Wednesday 8 November 2017

नोटबंदी: आकलन के लिए एक वर्ष कम है


 
आजादी के बाद शायद ही आर्थिक क्षेत्र में लिया गया कोई ऐसा निर्णय होगा जिसकी गूंज एक वर्ष बाद तक सुनाई दे रही है। इंदिरा जी द्वारा किये गये बैंक राष्ट्रीयकरण के उपरांत नरेन्द्र मोदी ने अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने का दुस्साहस किया। लेकिन पहले फैसले ने आम जनता और उद्योग-व्यापार जगत को उतना परेशान और प्रभावित नहीं किया जितना गत वर्ष 8 नवंबर की रात प्रधानतंत्री श्री मोदी द्वारा की गई नोटबंदी की घोषणा ने। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि उसके बाद के कुछ दिन तो क्या कई महीने पूरा अर्थतंत्र ठहराव से भी बढ़कर बदहवासी की स्थिति में रहा। नगदी राशि की कमी और नए नोटों की समुचित आपूर्ति के अभाव में निजी जीवन और कारोबारी जगत दोनों को अवर्णनीय परेशानियों का सामना करना पड़ा। सरकार के पास अपने उस कदम के फायदे गिनाने के दर्जनों आधार हैं वहीं विपक्ष ने उसे संगठित लूट सहित तमाम ऐसे विशेषणों से संबोधित किया जिनसे सरकार की तानाशाही झलकती हो। नोटबंदी के एक वर्ष बाद भी उसका असर बना हुआ है। इस दौरान अर्थव्यवस्था को इतने गड्ढों से गुजरना पड़ा कि वह अपनी स्वाभाविक गति तक खो बैठी। हिरण की तरह कुलांचे मारने की जगह वह कछुए की तरह चलने को मजबूर हो गई। सरकार कितने भी दावे करे किन्तु बीता एक साल अर्थव्यवस्था के लिये किसी डरावने सपने जैसा ही रहा। जहां तक जीएसटी का प्रश्न है तो उसको लागू होने के काफी पहले से वह चर्चा में था किन्तु नोटबंदी तो किसी छापामार हमले की तरह रही। नरेन्द्र मोदी की इस बात के लिये प्रशंसा करनी पड़ेगी कि उन्होंने अपने उस महत्वाकांक्षी निर्णय की भनक अपने निकटस्थ सहयोगियों तक को नहीं लगने दी थी। लेकिन सबसे बड़ी गलती उनकी सरकार से ये हो गई कि इतना बड़ा निर्णय लागू करने के बाद हुई चौतरफा आलोचना से घबराकर आपदा प्रबंधन में वह सफल नहीं हो सकी और आपाधापी में गलतियों पर गलती करती गई। मसलन एक तो बैंकों से नये नोटों की पर्याप्त आपूर्ति का इंतजाम नहीं किया गया वहीं पुराने नोटों से पेट्रोल-डीजल खरीदने और सरकारी देनदारियां चुकाने जैसे विकल्प उपलब्ध करा दिये गये। इसके चलते कालेधन का बड़ा हिस्सा सरकार की गिरफ्त में आने से बच गया। प्रधानमंत्री ने जो साहस नोटबंदी का निर्णय करने में दिखाया वह उसे लागू करते समय कहीं कमजोर पड़ गया। सरकार लगातार झुकती चली गई और कालेधन के कारोबारी हर चाल का जवाब ढ़ूंढ़ते चले गये। इसके कारण 500 और 1000 रु. के जितने पुराने नोट थे उसका लगभग पूरा हिस्सा बैंकों में लौट आया। लेकिन वह सफेद हो गया ये मानना सही नहीं है क्योंकि सरकार ने संदिग्ध खातों सहित जनधन खातों में जमा बड़ी रकम को जांच के दायरे में ले लिया है। इसका क्या नतीजा निकलेगा ये फिलहाल कोई नहीं बता सकता परन्तु इतना जरूर हुआ कि कालेधन की जो उछलकूद बाजार में दिखाई देती थी वह नदारद हो गई। इसका असर कारोबारी मंदी और उससे उपजी बोरोजगारी के तौर पर महसूस किया जा रहा है और इसी वजह से नेकनीयती से लिये गए निर्णय के लिये प्रधानमंत्री और उनकी सरकार गालियां खा रही है। आज भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि नोटबंदी का फैसला पूरी तरह सही तथा जरूरी था जिसके आकलन के लिये एक वर्ष की समयावधि काफी कम है। देश में कालेधन ने समूचे अर्थतंत्र को इस बुरी तरह जकड़ रखा था कि उससे मुक्ति पाकर सब कुछ पारदर्शी बनाना कोई आसान काम नहीं था। नरेन्द्र मोदी को इसके लिये चाहे कितनी भी आलोचना झेलनी पड़ रही हो परन्तु उनकी नीयत में खोट मानना उनके प्रति अन्याय होगा। एक वर्ष बाद भी भले ही अर्थव्यवस्था अपनी रंगत पर न आ सकी हो तथा स्थितियां अभी काबू से बाहर लग रही हों परन्तु ये उम्मीद व्यर्थ नहीं है कि यदि उद्देश्य पवित्र हो तो भले ही देर लगे परन्तु परिणाम सुखद आते हैं। नोटबंदी की सालगिरह पर पूरे देश में उसका जो विश्लेषण हो रहा है वह भी एक अच्छा संकेत है। शायद ही सरकार के किसी अर्थिक निर्णय पर इतनी बहस और विवाद हुआ हो। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह सहित कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जो प्रारंभिक प्रतिक्रिया एक वर्ष पूर्व दी थी वह आज कही जा रही उनकी बातों से पूरी तरह अलग है जिससे ये स्पष्ट होता है कि राजनीति अपनी सुविधानुसार सभी चीजों को आंकती है। आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार पर नियंत्रण जैसी बातें सतह पर चूंकि दिखाई नहीं देतीं अत: उन पर कुछ कहना अनावश्यक प्रतीत होता है लेकिन इतना अवश्य है कि नोटबंदी के पीछे सोच अच्छी थी किन्तु प्रधानमंत्री और उनकी सलाहकार मंडली को थोड़ा समय लेकर और तैयारी कर लेनी थी। जब नोटबंदी करनी ही थी तो अर्थक्रांति नामक जिस संस्था से प्रेरित होकर श्री मोदी ने यह कदम उठाया था यदि उसके सुझावों को पूरी तरह लागू कर दिया जाता तो कड़वी दवा का असर कम समय में ज्यादा होता। बहरहाल अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। नोटबंदी का अच्छा असर आयेगा ये तो दबी जुबान सभी अर्थशास्त्री मानते हैं लेकिन भारत की तासीर कुछ अलग हटकर है जो बदलाव को धीरे-धीरे स्वीकार करती है। इंदिराजी ने जब राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स बंद किये तो जनता ने इस निर्णय को तो पसंद किया किन्तु उसके बाद भी अधिकतर राजा-महाराजा अपनी रियासत वाली सीट से विधानसभा-लोकसभा का चुनाव जीतते रहे और उनमें से कई तो आज भी सफलतापूर्वक राजनीति कर रहे हैं। हमारे देश में चूंकि लगातार कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं इसलिये कोई भी अच्छा-बुरा निर्णय उसी कसौटी पर कसा जाता है। नोटबंदी के साथ भी वही हुआ और हो रहा है। वह कितनी फायदेमंद रही और कितनी नुकसानदेह इसका वस्तुपरक निष्कर्ष निकालने के लिये थोड़ी प्रतीक्षा और करनी चाहिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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