Wednesday 15 November 2017

फिल्म ही रहने दें तमाशा न बनायें!



बोलने-सुनने और लिखने की आजादी भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विशेषता है। तमामतर विरोधाभास के बाद भी इस देश में लोकतंत्र सफल है तो इसकी एक वजह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। जाने-अनजाने में हो रहा हो या इसके पीछे कोई कारण हो विगत तीन-चार साल से विरोध ने बर्बरता का रूप ले लिया है। कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। हर दो-चार दिन में कोई न कोई विवाद लोगों के सब्र की परीक्षा लेने लगता है। ताजा मामला रानी पद्मावती पर बनी फिल्म का है। शुरू-शुरू में समझा गया कि शायद यह इस फिल्म को कामयाब बनाने की चाल हो। आजकल ये भी होने लगा है। जिस फिल्म को लेकर जितना हल्ला मचता है वह उतनी ही भीड़ खींचती है। संजय लीला भंसाली बेहद प्रतिभाशाली फिल्म मेकर में शुमार होते हैं। उन्होंने समय-समय पर अपना लोहा भी मनवाया है। जब उनने देवदास बनाई थी तब भी उन पर मूल कहानी से छेड़छाड़ का आरोप लगा था। राजस्थान एवं राजपूत आन-बान-शान की कोई दूसरी मिसाल मुश्किल है। यही वजह है कि रानी पद्मावती पर बनाई गई पिक्चर इस समय चर्चा का विषय बनी हुई है। अभी सेंसर बोर्ड ने इसे प्रमाण पत्र नहीं दिया। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने भी दखल से इंकार कर दिया है। कई मशहूर फिल्म हस्तियां इस फिल्म की हिमायत कर रही है। ऑडियो-वीडियो के जरिये सफाई देने का प्रयास भी हो रहा है। दुर्भाग्य से केन्द्र से जुड़े लोग इस फिल्म के खिलाफ बोल रहे हैं। भाजपा का सोचना जो भी हो परंतु उसके कुछ बड़े नेताओं की जुबान भी कैंची की तरह चल रही है। कहीं न कहीं इसे वोट बैंक की राजनीति से भी जोड़ा जा रहा है। अलाउद्दीन खिलजी की छवि उस हमलावर की तरह है जिसने अपना सिक्का जमाने के लिये काफी जुल्म-सितम किये। एक राजपूत घराने की रानी होने के नाते पदमावती को भी सताया गया, जान देने के लिए मजबूर किया गया। जाहिर है कि पूरी तरह सिर्फ इतिहास को पर्दे पर उतारा नहीं गया होगा। कुछ फिल्मी तड़के भी लगाये होंगे। वो सब मिर्च-मसाला भी लगाया गया होगा जो आज के दौर में किसी हिन्दी फिल्म को चलाने के लिए बहुत जरूरी हो गया है। टेक्नालॉजी के भरपूर प्रयोग के लिए भी संजय लीला भंसाली जाने जाते हैं। ईमानदारी की बात तो यह भी है कि पद्मावती की मुखालफत कर रहे ज्यादातर लोगों ने यह फिल्म देखी ही नहीं होगी। अधिकांश सुनी-सुनाई या फैलाई गई अफवाह के पीछे भाग रहे हैं। बेहतर यही होगा कि केन्द्र सरकार या अन्य कोई जिम्मेदार दोनों पक्ष को आमने-सामने बिठाकर कोई ऐसा हल निकाले जो सबको मंजूर हो। फिल्म के प्रदर्शन के समय थियेटर में तोड़-फोड़ तथा अन्य हिंसक कदम किसी भी तरह से जायज नहीं कहे जा सकते। फिल्म वाले भी लोगों की भावना से न खेलें अन्यथा उनका धंधा ही खतरे में पड़ जायेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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