Thursday 2 November 2017

गुजरात : कांग्रेस उधार की बैसाखियों के भरोसे

गुजरात विधानसभा का चुनाव दिन ब दिन रोचक होता जा रहा है। राहुल गांधी जिस आक्रामक अंदाज में हैं उससे ये लगने लगा है कि कांग्रेस इस मर्तबा नरेन्द्र मोदी द्वारा बनाए गए भाजपा के इस गढ़ को ध्वस्त करके ही मानेगी। नोटबंदी के बाद जीएसटी को लेकर व्यापारियों में पैदा हुए अंसतोष ने कांग्रेस में नया उत्साह भर दिया। ये भी देखने में आ रहा है कि श्री गांधी इस चुनाव में सुनियोजित रणनीति के तहत भाजपा विशेष रूप से प्रधानमंत्री को घेरने में लगे हैं। सोशल मीडिया का उपयोग भी कांगे्रस और राहुल पहले की अपेक्षा बेहतर तरीके से कर रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी ये मान लेना जल्दबाजी होगी कि गुजरात पर कांग्रेस का कब्जा हो ही जाएगा क्योंकि तमाम ऊपरी तामझाम के बाद भी कांगे्रस जमीनी स्तर पर उतनी मजबूत नहीं है जितनी होनी चाहिए। यही वजह है कि अब तक जितने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आये सभी में भाजपा की आसान विजय की भविष्यवाणी की गई। यद्यपि सर्वेक्षण के वक्त तक हार्दिक पटैल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी के साथ राहुल का विधिवत समझौता नहीं हो सका था। अल्पेश तो कांगे्रस में शामिल ही हो गये किन्तु अभी तक हार्दिक और जिग्नेश भाजपा का विरोध भले कर रहे हों किन्तु कांगे्रस का साथ देने के बारे में उनका रुख पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। यही वजह है कि अभूतपूर्व आत्मविश्वास के बावजूद कांगे्रस की स्थिति उस विकलांग की तरह है जो खड़े तो होना चाहती है परन्तु उसके पास अपनी खुद की बैसाखी नहीं होने से वह उधार लेने को मजबूर है। हार्दिक और जिग्नेश क्रमश: पाटीदार और दलित समुदाय के ठेकेदार बनकर कांगे्रस के सामने शर्तें रख रहे हैं। यदि उन्होंने ऐन वक्त पर अपना हाथ पीछे खींच लिया तब राहुल गांधी की पूरी मेहनत पर पानी फिरते देर नहीं लगेगी। अब तक की जो स्थिति नजर आ रही है उसके चलते कांग्रेस अपने प्रत्याशी तय नहीं कर पा रही। हार्दिक और जिग्नेश दोनों को एक साथ साधे रखना जहां राहुल के लिए समस्या बन गया है वहीं इन दोनों को खुश करने के फेर में अल्पेश ठाकोर के नाराज होने का खतरा भी सिर पर मंडरा रहा है। ये दोनों युवा नेता इस असलियत को भांप गये हैं कि भाजपा के अंधे विरोध के चलते कांगे्रस के सामने समर्पण करने का दुष्परिणाम उनका स्वतंत्र अस्तित्व खत्म होने के रूप में आ सकता है। कांगे्रस के लिए भी हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश तीनों के नखरे एक साथ उठा पाना बेहद कठिन होता जा रहा है। मतदान की तारीखों की घोषणा हो जाने के बाद भी राहुल उम्मीदवारों का चयन करने की स्थिति में नहीं हैं जिससे पार्टी के उन नेताओं में बेचैनी बढ़ रही है जो सब काम छोड़कर टिकिट की लाईन में खड़े हैं। जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक गुजरात में कांग्रेस पार्टी के पास जमीनी स्तर पर उतना अच्छा संगठन नहीं है जो चुनाव जीतने की पहली शर्त है। पाटीदार, ओबीसी और दलित मतदाताओं के बीच भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो ये समझता है कि राज्य में कांग्रेस की सत्ता बन जाने के बाद बिना केन्द्र की सहायता मिले वह अपने वायदे पूरे नहीं कर सकेगी। जीएसटी से त्रस्त गुजरात का व्यापारी वर्ग भाजपा के साथ अपने लंबे जुड़ाव को एक झटके में तोडऩे के पहले सौ बार सोचेगा, ये भी राजनीति के जानकार मान रहे हैं। कांग्रेस की राह में रोड़ा अटकाने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटैल और शंकर सिंह वाघेला का नाम भी है। पिछले चुनाव में केशुभाई ने पाटीदारों को भाजपा से तोडऩे के लिए अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा परन्तु वे नाकामयाब रहे। इस बार वे शांत हैं वहीं श्री वाघेला इस बार कांग्रेस छोड़ सभी सीटों पर उम्मीदवार लड़वा रहे हैं। उनके इस कदम को परदे के पीछे से भाजपा का समर्थन बताया जा रहा है। कुल मिलाकर राहुल गांधी गुजरात में पूरा दमखम दिखाने के बाद भी उस बाहरी मदद पर आश्रित हैं जो अभी तक तो मिली नहीं है और आगे भी मिल पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। दरअसल श्री गांंधी को ये समझ में आ गया है कि यदि वे गुजरात में चमत्कार नहीं दिखा सके तो फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की उम्मीदों पर अभी से तुषारापात हो जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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