Wednesday 29 November 2017

शिवराज : प्रारब्ध और पुरुषार्थ का समन्वय

बतौर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का 12 वर्ष पूरे कर लेना कोई मामूली बात नहीं है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने राज्य की सत्ता संभाली थी उनमें कोई नहीं कह सकता था कि वे सर्वाधिक अवधि तक मुख्यमंत्री रहने के दिग्विजय सिंह के कीर्तिमान को तोड़ सकेंगे। चूंकि शिवराज के पास शासन-प्रशासन  का कोई अनुभव नहीं था इसलिए भाजपा में भी ये मानने वाले कम ही थे कि बतौर मुख्यमंत्री वे शासन चला सकेंगे और भविष्य की चुनावी चुनौतियों का सामना कर पाएंगे। उमा भारती की तेजस्विता और बाबूलाल गौर के सुदीर्घ अनुभव के सामने श्री चौहान का व्यक्तित्व और कृतित्व पसंगे में भी नहीं ठहरता था। भले ही वे पार्टी संगठन के छोटे-बड़े सभी पदों पर कार्य कर चुके थे किंतु विदिशा के सांसद में अलावा उनका प्रभावक्षेत्र बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा की राजनीति में भी वे पटवा गुट के दूसरे दर्जे के नेता माने जाते थे। उमा भारती तो अदालती प्रकरण के फेर में गद्दी गंवा बैठीं लेकिन उनकी जगह बैठे गौर साहब को भाजपा नेतृत्व ने क्यों चलता कर दिया ये रहस्य आज तक अनसुलझा है। 1974 से लगातार  विधायक बनते आ रहे बाबूलाल जी की लोकप्रियता और कार्यकुशलता असंदिग्ध रही है। जिस विभाग में वे मंत्री रहे उसमें छाप छोड़ी। विपक्ष में भी उनकी भूमिका बेहद आक्रामक रहा करती थी। लेकिन उमा भारती के जाने से राहत महसूस कर रहा पटवा खेमा गौर साहब को कभी हज़म नहीं कर पाया था। इसीलिए भाजपा हाईकमान के कान भरकर मुख्यमंत्री परिवर्तन की बिसात बिछाई गई और उमा भारती की समूची व्यूहरचना को ठेंगा दिखाते हुए शिवराज सिंह जैसे अप्रत्याशित नाम पर विधायकों की मुहर लगवाकर मप्र की राजनीति में नये युग की शुरूवात की गई। प्रारम्भ में लगा था कि दुबला-पतला वह इंसान मप्र सरीखे बड़े राज्य की बागडोर आखिऱ किस प्रकार संभाल पायेगा लेकिन उस बेहद साधारण और सीधे-सादे दिखने वाले व्यक्ति ने जो कर दिखाया वह शायद स्व.सुंदर लाल पटवा और कैलाश जोशी के लिए भी सम्भव न होता। गौर साहब भी भाजपा को अगला विधानसभा चुनाव जितवा पाते इसमें संदेह था। लेकिन पटवा जी के दरबारी होने के बावजूद शिवराज ने अपनी जो स्वतंत्र छवि जनमानस में बनाई और धीरे-धीरे पार्टी संगठन का नियंत्रण भी हथियाया उससे लोगों को लग गया कि वे लंबी रेस के घोड़े हैं। 2008 का चुनाव शिवराज सिंह के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा। कांग्रेस राज्य में जल्दी-जल्दी मुख्यमंत्री बदलने को मुद्दा बनाकर भाजपा को घेर रही थी वहीं दूसरी तरफ  उमा भारती की जनशक्ति पार्टी ने भाजपा के मतों में सेंध लगने का खतरा पैदा कर दिया। शिवराज ने अपने चुनाव तो खूब लड़े थे लेकिन प्रदेश की सत्ता में पार्टी की वापिसी जैसी चुनौती का वे पहली बार सामना कर रहे थे। बावजूद इसके अपनी प्रभावशाली भाषण शैली, जनता से सीधे संवाद स्थापित करने की कला, सरल स्वभाव और कुछ जनकल्याणकारी नीतियों के चलते उन्होंनें भाजपा को दोबारा सत्ता में लाने का जो कारनामा कर दिखाया उसने रातों-रात उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाई। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हेतु भी उनका नाम चर्चा में आया। 