Monday 20 November 2017

राजनीति में ब्लैकमेल को सौदेबाजी कहते हैं

हालांकि ये कोई नई बात नहीं है लेकिन गुजरात में पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटैल जिस तरह से कांग्रेस पर दबाव बना रहे हैं उसे ब्लैकमेल ही कहा जायेगा। यद्यपि हार्दिक और उनके साथी भाजपा को हराने की कसम खा चुके हैं लेकिन कांग्रेस को पूरी तरह घुटनाटेक कराने की उनकी मंशा या यूं कहें कि रणनीति पूरी तरह से कारगर नहीं होते देख वे आए दिन समझौता तोडऩे की धमकी देते रहे हैं । हार्दिक का संगठन खुद चुनाव नहीं लड़ रहा लेकिन उनकी इच्छा अपने प्रभाव क्षेत्र से अधिकतम अपने उम्मीदवारों को कांग्रेस टिकिट पर चुनाव लड़वाने की  रही है । भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की जो दो सूची जारी कीं उसमें काफी पाटीदारों को टिकिट दिए जाने से कांग्रेस भी दबाव में आ गई और उसने हार्दिक समर्थक कुछ पाटीदारों को टिकिट दे डाले। यद्यपि हार्दिक जितनी टिकिटें चाह रहे थे उतनी कांग्रेस नहीं देना चाह रही जिस वजह से पाटीदार आंदोलन से जुड़े तबके में असंतोष है किंतु कांग्रेस की मुसीबत ये है कि वह अपने कार्यकर्ताओं को भी उपेक्षित या रुष्ट नहीं कर सकती। इसीलिए कल रात ज्योंही उसकी सूची जारी हुई पाटीदार समाज के लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। उनके अपने कार्यालयों के सामने तो झगड़ा फसाद हुआ ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ भी उनकी झड़पें हुई। इसी बीच हार्दिक की घुड़कियां भी जारी हैं। समझौता तोडऩे की धमकी भी कल रात तक हवा में तैरती रही। आज वे कांग्रेस के साथ आरक्षण पर हुए समझौते की घोषणा करने वाले हैं लेकिन कांग्रेस की पहली सूची आते ही पाटीदार समुदाय को ये महसूस होने लगा कि कांग्रेस उसका उपयोग कर रही है । पाटीदार आंदोलन के सूत्रधारों की स्थिति भी 100 जूते या 100 प्याज में से एक चुनने की बाध्यता जैसी हो गई है। आज की स्थिति में वे भाजपा से जुड़ नहीं सकते वहीं कांग्रेस से उन्हें वैसा सहयोग नहीं मिल रहा जैसी उन्हें उम्मीद रही होगी। कांग्रेस भी हार्दिक को लेकर काफी पशोपेश में है । उसे एहसास हो गया है कि पाटीदार आंदोलन का ये नेता बेहद चालाक किन्तु अपरिपक्व है जिसके साथ फूंक-फूंककर आगे बढऩा जरूरी है। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वह न तो हार्दिक के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण करना चाहती है और न ही उन्हें नाराज करने क़ा साहस बटोर पा रही है । इस मामले में भाजपा को ये लाभ जरूर हुआ कि उसे किसी बाहरी दबाव से नहीं जूझना पड़ा लेकिन पाटीदारों को ज्यादा टिकिटें दिए जाने के कारण क्षत्रिय समाज की नाराजगी से उसे भी निपटना पड़ रहा है । कांग्रेस और भाजपा में तो जो टूटन हो रही है वह अपनी जगह है लेकिन हार्दिक के अपने कुनबे में भी कांग्रेस से समर्थन की अपेक्षित कीमत नहीं मिलने का गुस्सा सतह पर परिलक्षित हो रहा है। इस सबके कारण नोटबन्दी और जीएसटी का पूरा हल्ला पाटीदार आंदोलन से उत्पन्न दबाव पर आकर केंद्रित हो गया। कांग्रेस के गले में हार्दिक फांस की तरह अटके हुए हैं क्योंकि अल्पेश ठाकोर नामक ओबीसी नेता को पार्टी में सम्मिलित करवाकर उसने पहले ही एक जातिवादी नेता को अपने घर बिठा रखा था जो पाटीदार आरक्षण को लेकर किये जा रहे ब्लैकमेल के सामने पार्टी नेताओं को पूरी तरह झुकने से रोके हुए है। कांग्रेस नेतृत्व को भी ये लग रहा है कि हार्दिक तो भाजपा विरोध में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब पीछे हटना उनके लिए आत्मघाती होगा इसीलिए वह पाटीदार आरक्षण पर खुलकर पत्ते नहीं खोल रहे जिससे ओबीसी मतदाता न रूठ जाएं। कुल मिलाकर विभिन्न  मुद्दों से शुरू हुआ चुनाव अभियान लौट फिरकर उसी घिसे पिटे ढर्रे पर लौट आया जिसे जाति कहा जाता है। टिकिटों की घोषणा ज्यों-ज्यों हो रही है, दोनों प्रमुख पार्टियों के अलावा पाटीदार आंदोलन के भीतर भी दरारें चौड़ी होने लगी हैं हार्दिक के अनेक साथी उनसे बिदककर इधर -उधर मुंह मारते देखे जा सकते हैं कुल मिलाकर एक हाई प्रोफाइल कहा जा रहा मुकाबला ले देकर फिर उन्हीं बातों में आकर उलझ गया जो भारतीय राजनीति की चिरपरिचित बुराई या यूं कहें कि पहिचान बनकर रह गईं हैं। राष्ट्रीय पार्टियां क्षणिक स्वार्थ हेतु जिस तरह अपने आत्मसम्मान को गिरवी रखती हैं हार्दिक सरीखे राजनीतिक ब्लैकमेलर उसी का दुष्परिणाम हैं। कानून की नजर में तो ब्लैकमेल करना दण्डनीय अपराध है लेकिन राजनीतिक शब्दकोष में उसे सौदेबाजी कहते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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