खाने वालों का आचरण और सोच पूरी तरह पांच सितारा होने से निचले स्तर तक गुस्सा और निराशा नजऱ आने लगी है जिसे दूर करना जरूरी है, वरना 2018 के चुनाव में बाजी कठिन से कठिन होती चली जाएगी। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो अपनी सीट बचाकर उसने अपना मनोबल तो बढ़ाया ही है। यद्यपि आंतरिक स्तर पर मतभेद उसके भीतर भी कम नहीं हैं। पार्टी अभी तक ये तय नहीं कर सकी कि अगले विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह के मुकाबले वह किसे सामने खड़ा करेगी? उसके संगठन की स्थिति भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। चुनाव में टिकिट वितरण को लेकर पहले सरीखा विवाद मचने की आशंका कायम है। चन्द बड़े नेता अपने समर्थकों को उपकृत करने के फेर में पार्टी हितों को दरकिनार करने में नहीं हिचकेंगे, इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं। और फिर अभी गुजरात के चुनाव बाकी हैं जिस पर भाजपा और कांग्रेस का भविष्य काफी हद तक टिका है। यदि वहां भाजपा अपनी सरकार बचाने में सफल रही तब निश्चित रूप से कांग्रेस की आशाओं पर तुषारापात हो जाएगा क्योंकि राहुल गांधी की वोट खींचू क्षमता पर पहले से लगे प्रश्नचिन्ह तब और गहरे हो जाएंगे। नतीजे उल्टे हुए तब भाजपा के लिए 2018 का मिनी आम चुनाव जीतना ही कठिन होगा, 2019 तो अभी दूर है। कहने को एक उपचुनाव का परिणाम किसी अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने का आधार नहीं माना जा सकता क्योंकि राजनीति रोज नई करवटें बदला करती है जिसकी वजह से समीकरण कब बदल जाएं ये अनुमान लगाना अच्छों - अच्छों के बस में नहीं होता किन्तु हंडी का एक चावल देखकर अंदाज लगाने वाला परंपरागत तरीका भी पूरी तरह कालातीत नहीं हुआ है।उस दृष्टि से चित्रकूट की पराजय भाजपा के लिए जहां आत्मचिंतन का विषय है वहीं कांग्रेस को महज विजयोल्लास में डूबे नहीं रहना चाहिये क्योंकि बहोरीबंद, अटेर के उपचुनाव जीतने के बाद भी उसकी पराजय का सिलसिला चलता रहा है। अपने प्रतिद्वंदी की कमजोरी से लाभ उठाना रणनीति का हिस्सा होता है किंतु  आखिरकार अपनी शक्ति ही सहायक होती है। उस दृष्टि से कांग्रेस में कमजोरियों का ढेर है जिन्हें दूर न किया गया तो 2018 में  बैठे-बिठाए जीत नसीब हो जाएगी ये मान लेना स्वप्नलोक में विचरण जैसा ही रहेगा। उस दृष्टि से चित्रकूट उपचुनाव का परिणाम भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अवसर है। जो इसके मुताबिक अपनी व्यूहरचना को बड़े मुकाबले की दृष्टि से सुदृढ़ कर ले जाएगा वह फायदे में रहेगा। भाजपा इस पराजय से उपजी निराशा को किस हद तक दूर कर अपने आत्मविश्वास को पुनस्र्थापित कर सकेगी और कांग्रेस इस विजय से प्राप्त उत्साह को कितने समय तक कायम रख सकेगी इसी पर पूरा दारोमदार टिका रहेगा। फिलहाल तो कोई ठोस आकलन या भविष्यवाणी जल्दबाजी होगी क्योंकि भाजपा में शिवराज का विकल्प नहीं दिख रहा और कांग्रेस का सेनापति कौन होगा ये कोई नहीं बता सकता।

रवीन्द्र वाजपेयी

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