2008 के बाद 2013 में भी उनके नेतृत्व में भाजपा ने प्रदेश की सत्ता पर कब्जा बनाए रखा जिसके बाद ब्रांड शिवराज जैसी टिप्पणियां भी उन्हें लेकर होने लगीं। प्रदेश में लगातार होने वाले उपचुनावों में भी चन्द अपवाद छोड़कर शिवराज सिंह ने अपनी जिताऊ क्षमता साबित कर दी। जनता को सीधे लाभ पहुंचाने वाली उनकी योजनाएं न सिर्फ  प्रदेश अपितु देश भर में सराही गईं। कई गैर भाजपा शासित राज्यों ने भी उन्हें अपनाया। कृषि और उद्योग के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य करते हुए मप्र को बीमारू राज्य के कलंक से मुक्त करने में सफलता हासिल कर ली। हालांकि ये सोचना अतिशयोक्ति होगी कि शिवराज ने मप्र में रामराज की स्थापना कर दी किन्तु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि बतौर मुख्यमंत्री अब तक का उनका कार्यकाल दिग्विजय सिंह से कहीं बेहतर रहा है। बिजली-सड़क के क्षेत्र में प्रदेश सरकार की उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। जनता से सीधे सम्पर्क की उनकी क्षमता निश्चित रूप से बेजोड़ है लेकिन सत्ता में 12 वर्ष पूरे कर लेने वाले शिवराज सिंह दो मोर्चों पर कमजोर साबित हुए। नौकरशाही पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता और भ्रष्टाचार को रोकने में विफलता उनकी तमाम उपलब्धियों को चिढ़ाती नजऱ आती हैं। भले ही  व्यक्तिगत तौर पर उनके विरुद्ध कोई आरोप साबित नहीं हो सका हो परन्तु बदनामी के जो छींटे उनके और परिवार के दामन पर पड़े वे भी कम गहरे नहीं हैं। कुल मिलाकर ये तो कहना ही पड़ेगा कि शिवराज सिंह भाजपा के भीतर तो चुनौती विहीन हैं ही,विपक्ष भी अब तक तो किसी दमदार चेहरे को उनके मुकाबले खड़ा नहीं कर पाया है। 2018 के विधानसभा चुनाव को एक साल बचा है। प्रदेश का राजनीतिक माहौल पूरी तरह भाजपामय है ये कहना निरी मूर्खता होगी किन्तु ये बात भी पूरी तरह से सच है कि शिवराज सिंह परिश्रम करने से नहीं चूकते और सामने आकर लड़ते हैं। इसीलिए अनेकानेक आशंकाओं और अटकलों के बाद भी लगता यही है कि कोई बहुत ही बड़ी बात नहीं हुई तो वे 2018 में  भी भाजपा की नैया पार लगाने में कामयाब हो जाएंगे। सत्ता और पार्टी संगठन के बीच उन्होनें जिस तरह का बेहतरीन समन्वय कायम रखा वह उनकी सफलता का बड़ा कारण है। सूचना क्रांति के इस दौर में शिवराज सिंह सरीखे सरल-सहज  व्यक्ति का 12 वर्ष तक सत्ता में बना रहना मामूली बात नहीं है। क्रिकेट की भाषा में कहें तो कम रन बनाने वाला बल्लेबाज भी यदि मैदान में डटा रहे तो उससे भी टीम का मनोबल बढ़ता है। बीते कुछ समय से शिवराज सिंह काफी विरोध का सामना करते आ रहे हैं। विपक्ष के साथ ही पार्टी के भीतर भी असंतुष्ट खेमा उनकी टांग खींचने का कोई मौका नहीं गंवाता लेकिन उनका राजयोग कम प्रबल नहीं है जिसके बलबूते वे 12 साल काट सके और आज जैसे हालात रहे तो ब्रांड शिवराज के प्रति लोगों का रुझान आगे भी जारी रहेगा। दरअसल विपक्ष की समूची आक्रामकता किसी वैकल्पिक चेहरे के अभाव में बेअसर होकर रह जाती है। भाजपा के भीतर भी शिवराज सिंह से ईष्र्या रखने वाले कम नहीं है किंतु कहते हैं इंसान की किस्मत उससे दो कदम आगे चलती है। शिवराज सिंह पर भी ये बात सौ फीसदी लागू होती है और फिर वे पुरुषार्थ करने में भी पीछे नहीं रहते ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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