Saturday 4 November 2017

संस्कार सरकार से ज्यादा प्रभावशाली होते हैं

निर्भया कांड की दर्दनाक दास्तां दोहराने वाले भोपाल के हादसे ने शांति के टापू म.प्र. की कानून व्यवस्था को तो कठघरे में खड़ा किया ही संस्कारों के क्षरण को भी उजागर कर दिया। प्रदेश की राजधानी का यदि ये हाल है तब दूरदराज के इलाकों में दरिन्दों को हौसले कितने बुलंद होंगे ये अंदाज लगाना कठिन नहीं है। जैसा हमेशा होता आया है राजनीति ने अपना चिर-परिचित काम फिर शुरू कर दिया है। विपक्ष सरकार को निकम्मा साबित करने में जुट गया है वही सत्तापक्ष से गृहमंत्री पूछ रहे हैं क्या कांगे्रस के राज में महिला उत्पीडऩ नहीं होता था? चौतरफा आलोचना से बौखलाए मुख्यमंत्री ने पुलिस महकमें पर गाज गिराते हुए चार-छह को निलंबित और एक-दो को इधर-उधर कर दिया। राज्य में पुलिस के मुखिया को लताड़ लगाकर मुख्यमंत्री ने ये दर्शाने का प्रयास किया कि वे रौब गांठना भी जानते हैं। दुष्कर्म की शिकार लड़की ने बजाय जीवन भर घुट-घुटकर मरने के हिम्मत दिखाई जिससे आरोपी पकड़ लिये गये। पिछले दिनों ही शिवराज सिंह चौहान बलात्कारी को फांसी पर टांगने का समर्थन कर चुके थे। उनकी मंशा कानून का खौफ पैदा कर इस तरह के हादसे रोकने की है जो बतौर शासक गलत नहीं है किन्तु ऐसी समस्या क्या केवल अपराधी को दंडित करने से हल हो सकती है। निर्भया कांड से शर्मसार संसद ने भी एक कड़ा कानून पारित किया था। उसके बाद बलात्कारियों को आनन-फानन में मृत्यु दंड और आजीवन कारावास दिये जाने में तेजी आ गई। जिसके पीछे जनमत का दबाव भी काफी हद तक कारगर है। आज ही डिंडौरी जिले में ग्रामीण क्षेत्र में हुए बलात्कार के मामले में दो आरोपियों को फांसी की सजा सुनाए जाने का समाचार भी आ गया। जहां तक बात कानून-व्यवस्था बनाए रखने की है तो ये बात सच है कि पुलिस या प्रशासन न तो हर व्यक्ति की निजी तौर पर सुरक्षा कर सकता है और न ही चप्पे-चप्पे पर नजर रखना संभव है। भोपाल कांड जिस जगह हुआ वहां सीसी टीवी कैमरे लगाने की जरूरत भी नहीं थी। रेल की पटरी पर से आना-जाना सामान्य स्थितियों में अटपटा लगता है परन्तु जो विवरण मिला है उससे पता चलता है कि वारदात को अंजाम देने वालों की मानसिकता ही दूषित रही। ले-देकर प्रश्न उठता है कि कड़ी सजा और चौतरफा प्रताडऩा के बाद भी ऐसी घटनाएं रुक क्यों नहीं रहीं? आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हमारा समाज संस्कारों की गठरी को छोड़कर जिस तरह भागा जा रहा है वह स्थिति कानून के बलबूते सुधारने की उम्मीद आसमान को धरती पर उतारने की कोशिश जैसी ही होगी। सच तो ये है कि महिला उत्पीडऩ की बढ़ती घटनाएं उस मनोरोग का परिणाम है जो संक्रामक बीमारी की तरह फैलता ही जा रहा है। इसमें दो मत नहीं है कि समाज में बढ़ता खुलापन भी अनेक समस्याओं को जन्म दे रहा है परन्तु नारी को लेकर जो धारणा आज से 40-50 वर्ष पूर्व तक थी उसमें धीरे-धीरे बदलाव आता गया जिसके कारण मां, बेटी, बहिन से बढ़कर बात मैडम और मेम पर ठहर गई। शोचनीय बात ये है कि पहले जिन ग्रामीण क्षेत्रों में यौन अपराध सुनाई तक नहीं देते थे वहां अब सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं होने लगी हैं। सरकार, संसद, पुलिस, प्रशासन, समाचार माध्यम, महिला संगठन, राजनीतिक दल, एनजीओ सब मिलकर दुष्कर्म होने के बाद एक स्वर से उसकी निंदा करते हैं। अपराधी पकड़े जाते हैं और उन्हें सजा भी मिलती है लेकिन एक घटना की खबर पुरानी होने के पहले ही दूसरी का हो जाना ये दर्शाता है कि बढ़ती शिक्षा और संपन्नता के साथ-साथ दरिन्दों की फौज भी बढ़ती जा रही है।  इसकी एक वजह समाज द्वारा पूरी जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ देने की प्रवृत्ति है। सही बात तो ये है कि केवल निंदा करने एवं मोमबत्तियां जलाकर अपनी संवेदनशीलता व्यक्त करने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। आखिरकार समाज को ही आगे आना होगा। मां-बाप अपने बच्चों को यदि संस्कारों की घुट्टी समय रहते पिलाते रहें तब ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण रखना संभव हो सकता है। इसके लिए शिक्षा कोई अनिवार्यता नहीं है क्योंकि जब देश शिक्षा के क्षेत्र में काफी पिछड़ा था तब समाज में संस्कृति और संस्कारों का जबर्दस्त प्रभाव था। गरीब और अमीर सभी वर्गों में महिलाओं के सम्मान के प्रति ईमानदार सोच थी। बहू-बूटी के मान-मर्यादा की सुरक्षा सरकार से ज्यादा समाज की जिम्मेदारी होती थी। माना कि सब कुछ जस का तस वापिस नहीं लाया जा सकता परन्तु वह पूरी तरह नष्ट हो जाए ये भी अच्छा नहीं है। बलात्कारी के प्रति घृणा तो प्रतिक्रिया है परन्तु दुष्कर्म जैसी प्रवृत्ति विकसित ही न हो इसके लिए संस्कारों के उन बीजों का फिर से रोपण करना जरूरी हो गया है जो हाइब्रिड संस्कृति की चकाचौंध में सूखते चले गये। जयशंकर प्रसाद लिखित अजर-अमर पंक्ति 'नारी तुम केवल श्रद्धा होÓ महज किसी कविता का हिस्सा नहीं अपितु पूरा का पूरा मनोविज्ञान है जिसका अध्ययन-अध्यापन समय की मांग है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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